जल प्राप्ति के कौन से साधन है? - jal praapti ke kaun se saadhan hai?

जल प्राप्ति के कौन से साधन है? - jal praapti ke kaun se saadhan hai?
जल प्राप्ति के साधन | Sources of Water Supply in Hindi

जल प्राप्ति के साधनों पर एक लेख लिखिए।

  • जल प्राप्ति के साधन (Sources of Water Supply)
  • जल प्राप्ति के साधन
  • 1. वर्षा का जल (Rain Water)
  • 2. पृथ्वी की ऊपरी सतह का जल (Surface Water)
  • नदियाँ (Rivers)
  • नदी के जल की विशेषतायें
  • नदी के जल को दूषित होने से बचाव के उपाय
  • झीलें (Lakes)
  • तालाब तथा पोखरें
  • तालाब तथा पोखरों के दूषित होने के कारण (Sources of Pollution)
  • तालाब के जल को दूषित होने से बचाने के उपाय
  • 3. भूमिगत या अन्तःस्थल जल  (Ground Water)
  • स्रोत व झरने (Spring and Falls)
  • स्त्रोत व झरने के जल को दूषित होने से रोकने के उपाय
  • कुआँ (Well)
  • उथले कुएँ (Shallow Wells)
  • गहरे कुएँ (Deep Wells)
  • गहरे कुएँ के जल के दूषित होने के कारण
  • भूगर्भस्थ आर्टीजियन कुएँ (Artesian Wells) 
  • एक आदर्श कुआँ (An Ideal Well)
  • आदर्श कुओं के गुण

जल प्राप्ति के साधन (Sources of Water Supply)

जल प्राप्ति का एक प्रमुख स्रोत समुद्र है। समुद्र का जल सूरज की गरमी से वाष्प बनकर वायु में मिल जाता है एक अनुमान के अनुसार समुद्र के एक वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से लगभग 1,250 लीटर जल वाष्प बनकर उड़ जाता है। यह जलवाष्प हल्की होने के कारण ऊपर की ओर जाती है। ऊपर ठण्डी हवा के कारण घनीभूत होकर बादल के रूप में दिखाई देती है। वायु की मदद से बादल जमीन की ओर बहते हैं।

कम तापमान वाले स्थानों पर बादल, वर्षा, बर्फ, ओले और ओस के कण बनकर धरती पर गिरते हैं। इस तरह वर्षा से मिलने वाले जल का अधिकांश भाग नदियों के द्वारा पुनः समुद्र में वापिस चला जाता है। कुछ भाग को घरती सोख लेती है और बचा हुआ भाग पुनः वाष्प बनकर वायु में विलीन हो जाता है।

इसी प्रकार वर्षा का जल अन्य स्रोत, जैसे-कुओं, नदी, तालाब, झरना आदि से भी प्राप्त होता है। वर्षा का जल जिसे धरती सोख लेती है वह भूमिगत जल कहलाता है। यही भूमिगत जल हमें कुओं, झरनों व स्रोतों से मिलता है। वर्षा के जल का अधिकतम भाग तालाबों या झीलों में मिल जाता है या फिर नदियों में बह जाता है।

जल प्राप्ति के साधन

प्रमुख रूप से जल प्राप्ति के निम्न साधन है-

  1. वर्षा का जल (Rain water),
  2. पृथ्वी की ऊपरी सतह का जल (Surface water),
  3. पृथ्वी की भीतरी सतह का जल (Ground water)

1. वर्षा का जल (Rain Water)

प्राकृतिक रूप से प्राप्त होने वाले जल में वर्षा का जल सबसे अधिक शुद्ध होता है। नदी, तालाबों और समुद्र का जल गर्मी के कारण वाष्प के रूप में ऊपर को जाकर बादलों के रूप में परिवर्तित हो जाता है। यह बादल ठण्डी वायु के सम्पर्क से धरती पर वर्षा करते हैं। वर्षा का जल वैसे तो सर्वाधिक शुद्ध होता है, किन्तु वायुमण्डल में उपस्थित नाइट्रोजन, कार्बन डाइऑक्साइड आदि गैसों तथा धूल के कणों के कारण यह अशुद्ध हो जाता है।

