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अंधेर नगरी चौपट राजा का पुनर्मंचन
बरस 1881 में भारतेंदु हरिश्चंद्र का ताजा नाटक 'अंधेर नगरी' काशी की जानी-मानी नाटक संस्था नेशनल थियेटर (जिसके संरक्षक खुद भारतेंदु थे) की रंगमंडली द्वारा काशी के दशाश्वमेध घाट पर खेला गया। पतनशील शासन की अंधेरगर्दी पर करारा व्यंग करने वाले इस नाटक के मंचन के लिए एक कालातीत श्मशानभूमि का चुनाव परिहास रसिक काशीवासियों द्वारा खूब सराहा गया। नाटक के केन्द्र में अंधेरनगरी का चौपट राजा है, जो अपनी ही दुनिया में रहता हुआ असलियत से कतई कटा हुआ है। बाजार की अराजकता का हाल यह है कि राज्य में भाजी हो या खाजा, सब टके सेर है। चौथे दृश्य में राजा को उसका मंत्री सूचित करता है कि शहर के किसी कल्लू बनिये की दीवार गिरने से एक बुढिय़ा की बकरी दब मरी है और वह दरबार से न्याय चाहती है। पिनक में ऊंघता राजा आदेश देता है कि दीवार को तलब किया जाए। यह बताए जाने पर कि गारे-चूने से बनी दीवार राज दरबार तक नहीं आ सकेगी, घटना से संबद्ध सभी किरदार (क्रमश: कल्लू बनिया, कारीगर, चूने वाला, भिश्ती, कसाई, गड़रिया समेत नगर कोतवाल भी) तलब किए जाते हैं। जैसा कि होता है, दरबार में हर कोई अगले को दीवार गिरने के लिए दोषी बताता है। अंतत: राजा को यह तर्क जंचता है कि ऐन मौके पर नगर कोतवाल की सवारी निकलने से दीवार की बनवाई करते कारीगरों का ध्यान बंट गया था, लिहाजा गारे-चूने का घोल पतला बना और उससे चुनी गई दीवार ढह गई, जिससे मुसम्मात फरियादी की बकरी दब मरी। हुक्म होता है कि नगर कोतवाल को फांसी दे दी जाए, क्योंकि वह मौका-मुआयने को निकलता न यह वारदात होती। फिर क्या? तुरंत लोग बदनसीब कोतवाल को पकड़कर मंच से वधस्थल की तरफ प्रस्थान करते हैं। पीछे-पीछे मंत्री का सहारा लिए राजा साहेब। अभी हाल की कई घटनाएं दिखा रही हैं कि अंधेर नगरी आज भी जिंदा है और श्मशान से लेकर खलिहान तक इस नाटक के मंचन की असीम संभावनाएं हैं, जहां उत्तरप्रदेश में बालू की अवैध तस्करी रोक रही युवा महिला उपजिलाध्यक्ष को भी इलाके में किसी मस्जिद की दीवार ढहाने का दोषी बताकर फटाफट आधी रात को निलंबित कर दिया गया। हल्ला मचने पर उसे तथा जिलाध्यक्ष को सांप्रदायिकता भड़काने का दोषी बताकर उसे भी निलंबित करने का तुगलकी इरादा जाहिर किया गया और साथ ही साफ कहा गया कि कानूनन भले ही सार्वजनिक जमीन पर कहीं बिना स्वीकृति के किया जाता हर निर्माण कार्य रोकने का आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने प्रशासन को दे रखा है, पर ऐसा फैसला बिना मुख्यमंत्री से पूछे क्योंकर ले लिया गया? दिल्ली फरियाद करने गए लोगों को यह कहकर चुप कर दिया गया कि मामला राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र का है ।
इस वर्ग का
