इस लेख में मन को नियंत्रण में करने के लिए 15 उपाय दिए गए हैं। Show
इस पोस्ट में जितने उपाय बताए गए हैं, आध्यात्मिक जीवन हो या सांसारिक जीवन, यदि आपको लगता है कि, मन पर नियंत्रण करना जरूरी है, इस आर्टिकल में मन को शांत करने के
लिए आनापान ध्यान और विपश्यना के बारे में विस्तार से, मन को वश में क्यों करें?भगवान् ने मन के बारे में गीता में क्या कहा है?श्रीकृष्ण ने गीता
में कहा है – असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः । भगवान् श्रीकृष्णके इन वचनोंके अनुसार यह सिद्ध होता है कि, दुःखोंसे मुक्ति के लिए, मन को काबू में करने के अलावा, दुसरा उपाय नहीयदि कोई ऐसा चाहे कि, आनन्दमय परमात्माकी प्राप्ति और इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। आदि शंकराचार्य ने मन के बारे में कहा है –भगवान् शङ्कराचार्यने कहा है – जित जगत् केन, मनो हि येन। अर्थात,
जगत को किसने जीता? यानी की, किन्तु, मन बड़ा चंचल और बलवान हैपरन्तु मन स्वभावसे ही बड़ा चञ्चल और बलवान् है और सारे साधन इसीको कंट्रोल में करने के लिये किये जाते है। अर्जुन ने भी श्रीकृष्ण से कहा था, मन बड़ा चंचल हैअर्जुनने भी मनको वशमें करना कठिन समझकर, चञ्चलं हि मनः कृष्ण हे भगवन्। लेकिन, भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को, मन वश में करने का रास्ता बतायाभगवान् ने भी इस बातको स्वीकार किया, असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्। भगवान् ने कहा – अर्जुन!
इससे यह सिद्ध हो गया कि, इसलिए मन को वश में करने का इसके लिये, सबसे पहले इसका साधारण स्वरुप और मनका स्वरूपमन क्या है?यह आत्म और अनात्म पदार्थके मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। मन इतना बलवान है की बस, मन ही जगत् है, मन क्या करता है?मन का कार्य है संकल्प-विकल्प करना, यह जिस पदार्थको भलीभाँति ग्रहण करता है, साधारणतया, यही मनका स्वरूप और स्वभाव है। मन रागके अर्थात आसक्ति के साथ ही चलता है। सारे अनर्थों और दुःखो की उत्पत्ति, रागसे ही होती है। राग (इच्छा, आसक्ति) न हो तो, मन प्रपञ्चोंकी ओर न जाय। तो मन को कण्ट्रोल कैसे करें?अब, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की, यह वशमे कैसे हो। इसके लिये उपाय भी, भगवान् ने बतला ही दिया है – यही उपाय योगदर्शनमे, महर्षि पतञ्जलिने बतलाया है – अर्थात, अभ्यास और वैराग्यसे ही चित्तका निरोध होता है। इसलिए, इसी अभ्यास और वैराग्य पर विचार करना चाहिये। वैराग्य और अभ्यास से मन का नियंत्रणनिचे मन को वश में करने के कुछ उपाय दिए गए है। जिसमे पहला उपाय, वैराग्य से संबंधित है और 1. वैराग्य से संबंधित तरीका – भोगों में वैराग्यसांसारिक पदार्थों और भोगों की सच्चाई क्या है?जबतक संसारकी वस्तुएँ सुन्दर और सुखप्रद मालूम होती है, लेकिन जब इन भौतिक पदार्थों और क्योंकि, इन भोगों के अंत में दुःख ही है, सांसारिक वस्तुओं में थोड़े समय के लिए ख़ुशीजब मन को यह सच्चाई समझ में आ जायेगी, इसलिये, संसारके सारे पदार्थोंमे, इस सच्चाई को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए अध्यात्म के रास्ते की सच्चाई क्या है?