वर्षा की कई फुहारों के उपरान्त वायुमण्डल की वायु धूलकण, कार्बन कण आदि अशुद्धियों से रहित हो जाती है, तब वर्षा के जल को एकत्रित करना चाहिए। वर्षा के जल को एकत्रित करने के लिए पक्का टैंक बनवाना चाहिए। एकत्र किये जल को अशुद्धियों से बचाया जा सके। उसे ढककर रखा जाना चाहिए व वर्ष में एक बार सफाई अवश्य करनी चाहिए।

वर्षा का जल खनिज लवणों जैसे चूना व मैग्नीशियम से रहित तथा मृदु (Soft) होता है, इसलिए पीने, पकाने तथा अन्य उपयोग जैसे कपड़े धोने में, अत्यन्त उपयोगी होता है।

2. पृथ्वी की ऊपरी सतह का जल (Surface Water)

वर्षा का जल गिरकर धरती पर तालाबों या झीलों में इकट्ठा हो जाता है। कुछ भाग नदियों में बह जाता है। आज भी कई नगर, कस्बे व गाँव धरातल के जल पर निर्भर हैं। इसमें नदियाँ, टैंक, तालाब तथा झीलें सम्मिलित हैं।

नदियाँ (Rivers)

हमारे देश में और देशों के समान ही नदियाँ जलापूर्ति का प्रमुख साधन हैं। ऐसे अनगिनत शहर हैं, जहाँ आज भी सार्वजनिक जलापूर्ति नदियों से ही की जाती है। इनमें दिल्ली, कोलकाता, इलाहाबाद, कानपुर, पूना आदि उदाहरण हैं। मुख्यतया नदियों के जल में धरातल तथा स्रोतों का जल मिश्रित होता है। गाँवों में प्रायः नदियों का जल पेय रूप में तथा सिंचाई के लिए उपयोग में लाया जाता है और कुछ जगह बिजली उत्पादन में भी प्रयुक्त होता है।

नदी के जल की विशेषतायें

नदी के जल में निम्नलिखित विशेषतायें होती हैं-

  1. नदी का जल मृदु (Soft) होता है।
  2. नदियों का जल तेज गति से बहता है, इसलिए अशुद्धियाँ नहीं होती हैं।
  3. नदी के उद्गम स्थल पर जल सर्वथा शुद्ध ही होता है। जैसे-जैसे जल आगे बहता हुआ बढ़ता है, अनेक कस्बों और नगरों से मिलने वाली गन्दगी के कारण अशुद्ध होता जाता है।

नदी के जल के अशुद्ध होने के कारण-ये निम्नवत् हैं-

1. नदियों के आसपास व किनारे स्थित सभी कारखाने अपने निस्तारित व निकृष्ट कूड़ा व पदार्थ नदी की ओर या सीधे ही नदी में मिला देते हैं। इस कारण जल दूषित हो जाता है

2. नदी के किनारे बसे खेतों में जो खाद डाली जाती है, उससे भी नदी का जल दूषित होता है।

3. अधिकांशतः नदी के किनारे स्थित कस्बों, गाँवों व शहरों की गन्दगी नाले के रूप में नदी से मिलकर जल को अशुद्ध बना देती है।

4. मुख्यतया नदी के जल का दूषित होने के कारण मल-मूत्र त्यागने, गन्दे वस्त्र धोने, शवों को बहाने, पालतू गाय-भैसों के बहाने, मरे जानवर को निकट ही फेंक देने इत्यादि से होते हैं।

5. नदी के मार्ग में पाई जाने वाली मिट्टी के प्राकृतिक लवण नदी के जल में घुलकर उसे दूषित कर देते हैं।

