कहानी माता सती की |

माता सती को ही पार्वती, दुर्गा, काली, गौरी, उमा, जगदम्बा, गिरीजा, अम्बे, शेरांवाली, शैलपुत्री, पहाड़ावाली, चामुंडा, तुलजा, अम्बिका आदि नामों से जाना जाता है। इनकी कहानी बहुत ही रहस्यमय है। यह किसी एक जन्म की कहानी नहीं कई जन्मों और कई रूपों की कहानी है।


देवी भागवत पुराण में माता के 18 रूपों का वर्णन मिलता है। हालांकि नौ दुर्गा और दस महाविद्याओं (कुल 19) के वर्णन को पढ़कर लगता है कि उनमें से कुछ माता की बहने थीं और कुछ का संबंध माता के अगले जन्म से है। जैसे पार्वती, कात्यायिनी अगले जन्म की कहानी है तो तारा माता की बहन थी।

माता सती का पहला जन्म...

सती
शक्ति, ऊर्जा, वैवाहिक सुख, दीर्घायु, सौंदर्य, सद्भाव, आकर्षण, युद्ध, शांति, रौद्रता, सौम्यता, सुख, प्रकृति, पतिव्रत धर्म, स्त्रीत्व, संस्कार और सदाचार की देवी
Member of त्रिदेवी
कहानी माता सती की |

देवी सती के मृत शरीर पर विलाप करतेहुए भगवान शंकर
अन्य नाम सती,गौरी, कामाख्या, काली, महाविद्या, तारा, शंकरी, शांभवी
संबंध देवी, पार्वती का पूर्वजन्म, आदि शक्ति, आदि पराशक्ति, जगदम्बा, शक्ति
निवासस्थान कैलाश और शक्ति पीठ
मंत्र ॐ सर्वसमोहन्ये विद्महे विश्वजनन्ये धीमही तन्नो शक्ति प्रचोद्यात ।
अस्त्र त्रिशूल, चक्र, शंख, ढाल, तलवार, धनुष बाण, गदा और कमल
जीवनसाथी शिव
माता-पिता

  • दक्ष प्रजापति (पिता)
  • प्रसूति देवी (माता)

भाई-बहन कद्रू, अदिति, दिति, रोहिणी और अन्य बहनें
सवारी नंदी, शेर
समुदाय गढ़वाल क्षत्रियों की कुलदेवी
त्यौहार महाशिवरात्रि, नवरात्रि, दुर्गाष्टमी और काली पूजा

कहानी माता सती की |

शिव अपने त्रिशूल पर सती के शव को लेकर जाते हुए

कहानी माता सती की |

माता सती यज्ञ कुण्ड में अपने प्राण त्यागते हुए

सती दक्ष प्रजापति की पुत्री और भगवान शिव की पत्नी थी। इनकी उत्पत्ति तथा अंत की कथा विभिन्न पुराणों में विभिन्न रूपों में उपलब्ध होती है।

पुराणों में वर्णित आरम्भिक जीवन[संपादित करें]