रमणीय और सुखरूप दीखनेवाली चीजों में ही मन लगता है। यदि यह रमणीयता और सुखरूपता यही वैराग्यका साधन है और सच्चा वैराग्य तो संसारके इस दीखनेवाले स्वरूपका सर्वथा अभाव और परन्तु आरम्भमे नये साधकको मन वश करनेके लिये भगवान् कृष्ण ने, इस वैराग्य के तरीके के बारे में क्या कहा?श्रीभगवान् ने कहा है – इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च। इस लोक और परलोकके समस्त भोगोंमें इस प्रकार वैराग्यकी भावनासे यह तो वैराग्यका संक्षिप्त साधन हुआ, 2. नियमसे रहनासांसारिक हो या आध्यात्मिक जीवन, सफलता के लिए नियम का बड़ा महत्व हैमनको वश करनेमें नियमानुवर्तितासे, सारे काम ठीक समयपर नियमानुसार होने चाहिये। प्रातःकाल बिस्तरसे उठकर रातको सोने तक, संसार-साधनमे तो नियमानुवर्तितासे लाभ होता ही है, ध्यान के समय का नियमअपने जिस इष्ट स्वरूपके ध्यानके
लिये पाँच मिनटका भी नियमित ध्यान, आज दस मिनट बैठे, कल आध घण्टे, परसो बिल्कुल नहीं किया, जब पाँच मिनटका ध्यान नियमसे होने लगे, इसी प्रकार स्थान, आसन, समय, इस तरह नियम से रहने से भी मन स्थिर होता है। सभी बातों में नियमनियमोंका पालन, खाने, पीने, पहनने, सोने और नियम अपनी अवस्था के अनुकुल शास्त्रसम्मत बना लेने चाहिये। 3. मनकी क्रियाओंपर विचारमन के अच्छे और बुरे विचारमनके प्रत्येक कार्यपर विचार करना चाहिये। प्रतिदिन रातको सोनेसे पूर्व यद्यपि मनकी सारी उधेड़-बुनका स्मरण होना बड़ा कठिन है, मन के बुरे संकल्प, धीरे धीरे समाप्त हो जाएंगेप्रतिदिन इस प्रकारके अभ्याससे, जिससे कुछ ही समयमें मन बुराइयों से बचकर, मन पहले भले कार्यवाला होगा, बुरी संगति में, पड़ा हुआ बालक का उदाहरणबुरी संगति में पड़ा हुआ बालक जबतक कुसंगति नहीं छोड़ता, क्योंकि जबतक वह बालक बुरी सांगत में है, पर जब कुसंग छूट जाता है, तब फिर उसके सुधरकर मन में, बुरे विचारों की जगह, अच्छे विचार आना शुरू हो जाएंगेइसी तरह यदि विषय-चिन्तन करनेवाले मनको पहले मनको बुरे चिन्तनसे बचाना चाहिये, 4. मनके कहनेमें न चलनामनके कहने में नहीं चलना चाहिये। जबतक यह मन, वशमें नहीं हो जाता, जैसे शत्रुके प्रत्येक कार्यपर निगरानी रखनी पड़ती है, मन लोभी, मन लालची, मन
चंचल, मन चोर। मनकी खातिर अर्थात मन जैसा कहे वैसा कर लिया, जहाँ कहीं यह उलटा सीधा करने लगे, मन बड़ा बलवान, किन्तु धीरे धीरे काबू में आ ही जाता हैयद्यपि यह बड़ा बलवान् है, जो हिम्मत नहीं हारता, इससे लड़नेमे एक विचित्रता है। इसलिये, इससे लड़नेवाला एक-न-एक दिन अतएव इसकी हाँ-में-हाँ न मिलाकर यह मन बड़ा ही चतुर है। कभी डरावेगा, कभी फुसलावेगा, भूलकर भी इसका विश्वास नहीं करना चाहिये। आज्ञाकारी मनइस प्रकार करनेसे इसकी
हिम्मत टूट जायगी और अंत में यह आज्ञा देनेवाला न रहकर 5. मनको सत्कार्यमें संलग्न रखना मन कभी निकम्मा नहीं रह सकता, इसलिए, इसे निरन्तर काममें लगाये रखना चाहिये। निकम्मा रहनेसे ही इसे दूसरी बातें सूझा करती है। इसलिए जबतक नींद न आये, जाग्रत्