नदी के जल को दूषित होने से बचाव के उपाय

नदियों के जल को दूषित होने से बचाने तथा पीने योग्य बनाये रखने हेतु निम्नांकित सावधानियाँ बरतनी चाहिएँ-

  1. शहर से लगभग 3 किलोमीटर की दूर पर जल संग्रहालय स्थित होना चाहिए।
  2. अगर जल संग्रहालय या जल वितरण का उचित प्रबन्ध न हो तो वहाँ नदी का जल छानकर व उबालकर पीना चाहिए।
  3. नदी के किनारे से कम से कम 7 या 10 मीटर दूर पर सार्वजनिक जल पूर्ति के लिए जल संग्रह की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  4. जल ग्रहण के स्थान के आसपास नहाने, धोने, जानवर नहलाने, कूड़ा-करकट फेंकने आदि की सख्त मनाही होनी चाहिए।

झीलें (Lakes)

झीलें (Lakes) प्रायः दो प्रकार की होती हैं- (1) प्राकृतिक झीलें तथा (2) कृत्रिम झीलें।

1. प्राकृतिक झीलें- वर्षा का जल भूमि के निचले भूखण्डों में एकत्रित होता रहता है। संचित जल के यही स्थान प्राकृतिक झीलें कहलाती हैं। प्राकृतिक झीलों के जल का गुण इस बात पर निर्भर करता है कि जल किन-किन स्थानों से किस प्रकार आया है। यह वर्षा का जल भी हो सकता है, प्राकृतिक स्रोतों से आया भी हो सकता है। शहर की गन्दगी व नालियों से आया जल भी हो सकता है। प्राकृतिक झीलों का जल प्रयोग से पूर्व पूरी तरह विशुद्ध अवश्य कर लेना चाहिए।

2. कृत्रिम झीलें- कृत्रिम झीलों का निर्माण बाँधों की सहायता से किया जाता है। तीन तरफ से पहाड़ियों से घिरे स्थान को कृत्रिम झील बनाने के लिए चुना जाता है। फिर इसके चारों ओर बाँध का निर्माण कर देते हैं। वर्षा ऋतु में वर्षा के कारण इसमें जल एकत्रित हो जाता है। इस जल का उपयोग पीने के लिए तथा सिंचाई के लिए किया जाता है। आजकल विशालकाय पक्की कृत्रिम झीलों का निर्माण भी किया जाता है, जिसके जल को प्रमुख रूप से बिजली उत्पादन तथा सिंचाई में उपयोग किया जाता है।

तालाब तथा पोखरें

वर्षा का जल कच्चे व पक्के तालाबों में एकत्रित हो जाता है। हमारे देश में विशेषकर दक्षिण भारत तथा बंगाल में जल प्राप्ति के मुख्य साधन तालाब ही हैं। सामान्यतः इन जलाशयों का जल जानवरों को पिलाने तथा नहलाने में प्रयुक्त होता है। काफी जगह इसके जल को सिंचाई के काम में भी लाया जाता है।

तालाब तथा पोखरों के दूषित होने के कारण (Sources of Pollution)

तालाब तथा पोखरों का पानी कई कारणों की वजह से दूषित होता है, जो निम्नानुसार हैं-

  1. पशुओं के स्नान व मल-मूत्र से भी जल दूषित हो जाता है।
  2. तालाब तथा पोखरों के किनारे स्थित पेड़-पौधों की टूटी-गिरी पत्तियाँ व जंगली घास भी जल को दूषित कर देती हैं।
  3. धोबियों का किनारे बने पत्थरों के पार्टी पर कपड़े धोना आदि नित्य कार्यों से भी जल दूषित हो जाता है।
  4. तालाब पोखरों के आसपास कई लोग मल-मूत्र त्याग करते हैं, जिससे जल दूषित हो जाता है।
  5. प्राय: गाँव के लोग इन्हीं तालाबों में करते हैं और अपने वस्त्रादि भी धोते हैं।
  6. कभी-कभी गाँव, मुहल्लों की नालियाँ व गन्दगी सब जल में मिलकर दूषित कर देती हैं।
  7. मरे हुए पशुओं व पक्षियों के शव आदि अवशेषों के जल में मिलने से भी जल दूषित हो जाता है।
  8. तालाब का जल स्थिर होने के कारण गन्दगी सदैव बनी रहती है। तालाब में भी उसके जल को शुद्ध करने की शक्ति बहुत कम होती है।