शैव पुराणों में भगवान शिव की प्रधानता के कारण शिव को परम तत्त्व तथा शक्ति (शिवा) को उनकी अनुगामिनी बताया गया है। इसी के समानान्तर शाक्त पुराणों में शक्ति की प्रधानता होने के कारण शक्ति (शिवा) को आदिशक्ति (परम तत्त्व) तथा भगवान शिव को उनका अनुगामी बताया गया है। श्रीमद्भागवतमहापुराण में अपेक्षाकृत तटस्थ वर्णन है। इसमें दक्ष की स्वायम्भुव मनु की पुत्री प्रसूति के गर्भ से 16 कन्याओं के जन्म की बात कही गयी है।[1] देवीपुराण (महाभागवत) में 14 कन्याओं का उल्लेख हुआ है[2] तथा शिवपुराण में दक्ष की साठ कन्याओं का उल्लेख हुआ है जिनमें से 27 का विवाह चन्द्रमा से हुआ था।[3] इन कन्याओं में एक सती भी थी। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्मा जी को भगवान् शिव के विवाह की चिन्ता हुई तो उन्होंने भगवान् विष्णु की स्तुति की और विष्णु जी ने प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी को बताया कि यदि भगवान् शिव का विवाह करवाना है तो देवी शिवा की आराधना कीजिए। उन्होंने बताया कि दक्ष से कहिए कि वह भगवती शिवा की तपस्या करें और उन्हें प्रसन्न करके अपनी पुत्री होने का वरदान माँगे। यदि देवी शिवा प्रसन्न हो जाएगी तो सारे काम सफल हो जाएँगे।[4] उनके कथनानुसार ब्रह्मा जी ने दक्ष से भगवती शिवा की तपस्या करने को कहा और प्रजापति दक्ष ने देवी शिवा की घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवा ने उन्हें वरदान दिया कि मैं आपकी पुत्री के रूप में जन्म लूँगी। मैं तो सभी जन्मों में भगवान शिव की दासी हूँ; अतः मैं स्वयं भगवान् शिव की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न करूँगी और उनकी पत्नी बनूँगी। साथ ही उन्होंने दक्ष से यह भी कहा कि जब आपका आदर मेरे प्रति कम हो जाएगा तब उसी समय मैं अपने शरीर को त्याग दूँगी, अपने स्वरूप में लीन हो जाऊँगी अथवा दूसरा शरीर धारण कर लूँगी। प्रत्येक सर्ग या कल्प के लिए दक्ष को उन्होंने यह वरदान दे दिया।[5] तदनुसार भगवती शिवा सती के नाम से दक्ष की पुत्री के रूप में जन्म लेती है और घोर तपस्या करके भगवान् शिव को प्रसन्न करती है तथा भगवान् शिव से उनका विवाह होता है। इसके बाद की कथा श्रीमद्भागवतमहापुराण में वर्णित कथा के काफी हद तक अनुरूप ही है।

दक्ष-यज्ञ एवं सती का आत्मदाह[संपादित करें]

प्रयाग में प्रजापतियों के एक यज्ञ में दक्ष के पधारने पर सभी देवतागण खड़े होकर उन्हें आदर देते हैं, परन्तु ब्रह्मा जी के साथ शिवजी भी बैठे ही रह जाते हैं।[6] लौकिक बुद्धि से भगवान् शिव को अपना जामाता अर्थात् पुत्र समान मानने के कारण दक्ष उनके खड़े न होकर अपने प्रति आदर प्रकट न करने के कारण अपना अपमान महसूस करता है और इसी कारण उन्होंने भगवान शिव के प्रति अनेक कटूक्तियों का प्रयोग करते हुए उन्हें यज्ञ-भाग से वंचित होने का शाप दे दिया। इसी के बाद दक्ष और भगवान् शिव में मनोमालिन्य उत्पन्न हो गया। तत्पश्चात् अपनी राजधानी कनखल में दक्ष के द्वारा एक विराट यज्ञ का आयोजन किया गया जिसमें उन्होंने न तो भगवान् शिव को आमंत्रित किया और न ही अपनी पुत्री सती को। सती ने रोहिणी को चन्द्रमा के साथ विमान से जाते देखा और सखी के द्वारा यह पता चलने पर कि वे लोग उन्हीं के पिता दक्ष के विराट यज्ञ में भाग लेने जा रहे हैं, सती का मन भी वहाँ जाने को व्याकुल हो गया। भगवान् शिव के समझाने के बावजूद सती की व्याकुलता बनी रही और भगवान शिव ने अपने गणों के साथ उन्हें वहाँ जाने की आज्ञा दे दी।[7] परन्तु, वहाँ जाकर भगवान् शिव का यज्ञ-भाग न देखकर सती ने घोर आपत्ति जतायी और दक्ष के द्वारा अपने (सती के) तथा उनके पति भगवान् शिव के प्रति भी घोर अपमानजनक बातें कहने के कारण सती ने योगाग्नि से अपने शरीर को भस्म कर डाला। शिवगणों के द्वारा उत्पात मचाये जाने पर भृगु ऋषि ने दक्षिणाग्नि में आहुति दी और उससे उत्पन्न ऋभु नामक देवताओं ने शिवगणों को भगा दिया। इस समाचार से अत्यन्त कुपित भगवान् शिव ने अपनी जटा से वीरभद्र को उत्पन्न किया और वीरभद्र ने गण सहित जाकर दक्ष-यज्ञ का विध्वंस कर डाला; शिव के विरोधी देवताओं तथा ऋषियों को यथायोग्य दंड दिया तथा दक्ष के सिर को काट कर हवनकुंड में जला डाला। तत्पश्चात् देवताओं सहित ब्रह्मा जी के द्वारा स्तुति किए जाने से प्रसन्न भगवान् शिव ने पुनः यज्ञ में हुई क्षतियों की पूर्ति की तथा दक्ष का सिर जल जाने के कारण बकरे का सिर जुड़वा कर उन्हें भी जीवित कर दिया। फिर उनके अनुग्रह से यज्ञ पूर्ण हुआ।[8]