समयके सत्कार्योंके चित्र ही 6. मनको परमात्मामें लगानाश्रीकृष्ण ने, मन को, ईश्वर में लगाने के विषय में क्या कहा?श्रीभगवान् ने कहा है – यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्। यह चञ्चल और अस्थिर मन, मनको वशमें करनेका उपाय प्रारम्भ करनेपर, अपनी चञ्चलता और शक्तिमत्तासे ऐसी पछाड़ लगाता है परन्तु ऐसी अवस्थामे धैर्य रखना चाहिये। मनका तो ऐसा स्वभाव ही है, मुस्तैदीसे सामना करना चाहिये। आज न हुआ तो क्या, कभी-न-कभी तो वशमें होगा ही। भगवान् कृष्ण ने भी कहा है की, मन को नियंत्रण में करने का अभ्यास करते रहेइसीलिये भगवान् ने कहा है – शनैः
शनैरुपरमेद बुद्ध्या धृतिगृहीतया। धीरे-धीरे अभ्यास करता हुआ उपरामताको प्राप्त हो। धैर्ययुक्त बुद्धिसे, बड़ा धैर्य चाहिये। घबड़ाने, ऊबने या निराश होनेसे काम नहीं होगा। झाडू से घर साफ कर लेने पर भी, पर इससे डरकर कोई झाडू लगाना बन्द नहीं करता। उसी प्रकार मनको सस्कारोंसे रहित करते समय,
किन्तु मन को नियंत्रण में करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। इस प्रकारकी दृढ प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये कि, बड़ी चेष्टा, बड़ी दृढता रखनेपर भी, साधक तो समझता है कि मैं ध्यान कर रहा हूँ, जब साधक मनकी ओर देखता है,
इतने नये-नये सङ्कल्प, जिनकी भावना भी नहीं की गयी थी, कहाँसे आ गये? बात यह होती है कि, उधर परमात्मामें लगनेका इस समय तक उसे पूरा अभ्यास नहीं होता। इसलिये फुरसत पाते ही, इसीसे
उस समय ऐसे सङ्कल्प मनमे उठते हुए मालूम होते है, मनकी ऐसी प्रबलता देखकर, जब अभ्यासका बल बढेगा, अभ्यास दृढ़ होनेपर तो यह मन चाहता है सुख। जबतक इसे वहाँ सुख नहीं मिलता, जब अभ्याससे विषयोमें दुःख
और परन्तु जबतक ऐसा न हो, यह मालूम होते ही कि मन अन्यत्र भागा है, इसको पक्के चोरकी भॉति, भागनेका बड़ा अभ्यास है, जिस-जिस कारणसे मन मांसारिक पदार्थोंमें विचरे, मनपर ऐसा पहरा बैठा दे कि, यह भाग ही न सके। यदि किसी प्रकार भी न माने, इस उपायसे भी मन स्थिर हो सकता है। 7. एक तत्त्वका अभ्यास करनायोगदर्शन महर्षि पतञ्जलि लिखते है – तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः। (समाधिपाद ३२) चित्तका विक्षेप दूर करनेके लिये, एक तत्त्वके अभ्यासका अर्थ
ऐसा भी हो सकता है कि, जबतक आखोंकी पलक न पड़े, चिह्न धीरे-धीरे छोटा करते रहना चाहिये। अन्तमे उस चिह्नको बिल्कुल ही हटा देना चाहिये। दृष्टिः स्थिरा यत्र विनावलोकनम् – अवलोकन न करनेपर भी दृष्टि स्थिर रहे। ऐसा हो जाने पर चित्तविक्षेप नहीं रहता। इस प्रकार प्रतिदिन, आध-आध घण्टे भी अभ्यास किया जाय, इसी प्रकार दोनों भ्रुवोंके बीचमें दृष्टि जमाकर, कहने की आवश्यकता नहीं कि, 8. नाभि या नासिकाग्रमें दृष्टि स्थापन करनानित्य नियमपूर्वक पद्मासन या सुखासनसे बैठकर, ऐसा करनेसे, शीघ्र ही मन स्थिर होता है। इसी प्रकार, नासिकाके अग्रभागपर, इससे ज्योतिके दर्शन भी होते है। 9. शब्द श्रवण करनाकानोमे अँगुली देकर, शब्द सुननेका अभ्यास किया जाता है। इसमे पहले भँवरोंके गुंजार फिर क्रमशः घुघुरू, शङ्ख, घण्टा, ताल, मुरली, भेरी, मृदङ्ग, नफीरी और सिंहगर्जनके सदृश, शब्द सुनायी देते हैं। इस प्रकार, दस प्रकारके शब्द सुनायी देने