तालाब के जल को दूषित होने से बचाने के उपाय

इसके लिए निम्नांकित उपाय किये जा सकते हैं-

1. तालाब को चारों ओर से ऊँचा रखना चाहिए तथा इस प्रकार की व्यवस्था की जानी चाहिए कि सिर्फ वर्षा का जल ही तालाब में एकत्रित हो, अन्य कोई गन्दगी या गन्दा जल इकट्ठा न हो पाये।

2. तालाब में स्नानादि की मनाही होनी चाहिए, व कुछ दूरी पर अलग स्नानघर बनवाकर तालाब से पानी उपलब्ध करवाना चाहिए।

3. तालाब को गहरा बनवाना चाहिए, क्योंकि गहरे तालाबों का जल उथले तालाबों की तुलना में अधिक शुद्ध होता है।

4. तालाब के जल को विसंक्रमित रखने के लिए समय-समय पर पोटैशियम परमैगनेट, क्लोरीन अथवा अन्य कोई कीटनाशक जन स्वास्थ्य रक्षक की सलाह पर मात्रा के अनुसार तालाब के जल में मिला देनी चाहिए।

5. तालाब का निर्माण साफ-सुथरी जगह होना चाहिए व आसपास गन्दगी नहीं होनी चाहिए।

6. प्रयास किये जाने चाहिएँ कि जानवर तालाब तक न पहुँच पायें व इसके लिए बाड़ें भी लगाई जा सकती हैं।

7. वर्ष में आवश्यकतानुसार एक या दो बार पूरा तालाब खाली कर सफाई करानी चाहिए। तालाब में जहाँ जहाँ वनस्पति उग आई हो, उसे भी निकलवाकर फेंक देना चाहिए।

8. अगर आवश्यकतानुसार तालाब का निर्माण कराना हो तो तालाब पक्का तथा लम्बाई-चौड़ाई व क्षमता गाँव या शहर की जनसंख्या के आधार पर की जानी चाहिए।

3. भूमिगत या अन्तःस्थल जल  (Ground Water)

वर्षा का वह जल जो धरती सोख लेती है, भूमिगत या अन्तःस्थल जल (Ground Water) कहलाता है। कुओं, हैण्डपम्पों व स्रोतों का जल भूमिगत जल ही है। वर्षा के उपरान्त वर्षा का जल धरती की ऊपरी सतह से छनकर धरातल की निचली परतों में पहुँचता है। ऊपरी सतह से निचली सतह के मध्य जल के कई जीवाणु तथा कीटाणु मार्ग में ही छन जाते हैं व कई कार्बनिक व अकार्बनिक पदार्थ मिश्रित हो जाते हैं। इन पदार्थों में कुछ तो जल में विलीन हो जाते हैं व कुछ जल में तैरते रहते हैं।

भूमिगत जल के निम्नलिखित स्रोत होते हैं-

स्रोत व झरने (Spring and Falls)