पौराणिक मान्यताओं की विभिन्नता[संपादित करें]

शाक्त मत में शक्ति की सर्वप्रधानता होने के कारण ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव तीनों को शक्ति की कृपा से ही उत्पन्न माना गया है। देवीपुराण (महाभागवत) में वर्णन है कि पूर्णा प्रकृति जगदम्बिका ने ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों को उत्पन्न कर उन्हें सृष्टि कार्यों में नियुक्त किया। उन्होंने ही ब्रह्मा को सृजनकर्ता, विष्णु को पालनकर्ता तथा अपनी इच्छानुसार शिव को संहारकर्ता होने का आदेश दिया।[9] आदेश-पालन के पूर्व इन तीनों ने उन परमा शक्ति पूर्णा प्रकृति को ही अपनी पत्नी के रूप में पाने के लिए तप आरम्भ कर दिया। जगदम्बिका द्वारा परीक्षण में असफल होने के कारण ब्रह्मा एवं विष्णु को पूर्णा प्रकृति अंश रूप में पत्नी बनकर प्राप्त हुई तथा भगवान् शिव की तपस्या से परम प्रसन्न होकर जगदम्बिका ने स्वयं जन्म लेकर उनकी पत्नी बनने का आश्वासन दिया।[10] तदनुसार ब्रह्मा जी के द्वारा प्रेरित किए जाने पर दक्ष ने उसी पूर्णा प्रकृति जगदम्बिका की तपस्या की और उनके तप से प्रसन्न होकर जगदम्बिका ने उनकी पुत्री होकर जन्म लेने का वरदान दिया तथा यह भी बता दिया कि जब दक्ष का पुण्य क्षीण हो जाएगा तब वह शक्ति जगत को विमोहित करके अपने धाम को लौट जाएगी।[11]

