गीता के अनुसार मरने के बाद क्या होता है? - geeta ke anusaar marane ke baad kya hota hai?

इसे सुनेंरोकेंजैसे गीता के आठवें अध्याय के छठे श्लोक का अर्थ किया जाता है कि ‘यह मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भी भाव का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह उस उसको ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित है।

मृत्यु क्या है गीता?

इसे सुनेंरोकेंठीक इसके विपरीत अपनी आयु पूर्ण कर लेने के उपरांत आत्मा का जीर्ण-शीर्ण मरणधर्मा शरीर के त्याग को ही मृत्यु कहते हैं। वेद भगवान ने भी ‘मृत्युरीशे’ कहकर स्पष्ट कर दिया कि मृत्यु अवश्यंभावी है तो मृत्यु पर विजय कैसे प्राप्त की जा सकती है।

पढ़ना:   कानूनी पर्यावरण का क्या आशय है?

गीता का पहला और अंतिम अक्षर मिलकर कौन सा शब्द बनता है?

इसे सुनेंरोकेंभगवद्गीता के प्रथम श्लोक के प्रथम अक्षर “ध” और अंतिम श्लोक के अंतिम अक्षर “र्मम‌्” को मिलाकर भगवद्गीता का सार रूपी जो एक वाक्य बनता है वो है धर्म।

भगवत गीता का आखिरी श्लोक कौन सा है?

इसे सुनेंरोकेंधर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

क्या गीता के अनुसार मृत्यु के बाद हुआ?

इसे सुनेंरोकेंगीता 8/16।। अर्थ : हे अर्जुन! ब्रह्म लोक सहित सभी लोक पुनरावृति हैं, परंतु हे कौन्तेय, मुझे प्राप्त होने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता। व्याख्या : मृत्यु के बाद जीवात्मा कुछ काल के लिए अपने शुभ-अशुभ कर्मों के आधार पर किसी न किसी लोक में वास करती है, यदि पाप ज्यादा हैं तो नरक लोक और यदि पुण्य ज्यादा हैं तो स्वर्ग लोक।

गीता के अनुसार मृत्यु के बाद क्या होता है?

इसे सुनेंरोकें’भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है ‘आत्मा अजर-अमर है जो केवल शरीर बदलती है. आत्मा को मारा नहीं जा सकता. जिस प्रकार पुराने कपड़ों को उतारकर मनुष्य नए कपड़ों को धारण करता है उसी तरह आत्मा भी एक समयावधि के बाद एक नया शरीर धारण करती है.

पढ़ना:   किस ने क्या खोज किया?

गीता का पहला और अंतिम अक्षर मिलाकर कौन सा शब्द बनता है what word is formed by the first and last word of Geeta?

इसे सुनेंरोकेंभगवान श्रीकृष्ण संसार की शुरुआत से पहले भी थे और इस संसार के अंत के बाद भी रहेंगे। सभी मनुष्यों को गीता के पहले श्लोक के पहले शब्द ‘धर्म’ और आखिरी श्लोक के आखिरी शब्द ‘मम’ को ही स्मरण रखना पर्याप्त है।

श्रीमद् भगवद्गीता में कितने श्लोक है?

इसे सुनेंरोकेंगीता में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं।

गीता के अनुसार वर्णसंकर क्या है?

इसे सुनेंरोकेंगीता के पहले अध्याशय के ‘अधर्माभिवात् कृष्ण’ (1। 41) श्लोक में वर्णसंकर के मानी में भी अकसर गड़बड़ हो जाती है। वर्णसंकर का शब्दार्थ है वर्णों का संकीर्ण हो जाना या मिल जाना। जब वर्णों की कोई व्यवस्था न रह जाए तो उसी हालत को वर्णसंकर कहा जाता है।

मृत्यु के समय हमारी आदर्श मानसिक स्थिति क्या होनी चाहिए?

इसे सुनेंरोकेंAnswer: भगवान को याद करना । मृत्यु के बाद आत्मा को संसार रूपी से मुक्ति मिलें, परमात्मा के पास चलें जाए ।

पढ़ना:   पॉलिटेक्निक का फुल फॉर्म क्या है?

गीता का कौन सा पाठ करना चाहिए?