जल भूमि द्वारा सोख लिया जाता है एवं यह भूमिगत जल एक अप्रवेश्य स्तर पर पहुँचकर इकट्ठा हो जाता है। यदि अप्रवेश्य स्तर पर कोई ढलान होता है तो यह जल ढलान के तल पर पहुँचकर एकत्रित हो जाता है। जब कभी जल को निकलने का कोई स्थान मिलता है तो जल-दबाव के कारण भूमि के ऊपरी धरातल पर बहने लगता है। इस प्रकार स्त्रोत के रूप में फूट पड़ता है। जब ये स्रोत कभी पर्वत या पहाड़ों पर फूटते हैं तो नीचे की ओर बहने लगते हैं, इन्हीं स्रोतों से गिरते पानी को झरना कहा जाता है। पहाड़ी क्षेत्रों में जल प्राप्ति का प्रमुख साधन ये स्रोत या झरने ही होते हैं। स्रोत व झरने निम्न प्रकार के होते हैं

1. धरातलीय या भूमि स्रोत (Land Spring)- ये वे स्रोत होते हैं जो वर्षाकाल में तो जल देते हैं, किन्तु अधिकांशतः ग्रीष्मकाल में सूख जाते हैं। वर्षाकाल में जब जल भूमि के अन्दर एक अप्रवेश्य स्तर पर एकत्रित होता है, धरातल की सतह से ऊपर उठ जाता है तथा स्रोत के रूप में पुनः धरातल पर फूट पड़ता है।

2. प्रमुख या निरस्तर स्रोत (Main Spring) – ये स्रोत भूमितल के अप्रवेश्य स्तर पर पहुँचे जल के कारण आई दरार से निकलते हैं। ये कोई निर्धारित या निश्चित स्थान से नहीं फूटते हैं। इनमें जल की मात्रा भी असीमित होती है, इसीलिये इनसे निरन्तर जल की प्राप्ति होती रहती है। इनका जल शुद्ध व चमकदार होता है व इसकी प्रकृति कठोर होती है। इसमें मैग्नीशियम, कैल्सियम आदि के लवण भी घुले होते हैं।

3. उष्ण स्रोत (Hot Spring)-इन स्रोतों से गर्म जल निकलता है व इनका उदम स्थल उन स्थानों पर होता है, जहाँ ज्वालामुखी का विस्फोट बन्द हो चुका होता है। बिहार में राजगीर, पंजाब में ज्वालाजी, मुम्बई के समीप बजरेश्वरी कुछ उष्ण स्रोतों के उदाहरण है।

4. लवणीय स्रोत (Mineral Spring) – इन स्रोतों से प्राप्त जल में खनिज लवण घुले होते हैं। ऐसे स्रोत प्रायः उन स्थानों पर पाये जाते हैं जहाँ धरती का तापमान अधिक होता है। इन स्रोतों का जल कुछ रोगों के लिए लाभप्रद भी होता है जैसे गन्धकयुक्त जल चर्म रोगों में लाभ पहुंचाता है। ऐसा ही स्रोत दिल्ली में महरौली के निकट व पंजाब में ज्वालाजी में भी है|

स्रोत व झरने के जल की विशेषतायें-ये निम्नवत् हैं-

  1. विभिन्न खनिज लवणों से युक्त होने के कारण यह जल कठोर होता है।
  2. खनिज लवण धुले होने के कारण इनका जल स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी होता है।
  3. स्रोतों का जल आमतौर पर शुद्ध, पीने लायक व शीतल होता है।
  4. इनका जल कठोर होने के कारण कपड़े धोने व खाना पकाने के लिए उपयुक्त नहीं होता है।

स्त्रोत व झरने के जल को दूषित होने से रोकने के उपाय

जिन क्षेत्रों के निवासियों के लिए स्रोत ही जल आपूर्ति का प्रमुख साधन है, स्रोत को दूषित होने से अवश्य बचाया जाना चाहिए।

निम्नांकित बिन्दुओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक है-

  1. स्रोत की सभी दरारों को सीमेन्ट आदि से पूरी तरह बन्द कर देना चाहिए।
  2. स्रोत के स्थान से 100-200 फीट की दूरी तक कोई भी गन्दगी या जल प्रदूषण का साधन नहीं होना चाहिए।
  3. स्रोत को पूरी तरह ढक देना चाहिए, जिससे ऊपरी सतह की गन्दगी न आ सके। इसके लिए सीमेन्ट का छोटा ढाँचा बनाया जा सकता है।