मिजाज और आचरण दरअसल भारतेंदु युग के ही सामंती - साम्राज्यवादी दर्शन का अनुसरण करता है। फर्क इतना है कि जहां अंग्रेज जनता को लूटकर माल इंग्लैण्ड को भेजता था, उसने अपनी लूट के द्वारा अपने मुल्क के राज समाज को लगातार उत्पादक और संपन्न बनाया, जबकि भारत का यह नव-सामंत वर्ग अपने परिवार और जातीय वोट-बैंक को लूट के माल से नवाजकर एक नितांत उपभोगवादी, अनुत्पादक और प्रतिगामी परत राज और समाज दोनों में बना रहा है, जिसने नई पीढ़ी के एक महत्वाकांक्षी हिस्से को भी कम उम्र में वैसा ही बना दिया है। चुनावकाल में लोकतंत्र के पक्ष में घोषित तौर से कुछ भी नारेबाजी हो, वह पिनक में झूमते राजा की बड़बड़ाहट से अधिक नहीं। समाजवादी वितरण और सांप्रदायिक सद्भावना, बहुजन हित या सबके लिए शिक्षा, न्याय सबके लिए, पर तुष्टीकरण किसी का नहीं, ये तमाम नारे इस दृष्टि से शोध का विषय हैं कि उनका असली मतलब क्या है? जो अफसर नौकरी के शुरुआती दिनों में इनका पिनकोड समझ लेता है, वह शासक और शासित के बीच का असल फासला भांपकर जल्द ही शासकों का ताबेदार बनकर तरक्की पाता जाता है, जो न समझे, वह दुर्गा शक्ति की गति को प्राप्त होता है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने दुर्गा का पक्ष लेने वाले अफसरों को उनकी औकात बताते हुए याद दिलाया भी कि मायाराज में तो वे मुख्यमंत्री के कक्ष में घुस नहीं सकते थे। उन्होंने इसकी आज्ञा क्या दे दी तो अब उन्हीं की हुक्म उदूली? उत्तरप्रदेश में गरीबी और पिछड़ापन तीन दशकों के पिछड़े, दलित शासकों के बावजूद क्यों कायम रहा और भारतीय गणतंत्र दिवस फिर भी वहां तोप छुड़ाकर बैंड बजाकर क्यों मनाया जा रहा है? इन दोनों सवालों का जवाब एक ही है- जो गणतंत्र पिछले साठेक बरसों में बना है, उसकी नींव में 1881 का ही भारत है। भले ही शासक वर्ग का रंग और नस्ली पहचान बदल गई हो। इसीलिए दीवार गिरेगी तो आज भी नगर कोतवाल को ही फांसी की सजा सुनाई जाएगी। अंधेर नगरी नाटक का राजा किसका प्रतीक है?विवेकहीन और मूर्ख राजा अपनी पूरी प्रजा के लिए कष्ट का कारण ही नहीं बनता बल्कि उसके नाश का आधार भी बन जाता है । लेखक ने इस नाटक के आधार पर जन चेतना जगानी चाही है। 'अंधेर नगरी' नाटक की रचना वास्तव में बिहार के किसी रजवाड़े को आधार बनाकर की गई है ।
अंधेर नगरी नाटक का राजा फांसी पर चढ़ने को क्यों तैयार हो गया?अंधेर नगरी में भाजी और खाजा दोनों टका सेर बिकता था। कसाई ने गड़रिये से भेड़ मोल ली थी। महंत ने गोवर्धनदास को सलाह दी थी कि ऐसी नगरी में रहना उचित नहीं है, जहाँ टके सेर भाजी और टके सेर खाजा बिकता है। राजा फाँसी चढ़ने को तैयार हो गया, क्योंकि महंत ने कहा था कि उस शुभ घड़ी में जो मरेगा वह सीधे स्वर्ग जाएगा।
अंधेर नगरी में नाटक कर का क्या संदेश है विस्तार पूर्वक समीक्षा कीजिए?अँधेर नगरी प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र का सर्वाधिक लोकप्रिय नाटक है। ६अंकों के इस नाटक में विवेकहीन और निरंकुश शासन व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करते हुए उसे अपने ही कर्मों द्वारा नष्ट होते दिखाया गया है। भारतेंदु ने इसकी रचना बनारस के हिंदू नेशनल थियेटर के लिए एक ही दिन में की थी।
अंधेर नगरी के राजा का नाम क्या था?अंधेर नगरी का राजा चौपट राजा के नाम से जाना जाता है। यहां भाजी भी बिकती थी टके सेर और मीठा खाजा भी बिकता था टके सेर। महंत वहां की व्यवस्था देख शिष्यों को तुरंत चलने को कहता है पर गोवर्धनदास वहीं टिक जाता है।
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