इसे सुनेंरोकेंशनि संबंधी पीड़ा होने पर प्रथम अध्याय का पठन करना चाहिए। गीता पाठ करने से ज्ञान की प्राप्ति तो होती ही है साथ ही अशांत मन को शांति मिलती है।

श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को गीताजी का उपदेश देते देते जीवन से सदैव जुडे हुए मृत्यु की अनिवार्यता समझाई, और उसका शोक करना उचित नहीं यह बात जोर देकर समझाई । दूसरे अध्याय ‘सांख्ययोग’ में श्लोक नंबर 11 से 30 तक आत्मा, शरीर, मृत्यु और ये सभी के आपसी संबंध के बारे में समझाया है ।

” आत्मा अविनाशी है । जिससे यह सर्व व्याप्त है, ईसे तू अविनाशी समझ । आत्मा कभी भी किसीकी हत्या नहीं करता और कोई आत्मा की हत्या नहीं कर सकता । जो यह आत्मा को हत्या करनेवाला, या कोई ईसकी हत्या कर सकता है, ऐसा माननेवाला अज्ञानी    है । यह आत्मा की कभी जन्म नहीं होती और न ही उसकी मौत होती है । जन्म के पहेले आत्मा नहीं थी और मृत्यु के बाद आत्मा नहीं होगी ऐसा नहीं है । आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है । ईसी लिए शरीर की मृत्यु होने पर भी उसकी मृत्यु नहीं होती ।   हे पार्थ ! जो ईसको अविनाशी, नित्य, अजन्मा और अविकारी समझता है, वह पुरुष किसकी किस तरह हत्या कर सकता है ? और किसकी हत्या करवा सकता है ? जैसे आदमी पुराने वस्त्र त्यागकर नये वस्त्र परिधान करता है । ठीक ईसी तरह देहधारी आत्मा, पुराने शरीर छोडकर, नये शरीर धारण करता है । यह आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकता, पानी भीगो नहीं सकता और पवन सूखा नहीं सकता, क्योंकि यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापक, स्थिर, अचल और शाश्वत है । मैं, तू और ये सभी राजा पहेले नहीं थे, ऐसा नहीं है, अथवा अब के बाद ये सभी नहीं होंगे, ऐसा भी नहीं है । ”

Click here to buy this Bhagavad Geeta

ईसके विरुध्ध शरीर अनित्य, विकारी और नाशवंत है । विकारी माने शरीर में बदलाव होता रहेता है । जन्म के बाद बचपन, युवानी, वृध्धावस्था और आखिर मृत्यु, ऐसे शरीर की स्थिति बदलती रहेती है । “ हे भारत ! यह स्थावर- जंगम सृष्टि आदि में अप्रकट, मध्य में प्रकट और अंत में अप्रकट होती है । ईसका शोक क्या करना ? ” मृत्यु के बारे में श्रीकृष्ण भगवान ने अपनी स्पष्ट राय दी है कि –

“ जातस्य ही ध्रुवो मृत्यु, ध्रुवम् जन्म मृतस्य च,

तस्माद् अपरिहार्येर्थे, न त्वम् शोचितुमर्हसि….. ”   ( गीता 2-27 )

“ जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु अवश्य होती है । और मृत्यु के बाद जन्म अवश्य होता है । जिसमें कोई परिवर्तन न हो सके ऐसी यह कुदरती व्यवस्था है । ईसी लिए शोक करना तेरे लिए उचित नहीं है । ”

आत्मा और शरीर का संबंध खत्म हो जाय, माने कि वे अलग हो जाय, तब शरीर की मृत्यु होती है । आत्मा अमर है, अर्थात् ईसकी मृत्यु तो होती ही नहीं, तो उसका शोक करना व्यर्थ है । शरीर की मृत्यु होती है, लेकिन वह तो नाशवंत है ही । उसका नाश कभी भी हो सकता है, वह निश्चित है, तो उसका शोक करना भी व्यर्थ है । ईसी लिए पंडित लोग मरे हुए या जिन्दा का शोक नहीं करते ।