कुआँ (Well)

वर्षा का जल भूमि की परतों को पार करता हुआ भूमि में गहराई में एकत्रित हो जाता है। यहीं गहराई में इसका भण्डारण हो जाता है। भूमि को जब जल प्राप्ति के स्तर तक खोदा जाता है तो यही जल कुओं में प्राप्त हो जाता है। भारत की एक बड़ी आबादी अब भी गाँवों में निवास करती है। हमारे देश में गाँवों में जल प्राप्ति का एक प्रमुख साधन कुआँ है। इसके जल का उपयोग पीने के लिए, खाना पकाने, सिंचाई व वस्त्रादि धोने के लिए प्रचुरता से किया जाता है।

विशेष रूप से कुएं चार प्रकार के होते हैं-

उथले कुएँ (Shallow Wells)

साधारणत: उथले कुओं की गहराई बहुत अधिक गहरी नहीं होती। आमतौर पर इनमें प्रवेश्य स्तर (Previous layer) के ऊपर अप्रवेश्य स्तर (Imprevious layer) नहीं होती है। प्रायः भारतीय प्रामीण परिवार कुओं का जल ही दैनिक उपयोग में लाते हैं। इन कुँओं का जल कठोर होता है, क्योंकि इनमें लवण मिले रहते हैं। कभी-कभी धरातल का गन्दा व मैला जल कुएँ की प्रवेश्य स्तर की दरारों तक पहुँच जाता है। इसके फलस्वरूप कुएँ का जल दूषित हो जाता है। अगर यह दूषित जल प्रयोग में लाया जाए तो हैजा, पेचिस, पीलिया आदि संक्रमण फैल जाता है। अगर काफी संख्या में लोग यह जल उपयोग में लाते हैं तो भयंकर प्रकोप बढ़ सकता है।

उथले कुओं की सुरक्षा व स्वच्छता की दृष्टि से इनके खोदने का स्थान व निर्माण सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए। स्वास्थ्य की दृष्टि से इन कुँओं में उचित कीटनाशक दवाओं को मिलाना चाहिए।

गहरे कुएँ (Deep Wells)

गहरे कुएँ आमतौर पर एक या उससे अधिक अप्रवेश्य स्तरों को फोड़कर बनाये जाते हैं। इन कुओं की विशेषता है कि इनसे प्रत्येक मौसम में जल प्राप्त किया जा सकता है। इनकी गहराई काफी अधिक (लगभग 30 मीटर तक) होती है।

गहरे कुएँ के जल की विशेषतायें-ये निम्नांकित हैं-

1. चूँकि इन गहरे कुओं का जल बाहरी वातावरण के सम्पर्क में नहीं आता है, अतः परिणाम स्वरूप इसमें कार्बन डाइ ऑक्साइड घुल नहीं पाती है, इसीलिए इसका स्वाद कम अच्छा होता है।

2. इसमें अशुद्धियाँ (ऐन्द्रिक) नहीं पायी जाती हैं। इसमें अशुद्ध पदार्थों के कण भी नहीं विद्यमान होते।

3. गहरे कुएँ का जल भूमि की कई परतों द्वारा छनकर भण्डार होता है इसलिए विशुद्ध और स्वच्छ होता है। यह लाभप्रद भी होता है।

4. यह सदैव प्राप्त होता रहता है।

5. गहरे कुएँ के जल में कई खनिजों के लवण मिले होते हैं, इसी कारण यह कठोर जल होता है।

गहरे कुएँ के जल के दूषित होने के कारण

जिन कारणों से गहरे कुएँ का जल दूषित हो सकता है, वे निम्नांकित-

1. यदि गहरा कुआँ पूरी तरह खुला है तो आसपास के पेड़-पौधों की पत्तियाँ, कूड़ा-करकट आदि मिलने से इसका जल दूषित हो जाता है।