लगनेके बाद, यह भी मनके निश्चल करनेका उत्तम साधन है। 10. ध्यान या मानसपूजासब जगह, भगवानके किसी नामको लिखा हुआ समझकर, पहले भगवान की मूर्तिके एक-एक अवयवका, अलग-अलग ध्यान कर, (जैसे शिव पंचाक्षर मंत्र में शिव के गुणों का और उनके स्वरुप का वर्णन किया है) उसीमे मनको अच्छी तरह स्थिर कर देना चाहिये। मूर्तिके ध्यानमे इतना तन्मय हो जाना चाहिये कि, संसारका भान ही न रहे। फिर कल्पना-प्रसूत सामग्रियोंसे, भगवान की मानसिक पूजा करनी चाहिये। (जैसे शिव मानस पूजा मंत्र में भगवान् शिव की पूजा मनद्वारा, मन में ही, की जाती है) प्रेमपूर्वक की हुई नियमित भगवद उपासनासे, 11. मैत्री-करुणा-मुदिता-उपेक्षाका व्यवहारयोगदर्शनमें महर्षि पतञ्जलि एक उपाय यह भी बतलाते हैं – मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां अर्थात, सुखी मनुष्योसे प्रेम, दुखियोंके प्रति दया, पुण्यात्माओंके प्रति प्रसन्नता ओर पापियोके प्रति उदासीनताकी भावनासे, चित्त प्रसन्न होता है। जगत् के सारे सुखी जीवोंके साथ, प्रेम करनेसे चित्तका ईर्ष्यामल दूर होता है, द्वेषकी आग बुझ जाती है। संसारमे लोग, अपनेको और अपने आत्मीय स्वजनोंको, सुखी देखकर प्रसन्न होते हैं, क्योंकि वे उन लोगोंको, अपने प्राणों के समान प्रिय समझते हैं। यदि यही प्रिय भाव, सारे ससारके सुखियोंके प्रति अर्पित कर दिया जाय, तो कितने आनन्दका कारण हो ! दूसरेको सुखी देखकर, जलन पैदा करनेवाली वृत्तिका, नाश हो जाय। दुखी प्राणियोंके प्रति, दया करनेसे, परअपकाररूप चित्त-मल नष्ट होता है। मनुष्य अपने कष्टोंको दूर करनेके लिये, किसीसे भी पूछनेकी आवश्यकता नहीं समझता, भविष्यमे कष्ट होनेकी सम्भावना होते ही, पहलेसे उसे निवारण करनेकी चेष्टा करने लगता है। यदि ऐसा ही भाव, जगत्के सारे दुखी जीवोंके साथ हो जाय तो, अनेक लोगोंके दुःख दूर हो सकते हैं। दुःखपीड़ित लोगोंके दुःख दूर करनेके लिये, अपना सर्वस्व न्योछावर कर देनेकी प्रबल भावनासे, मन सदा ही प्रफुल्लित रह सकता है। धार्मिकोंको देखकर हर्षित होनेसे, दोषारोप नामक मनका विकार नष्ट होता है, साथ ही धार्मिक पुरुषकी भॉति, चित्तमें धार्मिक वृत्ति जागृत हो उठती है। विकारों के दूर होते ही, चित्त शान्त होता है। पापियोके प्रति उपेक्षा करनेसे, चित्तका क्रोधरूप मल नष्ट होता है। पापोंका चिन्तन न होनेसे, उनके सस्कार अन्तःकरणपर नहीं पड़ते। किसीसे भी घृणा नहीं होती। इससे चित्त शांत रहता है। इस प्रकार इन चारो भावोंके, बारबार अनुशीलनसे, चित्तकी राजस, तामस वृत्तियाँ नष्ट होकर, सात्त्विक वृत्तिका उदय होता है और उससे चित्त प्रसन्न होकर, शीघ्र ही एकाग्रता लाभ कर सकता है। 