यह सभी वाक्य खुद श्रीकृष्ण भगवान ने कहे हैं । ईसी लिए उसका महत्व सविशेष  है । हमने तो आत्मा को कभी देखी नहीं, आत्मतत्व से भी अनजान हैं, फिर भी परमात्मा के वचनों के आधार पर, और महान सत्पुरुषों के वचनों के आधार पर आत्मा के बारे में कुछ जान सकें । हमारे शरीर से तो हम संपूर्ण परिचित हैं ही । शरीर के बारे में हमारा खुद का अनुभव बहुत है । जन्म, बचपन, युवावस्था, वृध्धत्व और आखिर मृत्यु, यह स्वाभाविक क्रम से हम परिचित हैं । हमें पसंद हो या न हो फिर भी यह परिवर्तन होता ही रहेता है । यह कुदरती है । किसीने बहुत अच्छी बात कही –

“ जो जाके न आए, वो जवानी भी देखी,

        जो आके न जाये, वो बुढापा भी देखा …”

ईसके अलावा, ठंड, धूप, बारिश, समुद्र तट की क्षार और भेजवाली हवा, प्रदुषित वातावरण ये सब की शरीर पर असर होती है । शरीर में कई प्रकार की बीमारियां फैलती  हैं । यह सभी के फल स्वरुप सामान्य तकलीफ से लेकर मृत्यु तक गंभीर असर होती है ।

मृत्यु होने से पहेले ही, मुत्यु के बारे में हम वाकिफ हैं ही । किसीको मरना अच्छा नहीं लगता । मृत्यु को हम अमंगल मानते हैं । मृत्यु के नाम मात्र से हम भयभीत हो जाते हैं । स्वजन की मृत्यु से हम गहेरा सदमा महसूस करते हैं । स्वजन की मौत के बाद शोक करने से स्वजन तो वापस नहीं लौटते, लेकिन शोक करनेवाले के शरीर पर विपरित असर हो सकती है ।

Click Here to buy this Bhagavad Geeta

सच पूछो तो मृत्यु परम मंगल है । हमारी मौत के बाद हम किसीको परेशान नहीं करते । मृत्यु के बाद हमारे शरीर को बर्फ पर रख दें, या अग्निदाह के दरम्यान अग्निज्वाला शरीर के आसपास लिपट जाए तो भी देह वेदना से चिल्ला उठता नहीं है । मृत्यु सचमुच परम शांतिदायक है । मृत्यु त्रासदायक नहीं है । ईससे घबराने की कोई जरुरत नहीं है ।  जिस पर परिवार की जिम्मेदारी हो ऐसा कोई भी, स्त्री या पुरुष युवावस्था में चल बसे, और मौत कुदरती हो या अकस्मात की वजह से हो, फिर भी यह दु:खद है । लेकिन ये सभी को अपने जीवन दरम्यान ही, अपने परिवार के निर्वाह के लिए उचित व्यवस्था कर लेनी चाहिये । क्योंकि मृत्यु अनिश्चित है । किसकी मौत कब होगी, यह कोई नहीं जानता ।

आत्मा और शरीर भिन्न है यह बात गीताजी में 5,000 वर्ष पूर्व कही गई है । फिर भी हम पुराने समय की बात न मानकर, कुछ समय पूर्व ही जो पृथ्वी पर थे ऐसे तीन महानुभावों के जीवन के बारेमें सोचें ।

परम पूज्य परमहंस श्रीरामकृष्णजी को जीवन के अंतिम काल में केन्सर की बीमारी थी । बहुत वेदना होती थी । स्वामी विवेकानंद को तो शक भी हुआ कि गुरु अपने को परमात्मा का स्वरुप कहेते हैं, तो ईन्हे यह वेदना क्यों ? आशंका होने पर भी वे कुछ नहीं बोले । गुरु ने शिष्य को अपने पास बुला कर पूछा – “बेटा ! अभी भी तुझे शक है ? जो राम थे, जो कृष्ण थे, वही मैं रामकृष्ण हूं । मैं शरीर नहीं हूं । वेदना तो शरीर को है, मुझे नहीं । मैं तो आत्मा हूं । आत्मा परमात्मा का ही अंश है । वेदना ईसे छू नहीं शकती ।”