2. यदि कुएँ के पास पानी की निकासी का उचित प्रबन्ध न हो तो अशुद्ध जल के कुएँ के जल में मिलने की प्रबल सम्भावनायें रहती हैं। इसके लिए कुओं की दीवारें पक्की होना अत्यन्त आवश्यक हैं।

भूगर्भस्थ आर्टीजियन कुएँ (Artesian Wells) 

इस प्रकार के कुओं का प्रयोग विशेष रूप से फ्रांस के आटॉइज नामक स्थान पर दीर्घकाल से हो रहा है। उसी के नाम पर इन कुओं को “आर्टीजियन कुएँ” कहते हैं। यह भी गहरे कुओं का ही एक रूप है। इन कुओं का जल दो अभेद्य स्तरों के मध्य होता है। विशेष मशीनों की सहायता से भूमि के धरातल तक छेद किया जाता है। तत्पश्चात् जब पाइप दो अभेद्य स्तरों में स्थित जल तक पहुँचता है तो भूमि के दबाव से स्वयं ही जल फव्वारे की तरह ऊपर उठ जाता है। धरती के पिछले हिस्से के जिस स्थान से यह कुआँ खुदा रहता है, वह स्थान अभेद्य स्तर के जल की सतह की अपेक्षा कम ऊँचाई पर होता है, इसलिए भूमि में छेद हो जाने से गहराई का जल दबाव के साथ उठता है। भारत में इस प्रकार के कुएँ पाण्डिचेरी तथा सिलहट में पाये जाते हैं। इनसे प्राप्त पेय जल सर्वाधिक शुद्ध रहता है, परन्तु इनमें एक विशेष सावधानी सदैव स्मरित रहनी चाहिए कि बाह्य वातावरण की गन्दगी जल को दूषित न करे ।

नल के कुएँ या नलकूप (Tubewells) – हमारे ग्रामप्रधान देश में अब साधारण कुओं की अपेक्षा नलकूप की व्यवस्था की जाने लगी है। इससे विभिन्न प्रयोगों हेतु प्रचुर मात्रा में तथा निरन्तर जल प्राप्त होता रहता है। नलकूपों का निर्माण बोरिंग मशीन के द्वारा लोहे के पाइप को धरती में प्रवेश करके किया जाता है। प्रवेश उस स्थान तक कराया जाता है, जहाँ जल की प्रचुर मात्रा उपलब्ध है। प्रयोग में लाये जाने वाले पाइपों के व्यास का निर्धारण आवश्यकतानुसार किया जाता है। आमतौर पर सिंचाई हेतु 4 से 5 इंच के व्यास का पाइप उपयुक्त होता है। अधिक व्यास वाले पाइपों में जल ऊपर लाने के लिए हैण्डपम्प (Hand Pump) या विद्युत मशीन (पम्पिंग मशीन) का प्रयोग किया जाता है। सिंचाई हेतु नलकूप गहराई 40-100 फुट के मध्य हो सकती है, किन्तु सार्वजनिक जलापूर्ति के लिए नलकूप बहुत अधिक गहरा होना चाहिए।

एक आदर्श कुआँ (An Ideal Well)

भारतवर्ष में गाँव तथा छोटे-छोटे कस्बों में कुओं का प्रयोग प्रमुख रूप से किया जाता है। जल प्राप्ति के इस प्रमुख साधन को आदर्श बनाने हेतु कुछ विशिष्टितायें होना अत्यन्त आवश्यक हैं

आदर्श कुओं के गुण

1. आदर्श कुओं का निर्माण आवासीय क्षेत्र से कुछ दूरी पर होना चाहिए। इससे निवासी निजी उपयोग में न ला पायेंगे।

2. कुओं का निर्माण ऐसे स्थान पर हो जहाँ पेड़-पौधे न हों अन्यथा उसके पत्ते-पत्तियाँ, घास आदि उसके जल को दूषित करेंगे।