12. सदग्रंथो का अध्ययनभगवान के परम रहस्यसम्बन्धी, परमार्थ-ग्रन्थोंके पठन पाठन से भी, चित्त स्थिर होता है। एकान्तमें बैठकर, श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषद्, श्रीमद्भागवत, रामायण आदि प्रन्थोंका अर्थ सहित पाठ करनेसे, वृत्तियाँ तदाकार बन जाती हैं। इससे मन स्थिर हो जाता है। 13. प्राणायामप्राणायाम से योग के सम्बन्धमें महत्वपूर्ण बात – इस मार्ग में सद्गुरुकी सलाह के बिना कोई कार्य नहीं करना चाहिये। योगाभ्यासमें देखादेखी करनेमे, उलटा फल हो सकता है। समाधि से भी मन रुकता है। समाधि अनेक तरहकी होती है। प्राणायाम समाधिके साधनोका, एक मुख्य अङ्ग है। योगदर्शनमे कहा गया है – प्रच्छईनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य। ( समाधिपाद ३४) नासिकाके छेदोंसे अन्तरकी वायुको बाहर निकालना, प्रच्छर्दन कहलाता है, और प्राणवायुकी गति रोक देनेको विधारण कहते हैं। इन दोनों उपायोसे भी चित्त स्थिर होता है। श्रीमद्भगवद्गीतामे भगवान् ने भी कहा है – अपाने जुद्वति
प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। कई अपानवायुमें प्राणवायुको हवन करते हैं, कई प्राणवायुमें अपानवायुका हवन करते हैं और कई प्राण, और अपानकी गतिको रोककर, प्राणायाम किया करते हैं। इसी तरह योगसम्बन्धी ग्रन्थोंके अतिरिक्त, महाभारत, श्रीमद्भागवत और उपनिषदोंमे भी, प्राणायामका यथेष्ट वर्णन है। श्वास-प्रश्वासकी गतिको रोकनेका नाम ही, प्राणायाम है। मनु महाराजने कहा है – दद्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः। अग्निमें तपाये जानेपर, जैसे धातुका मल जल जाता है, उसी प्रकार प्राणवायुके निग्रहसे, इन्द्रियोंके सारे दोष नष्ट हो जाते है। प्राणोंको रोकनेसे ही मन रुकता है। इनका एक दूसरेके साथ घनिष्ट सम्बन्ध है। मन सवार है, तो प्राण वाहन है। एकको रोकनेसे, दोनों रुक जाते है। प्राणायामके सम्बन्धमे, योगशान्त्रमे, अनेक उपदेश मिलते हैं, परन्तु वे बड़े ही कठिन हैं। योगसाधनमे अनेक नियमोंका, पालन करना पड़ता है। योगाभ्यासके लिये बड़े ही कठोर, आत्मसंयमकी आवश्यकता है। आजकलके समयमें तो, कई कारणोंसे योगका साधन, एक प्रकारसे असाध्य ही समझना चाहिये। यहा पर प्राणायामके सम्बन्धमें, केवल इतना ही कहा जाता है कि, बाई नासिकासे बाहरकी वायुको, अन्तरमें ले जाकर स्थिर रखनेको, पूरक कहते हैं, दाहिनी नासिकासे अन्तरकी वायुको, बाहर निकालकर बाहर स्थिर रखनेको, रेचक कहते है और जिसमें अन्तरकी वायु, बाहर न जा सके और बाहरकी वायु अन्तरमें प्रवेश न कर मके, इस भावसे प्राणवायु रोक रखनेको कुंभक कहते हैं। इसीका नाम प्राणायाम है। सााधारणतः, चार बार मन्त्र जपकर पूरक, सोलह बाारके जपसे कुम्मक और आठ बारके जपसे रेचककी विधि है। परन्तु इस सम्बन्धमें उपयुक्त, सद्गुरुकी आज्ञा बिना, कोई कार्य नहीं करना चाहिये। योगाभ्यासमें देखादेखी करनेमे, उलटा फल हो सकता है। देखा देसी साधै जोग। पर यह स्मरण रहे कि, प्राणायाम, मनको रोकनेका, एक बहुत ही उत्तम साधन है। 