उक्त वरदान के अनुरूप पूर्णा प्रकृति ने सती के नाम से दक्ष की पुत्री रूप में जन्म ग्रहण किया और उसके विवाह योग्य होने पर दक्ष ने उसके विवाह का विचार किया। दक्ष अपनी लौकिक बुद्धि से भगवान् शिव के प्रभाव को न समझने के कारण उनके वेश को अमर्यादित मानते थे और उन्हें किसी प्रकार सती के योग्य वर नहीं मानते थे। अतः उन्होंने विचार कर भगवान् शिव से शून्य स्वयंवर सभा का आयोजन किया और सती से आग्रह किया कि वे अपनी पसंद के अनुसार वर चुन ले। भगवान शिव को उपस्थित न देख कर सती ने 'शिवाय नमः' कह कर वरमाला पृथ्वी पर डाल दी तथा महेश्वर शिव स्वयं उपस्थित होकर उस वरमाला को ग्रहण कर सती को अपनी पत्नी बनाकर कैलाश लौट गये। दक्ष बहुत दुखी हुए। अपनी इच्छा के विरुद्ध सती के द्वारा शिव को पति चुन लिए जाने से दक्ष का मन उन दोनों के प्रति क्षोभ से भर गया।[12] इसीलिए बाद में अपनी राजधानी में आयोजित विराट यज्ञ में दक्ष ने शिव एवं सती को आमंत्रित नहीं किया। फिर भी सती ने अपने पिता के यज्ञ में जाने का हठ किया और शिव जी के द्वारा बार-बार रोकने पर अत्यन्त कुपित होकर उन्हें अपना भयानक रूप दिखाया। इससे भयाक्रान्त होकर शिवजी के भागने का वर्णन हुआ है और उन्हें रोकने के लिए जगदम्बिका ने 10 रूप (दश महाविद्या का रूप) धारण किया। फिर शिवजी के पूछने पर उन्होंने अपने दशों रूपों का परिचय दिया।[13] फिर शिव जी द्वारा क्षमा-याचना करने के पश्चात् पूर्णा प्रकृति मुस्कुरा कर अपने पिता दक्ष के यज्ञ में जाने को उत्सुक हुई तब शिव जी ने अपने गणों को कहकर बहुसंख्यक सिंहों से जुते रथ मँगवाकर उस पर आसीन करवाकर भगवती को ससम्मान दक्ष के घर भेजा।

शेष कथा कतिपय अन्तरों के साथ पूर्ववर्णित कथा के प्रायः अनुरूप ही है, परन्तु इस कथा में कुपित सती छायासती को लीला का आदेश देकर अन्तर्धान हो जाती है और उस छायासती के भस्म हो जाने पर बात खत्म नहीं होती बल्कि शिव के प्रसन्न होकर यज्ञ पूर्णता का संकेत दे देने के बाद छायासती की लाश सुरक्षित तथा देदीप्यमान रूप में दक्ष की यज्ञशाला में ही पुनः मिल जाती है[14] और फिर देवी शक्ति द्वारा पूर्व में ही भविष्यवाणी रूप में बता दिये जाने के बावजूद लौकिक पुरुष की तरह शिवजी विलाप करते हैं तथा सती की लाश सिर पर धारण कर विक्षिप्त की तरह भटकते हैं।[15] इससे त्रस्त देवताओं को त्राण दिलाने तथा परिस्थिति को सँभालने हेतु भगवान् विष्णु सुदर्शन चक्र से सती की लाश को क्रमशः खंड-खंड कर काटते जाते हैं। इस प्रकार सती के विभिन्न अंग तथा आभूषणों के विभिन्न स्थानों पर गिरने से वे स्थान शक्तिपीठ की महिमा से युक्त हो गये।[16] इस प्रकार 51 शक्तिपीठों का निर्माण हो गया। फिर सती की लाश न रह जाने पर भगवान् शिव ने जब व्याकुलतापूर्वक देवताओं से प्रश्न किया तो देवताओं ने उन्हें सारी बात बतायी। इस पर निःश्वास छोड़ते हुए भगवान् शिव ने भगवान् विष्णु को त्रेतायुग में सूर्यवंश में अवतार लेकर इसी प्रकार पत्नी से वियुक्त होने का शाप दे दिया और फिर स्वयं 51 शक्तिपीठों में सर्वप्रधान 'कामरूप' में जाकर भगवती की आराधना की और उस पूर्णा प्रकृति के द्वारा अगली बार हिमालय के घर में पार्वती के रूप में पूर्णावतार लेकर पुनः उनकी पत्नी बनने का वर प्राप्त हुआ।[17]

इस प्रकार यही सती अगले जन्म में पार्वती के रूप में हिमालय की पुत्री बनकर पुनः भगवान शिव को पत्नी रूप में प्राप्त हो गयी।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • दक्ष-यज्ञ-विध्वंस : कथा-विकास के चरण
  • सती प्रथा
  • दक्ष प्रजापति
  • पार्वती
  • शंकर