3. कुएँ की गहराई कम से कम 45 मीटर होनी चाहिए। अधिक गहरा कुआँ अधिक शुद्ध जल उपलब्ध करायेगा।

4. कुएँ के चारों ओर 1½ मीटर ऊँची दीवार बनानी चाहिए और उस पर जाली लगाकर कुएँ को ढक देना चाहिए जिससे कूड़ा या अन्य पत्ते पत्तियाँ कुएं में न गिरें।

5. गन्दे रस्सी व बर्तन का प्रयोग जल निकालने के लिए कदापि नहीं करना चाहिए।

6. संक्रामक रोगों के प्रकोप के समय या खतरे से पूर्व कुओं में ब्लीचिंग पाउडर तथा पोटैशियम परमैंगनेट (लाल दवाई) अवश्य डाली जानी चाहिए।

7. कुआँ जहाँ बनायें, वह जगह स्वच्छ व अच्छी भूमि होनी चाहिए तथा गन्दगी, कूड़ा-करकट वाले क्षेत्रों से दूर होनी चाहिए। सार्वजनिक शौचालय, नालियाँ आदि कम से कम 30-40 मीटर की दूरी पर हों।

8. कुएँ के भीतर की दीवार पक्की ईंट या सीमेन्ट के पलस्तर की होनी चाहिए, जिससे गन्दे पानी के रिसाव के कारण पानी दूषित न हो जाये।

9. कुएँ के चारों ओर या तो चबूतरा बनवाना चाहिए या फिर ढलाऊ फर्श, जिससे पानी रुके नहीं व शीघ्र वह जाये।

10. कुएँ के आसपास स्नान करने, कपड़े धोने, बर्तन माँजने, जानवरों को नहलाने, पानी पिलाने पर कड़ाई से रोक लगानी चाहिए। इससे कुएँ के जल को दूषित होने से रोका जा सकेगा।

11. कुएँ की सफाई नियमित व निश्चित अन्तराल पर कराई जानी चाहिए। कम से कम वार्षिक सफाई होना आवश्यक है।

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जल प्राप्ति के साधन क्या है?

जल स्रोत देश के जल संसाधनों को नदियों और नहरों, जलाशयों, कुंडों और तलाबों, आर्द्र भूमि और चापाकार झीलों तथा शुष्क पड़ते जलस्रोतों और खारे पानी के रुप में वर्गीकृत किया जा सकता है। नदियों और नहरों के अलावा बाकी के जल स्रोतों का कुल क्षेत्र 7 मिलियन हेक्टेयर है।

पानी का मुख्य स्रोत क्या है?

पृथ्वी पर पानी के मुख्य स्रोत क्या हैं? यदि बात पूरी पृथ्वी की है तो स्वाभाविकतः समुद्र ही पानी के मुख्य स्त्रोत है,इनसे ही हवा पानी सोख कर बादल बनाती है, जो बरसते है,फिर नदियां बहती है, सरोवर एवं कुँए भरते है। वैसे, हिमनद, नदियां, सरोवर आदि इंसानों या अन्य प्राणियों के संदर्भ मे पानी के स्त्रोत है।

जल के स्रोत कितने होते हैं?

जल के दो प्राथमिक स्रोत हैं – सतही जल और भूजल। (iii) समुद्रीय जल (Sea Water)। (i) वर्षा का जल-प्राकृतिक जल का यह सबसे अधिक शुद्ध रूप है।

जल संसाधन का क्या अर्थ है?

जल संसाधन जल के वे स्रोत हैं जो मनुष्यों के लिए उपयोगी होते हैं। अधिकांशतः लोगों को ताजे जल की आवश्यकता होती है। जल की उपस्थिति के कारण ही पृथ्वी पर जीवन संभव है। जल एक अक्षय प्राकृतिक संसाधन है।