14. श्वासके द्वारा नाम-जपमनको रोककर परमात्मामें लगानेका, एक अत्यन्त सुलभ और आशंका रहित उपाय और है, जिसका अनुष्ठान सभी कर सकते है। वह है, आने-जानेवाले श्वास – प्रश्वास की गतिपर, ध्यान रखकर, श्वासके द्वारा, श्रीभगवान के नामका जप करना। यह अभ्यास बैठते-उठते, चलते-फिरते, सोते-खाते हर समय, प्रत्येक अवस्थामे किया जा सकता है। इसमे श्वास, जोर-जोर से लेनेकी भी, कोई आवश्यकता नहीं। श्वासकी साधारण चालके साथ-ही-साथ, नामका जप किया जा सकता है। इसमे लक्ष्य रखनेसे ही, मन रुककर नामका जप हो सकता है। श्वासके द्वारा नामका जप करते समय, चित्तमें इतनी प्रसन्नता होनी चाहिये कि, मानो मन आनन्दसे उछला पड़ता हो। आनन्द रससे भरा हुआ, अन्तःकरणरूपी पात्र मानो, छलका पडता हो। यदि इतने आनन्दका अनुभव न हो तो, आनन्दकी भावना ही करनी चाहिये। इसीके साथ भगवान को, अपने अत्यन्त समीप जानकर, उनके स्वरूपका ध्यान करना चाहिये, मानो उनके समीप होनेका प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। इस भावसे संसारकी सुध भुलाकर, मनको परमात्मामे लगाना चाहिये। ईश्वर-प्रणिधानसे भी मन वशमें होता है, अनन्य भक्तिसे परमात्माके शरण होना, ईश्वर-प्रणिधान कहलाता है। ईश्वर शब्दसे यहाँ पर, परमात्मा और उनके भक्त, दोनों ही समझे जा सकते हैं। ‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’, ‘तस्मिस्तजने भेदाभावात्’, ‘तन्मयाः’ – इन श्रुति और भक्तिशास्त्रके सिद्धान्त-वचनोंसे, भगवान्, ज्ञानी और भक्तोंकी एकता सिद्ध होती है। श्रीभगवान् और उनके भक्तोंके प्रभाव और चरित्रके चिन्तनमात्रसे, चित्त आनन्दसे भर जाता है। संसारका बन्धन मानो, अपने-आप टूटने लगता है। अतएव भक्तोंका सङ्ग करने, उनके उपदेशोंके अनुसार चलने और भक्तोंकी कृपाको ही, भगवत्प्राप्तिका प्रधान उपाय समझनेसे भी, मनपर विजय प्राप्त की जा सकती है। भगवान् और सच्चे भक्तोंकी कृपासे, सब कुछ हो सकता है। 16. मनके कार्योंको देखनामनको वशमें करनेका, एक बड़ा उत्तम साधन है, मनसे अलग होकर, निरन्तर, मनके कार्योको, देखते रहना। जबतक हम, मनके साथ मिले हुए है, तभीतक, मनमें इतनी चञ्चलता है। जिस समय हम, मनके द्रष्टा बन जाते हैं, उसी समय, मनकी चञ्चलता मिट जाती है। वास्तवमें तो मनसे, हम सर्वथा भिन्न ही है। किस समय मनमे क्या सकल्प होता है, इसका पूरा पता हमें रहता है। मुंबईमे बैठे हुए एक मनुष्यके मनमे, दिल्ली किसी दृश्यका सङ्कल्प होता है, इस बाातको यह अच्छी तरह जानता है। यह निर्विवाद बात है कि, जानने या देखनेवाला, जाननेकी वा देखनेकी वस्तुसे, सदा अलग होता है। ऑखको आँख नहीं देख सकती। इस न्यायसे मनकी बातोंको, जो जानता या देखता है, वह मनसे सर्वथा भिन्न है, भिन्न होते हुए भी, वह अपनेको मनके साथ मिला लेता है, इसीसे उसका जोर पाकर मनकी उद्दण्डता बढ़ जाती है। यदि साधक अपनेको निरन्तर अलग रखकर, मनकी क्रियाओंका, द्रष्टा बनकर देखनेका अभ्यास करे, तो मन बहुत ही शीघ्र, सङ्कल्परहित हो सकता है। 