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  1. रानी सती जी की आरती

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. श्रीमद्भागवतमहापुराण (सटीक), गीताप्रेस गोरखपुर, 4-1-47.
  2. देवीपुराण [महाभागवत]-शक्तिपीठाङ्क (सटीक), गीताप्रेस गोरखपुर, 3-64.
  3. श्रीशिवमहापुराण, हिन्दी अनुवाद सहित, गीताप्रेस, गोरखपुर, प्रथम खण्ड, रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खंड, अध्याय-14, श्लोक-4-6.
  4. श्रीशिवमहापुराण, हिन्दी अनुवाद सहित, गीताप्रेस, गोरखपुर, प्रथम खण्ड, रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खंड-10.42-45.
  5. श्रीशिवमहापुराण, हिन्दी अनुवाद सहित, गीताप्रेस, गोरखपुर, प्रथम खण्ड, रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खंड-12.25-35.
  6. श्रीशिवमहापुराण, हिन्दी अनुवाद सहित, गीताप्रेस, गोरखपुर, प्रथम खण्ड, रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खंड-26.10-11.
  7. श्रीशिवमहापुराण, हिन्दी अनुवाद सहित, गीताप्रेस, गोरखपुर, प्रथम खण्ड, रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खंड-28.32-38.
  8. (क)श्रीशिवमहापुराण, हिन्दी अनुवाद सहित, गीताप्रेस, गोरखपुर, प्रथम खण्ड, रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खंड, अध्याय-29 से 43; (ख)श्रीमद्भागवतमहापुराण (सटीक), गीताप्रेस गोरखपुर, स्कन्ध-4, अध्याय-4 से 7.
  9. देवीपुराण [महाभागवत]-शक्तिपीठांक (सटीक), गीताप्रेस गोरखपुर, 3-26,27.
  10. देवीपुराण [महाभागवत]-शक्तिपीठांक (सटीक), गीताप्रेस गोरखपुर, 3-76.
  11. देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-4-16से20.
  12. देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-5-1.
  13. देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-8-62,63.
  14. देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-11-46.
  15. देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-11-60.
  16. देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-11-79,80.
  17. देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-12-21.

सती पूर्व जन्म में कौन थी?

पार्वती कथा : दक्ष के बाद सती ने हिमालय के राजा हिमवान और रानी मैनावती के यहां जन्म लिया। मैनावती और हिमवान को कोई कन्या नहीं थी तो उन्होंने आदिशक्ति की प्रार्थना की। आदिशक्ति माता सती ने उन्हें उनके यहां कन्या के रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। दोनों ने उस कन्या का नाम रखा पार्वती।

सती की मृत्यु कैसे हुई?

परन्तु, वहाँ जाकर भगवान् शिव का यज्ञ-भाग न देखकर सती ने घोर आपत्ति जतायी और दक्ष के द्वारा अपने (सती के) तथा उनके पति भगवान् शिव के प्रति भी घोर अपमानजनक बातें कहने के कारण सती ने योगाग्नि से अपने शरीर को भस्म कर डाला।

माता सती का जन्म कैसे हुआ?

आकूति, देवहूति और प्रसूती नामक तीन पुत्रियां थीं। प्रसूति का विवाह राजा दक्ष प्रजापति के साथ हुआ। राजा दक्ष के यहां ही देवी सती का जन्म हुआ। राजा दक्ष प्रजापति के यहां एक नहीं बल्कि 24 कन्याएं उत्पन्न हुईं।

सती ने आत्मदाह क्यों किया?

बताया जाता है कि ब्रह्म पुत्र राजा दक्ष प्रजापति ने शिव को अपमानित करने के उद्देश्य से यहीं पर शत कुंडी यज्ञ किया था। इसमें बिना निमंत्रण पहुंची सती ने अपने पति के अपमान से विक्षुब्‍ध होकर यज्ञशाला में अपने प्राणों की आहुति दे दी थी।