महर्षि अरविंदजी को मृत्यु के पहेले किडनी की तकलीफ थी । बहुत वेदना होती थी । उनके अंगत डोक्टर का मंतव्य था कि ऐसी वेदना के साथ ध्यान करना बहुत मुश्किल है । लेकिन अरविंदजी ध्यान करते वक्त संपूर्ण स्वस्थ रहेते  थे । मानों जैसे उन्हें कोई वेदना है ही नहीं । सभी दिगमूढ रह जाते । किसीने महर्षिजी से कहा – ” आप तो परम योगी हैं, शरीर की वेदना ही मिट जाए, ऐसा कुछ करें ऐसी हमारी बिनती है । ” परम पूज्य रामकृष्णजी की तरह उन्होने भी यही उत्तर दिया – “आत्मा और शरीर भिन्न है । मैं आत्मा हूं, मुझे कोई वेदना नहीं । वेदना सिर्फ शरीर को है, नाशवंत शरीर को वेदना से बचाने के लिए य़ोग का उपयोग नहीं करना चाहिये ।”

ऐसी ही स्थिति रमण महर्षिजी की थी । मृत्यु के पहेले किसी असाधारण रोग से उनके पूरे शरीरमें भयंकर वेदना होती थी । किसी भी अंग को छूने से सहन न हो पाए ऐसी वेदना होती थी । किसी अनुयायी ने उन्हें कहा – “आप तो परम योगी हैं । योग से शरीर की वेदना मिट जाए, ऐसा कुछ करें, ऐसी हमारी बिनती है ।” उत्तर मिला – “योग आत्मा की उन्नति के लिए है । शरीर की वेदना मिटाने के लिए नहीं । मैं तो आत्मा हूं, मुझे वेदना है ही   नहीं ।”

Click Here to buy this Bhagavd Geeta

तीनों महात्माओं के जीवन की एक समान बात आश्चर्य कारक है । लेकिन आत्मा और शरीर का संबंध समझाने के लिए बहुत ही उत्तम है । श्रीकृष्ण भगवान ने गीताजी में 5,000 वर्ष पूर्व जो कुछ कहा है, वही बात अक्षरश: ये तीनों महात्माओं ने की है । अगर हम आत्मा को पहेचान लें तो फिर मृत्यु का भय नहीं रहेता । शोक करने का प्रश्न ही नहीं  उठता । गीताजी में कही गई बातों का, महान संतों के जीवन द्वारा और वैज्ञानिकों द्वारा समर्थन मिलता है, ( 18 – विभूतियोग – पेज – 52,53,54 ) यह हमारे लिए गौरवप्रद है ।

गीता के अनुसार मृत्यु के बाद क्या होता है?

गीता 8/16।। अर्थ : हे अर्जुन! ब्रह्म लोक सहित सभी लोक पुनरावृति हैं, परंतु हे कौन्तेय, मुझे प्राप्त होने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता। व्याख्या : मृत्यु के बाद जीवात्मा कुछ काल के लिए अपने शुभ-अशुभ कर्मों के आधार पर किसी न किसी लोक में वास करती है, यदि पाप ज्यादा हैं तो नरक लोक और यदि पुण्य ज्यादा हैं तो स्वर्ग लोक।

गीता के अनुसार मृत्यु क्या है?

ठीक इसके विपरीत अपनी आयु पूर्ण कर लेने के उपरांत आत्मा का जीर्ण-शीर्ण मरणधर्मा शरीर के त्याग को ही मृत्यु कहते हैं। वेद भगवान ने भी 'मृत्युरीशे' कहकर स्पष्ट कर दिया कि मृत्यु अवश्यंभावी है तो मृत्यु पर विजय कैसे प्राप्त की जा सकती है।

मरते समय गीता का कौनसा अध्याय सुनाया जाता है?

जैसे गीता के आठवें अध्याय के छठे श्लोक का अर्थ किया जाता है कि 'यह मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भी भाव का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह उस उसको ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित है।

भगवत गीता के अनुसार आत्मा को कैसे नष्ट किया जा सकता है?

आत्‍मा अजर अमर अविनाशी गीता में श्रीकृष्ण ने आत्मा को अमर और अविनाशी बताया है जिसे न शस्त्र कट सकता है, पानी इसे गला नहीं सकता, अग्नि इसे जल नहीं सकती, वायु इसे सोख नहीं सकती। यह तो ऐसा जीव है जो व्यक्ति के कर्मफल के अनुसार एक शरीर से दूसरे शरीर में भटकता रहता है।