17. भगवन्नामकीर्तनमग्न होकर उच्च स्वरसे, परमात्माका नाम और गुणकीर्तन, करनेसे भी मन परमात्मामें, स्थिर हो सकता है। भगयान् चैतन्यदेवने तो मनको निरुद्धकर, परमात्मामे लगानेका, यही परम साधन बतलाया है। भक्त जब अपने प्रभुका, नाम-कीर्तन करते-करते, गद्गदकण्ठ, रोमाञ्चित और अश्रुपूर्णलोचन होकर, प्रेमावेशमें अपने आपको सर्वथा भुलाकर, केवल परमात्माके रूपमें, तन्मयता प्राप्त कर लेता है, तब भला, मनको जीतने में, और कौन-सी बात बच रहती है ? अतएव, प्रेमपूर्वक परमात्माका नामकीर्तन करना, मनपर विजय पानेका एक अत्युत्तम साधन है। इस प्रकारसे मनको रोककर, परमात्मामें लगानेके अनेक साधन और युक्तियाँ हैं। इनमेंसे या अन्य किसी भी युक्तिसे, किसी प्रकारसे भी, मनको विषयोंसे हटाकर, परमात्मामे लगानेकी चेष्टा करनी चाहिये। मनके स्थिर किये बिना, अन्य कोई भी अवलम्बन नहीं। जैसे चञ्चल जलमें, रूप विकृत दीख पड़ता है, उसी प्रकार चञ्चल चित्तमें, आत्माका यथार्थ स्वरूप, प्रतिबिम्बित नहीं होता। परन्तु जैसे स्थिर जलमें, प्रतिबिम्ब जैसा होता है, वैसा ही दीखता है, इसी प्रकार केवल स्थिर मनसे ही, आत्माका यथार्थ स्वरूप, स्पष्ट प्रत्यक्ष होता है। अतएव प्राणपणसे, मनको स्थिर करनेका, प्रयत्न करना चाहिये। अबतक जो इस मनको स्थिर कर सके है, वे ही उस श्यामसुन्दरके, नित्यप्रसन्न नवीन-नील-नीरद, प्रफुल्ल मुखारविन्दका दर्शन कर, अपना जन्म और जीवन सफल कर सके है। जिसने एक बार भी, उस ‘अनूपरूपशिरोमणि’ के दर्शनका सयोग प्राप्त कर लिया, वही धन्य हो गया। उसके लिये उस सुखके सामने, और सारे सुख फीके पड़ गये। उस लाभके सामने, और सारे लाभ नीचे हो गये! यं लब्ध्वा चापरं लामं मन्यते नाधिकं ततः। जिस लाभको पा लेनेपर, उससे अधिक और कोई-सा लाभ भी नहीं जंचता। यही योगसाधनका चरम फल है, अथवा यही परम योग है। सत्य क्या है गीता के अनुसार?सत्य वस्तु का तीनों कालों में अभाव नहीं है, उसे मिटाया नहीं जा सकता है। असत् का अस्तित्व नहीं है, उसे रोका नहीं जा सकता है। आत्मा सत्य है भूतादिकों के शरीर नाशवान हैं।
गीता के अनुसार मन क्या है?मन को 11वीं इन्द्रिय माना जाता है, जो ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच नियामक का काम करता है। ये इन्द्रियां और मन हमारे ज्ञान और कर्म के साधन मात्र न होकर इस संसार को भोगने के भी साधन हैं। संसार का सुख भोगने में मन विचार और कल्पना के द्वारा भी सहायता करता है। मनुष्य का मन संसार की सबसे अशांत चीज है।
Arjun को काबू में कैसे करें?बच्चों को भी यह सिखाना बहुत जरूरी है कि अपने मन पर सदैव काबू रखें. युद्ध में अर्जुन के विचलित हो जाने पर भगवान कृष्ण ने कहा था कि हर मनुष्य को कर्म करना चाहिए, फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए. जैसा आपका कर्म होगा ईश्वर आपको उसके अनुरूप ही फल देंगे.
मन को नियंत्रित कैसे करें भगवत गीता?मन को नियंत्रित रखें
श्रीमद भगवद गीता में कृष्ण ने कहा है कि मन एक बच्चे की तरह है; बच्चा हर चीज की ओर आकर्षित होता है। बुद्धि और आध्यात्मिक शक्ति से मन को नियंत्रित किया जा सकता है। मानसिक स्वास्थ्य मन की एक अवस्था है। निरंतर अभ्यास और वैराग्य से यह संभव है।
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