क्या गुटनिरपेक्ष आंदोलन अप्रासंगिक हो गया - kya gutanirapeksh aandolan apraasangik ho gaya

'गुट - निरपेक्ष आंदोलन अब अप्रासंगिक हो गया है' आप इस के बारे में क्या सोचते हैं। अपने उत्तर के समर्थन में तर्क प्रस्तुत करें।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन आज भी प्रासंगिक है। बल्कि वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद से विश्व एक ध्रुवीय बन गया है। मिस्र ने सुझाव दिया की गुटबंदी समाप्त होने की वजह से गुट निरपेक्ष आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य पूरा हो गया है। अतः अब गुट निरपेक्ष आंदोलन को जी - 77 के समूह में शामिल हो जाना चाहिए। फरवरी, 1992 के पहले सप्ताह में गुटनिरपेक्ष राष्टों के विदेश संत्रिया का सम्मेलन निकोसिया में हुआ जिसमे बदली परिस्थितिया में इस आंदोलन की भावी भूमिका पर विचार हुआ। 1992 में इंडोनेशिया में दसवें शिखर सम्मेलन में अधिकतर सदस्यों ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन की जारी रखने पर जोर दिया और इसके उद्देश्य में परिवर्तन करने को कहा। निम्लिखित कारणों से गुटनिरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिक आज भी है:

  1. गुटनिरपेक्ष आंदोलन अमरीका, यूरोप तथा जापान जैसे पूंजीवादी देशों से उनकी रक्षा के लिए आवशयकता हैं।
  2. निवोदित राष्टों का संगठन होने के कारण इसकी प्रासंगिकता आज भी है। इन राष्टों का आर्थिक और राजनितिक विकास भी परस्पर सहयोग पर निर्भर
  3. गुटनिरपेक्ष आंदोलन के माध्यम से निशस्त्रीकरण की आवाज उठाई जा रही है जो गुटनिरपेक्ष देशों को सुरक्षा प्रदान करती है।
  4. अधिकतर गुट निरपेक्ष देश विकासशील या अविकसित हैं। सभी की आर्थिक समस्याएं समान है। अतः आपसी सहयोग से ही आर्थिक उन्नति की जा सकती है।
  5. वर्तमान हमशक्तिया अमिरका के प्रभाव से मुक्त करने के लिए निर्गुट राष्टों का आपसी सहयोग और भी अधिक आवश्यक है।

Concept: दो-ध्रुवीयता को चुनौती - गुटनिरपेक्षता

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'गुट-निरपेक्ष आंदोलन अब अप्रासंगिक हो गया है'। आप इस कथन के बारे में क्या सोचते हैं। अपने उत्तर के समर्थन में तर्क प्रस्तुत करें।


दूसरे विश्वयुद्ध का अंत समकालीन विश्व-राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद समस्त विश्व मुख्य दो शक्ति गुटों में विभाजित हो गया था। दोनों शक्ति गुटों का नेतृत्व दो महाशक्तियों सोवियत संघ तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के द्वारा क्रमश: साम्यवादी तथा गैर साम्यवादी विचारधारा के आधार पर किया जा रहा था जिसे विश्व राजनीति में शीत युद्ध का नाम दिया गया।
इस शीत युद्ध के दौरान दोनों महाशक्तियाँ विश्व के अन्य राष्ट्र को अपने-अपने गुट में शामिल करने के प्रयास में लग गई। इसी समय विश्व राजनीति में गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने जन्म लिया।
परन्तु दिसंबर, 1981 में सोवियत संघ के विघटन के पश्चात शीत युद्ध का अंत हो गया था। परिणामस्वरूप अमेरिका ही महाशक्ति के रूप में बचा अर्थात संसार एक ध्रुवीय हो गया। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न किया जाने लगा कि गुटनिरपेक्षता का उद्देश्य शीतयुद्ध के संदर्भ में हुआ था और आज शीत युद्ध का अंत हो जाने के कारण गुटनिरपेक्षता की कोई प्रासंगिकता नहीं रही है, किन्तु ऐसे लोगों का विचार उचित नहीं है क्योंकि विश्व राजनीति में गुट-निरपेक्षता अपना महत्व स्थाई रूप में धारण कर चुका है। इसके महत्व एवं भूमिका के संदर्भ में निम्नलिखित बातें देखि या सुनी जा सकती है:

  1. आज भी बहुसंख्यक गुट-निरपेक्ष राष्ट्र आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं और विकसित राष्ट्रों तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा उनका नव-औपनिवेशिक शोषण किया जा रहा है। इस स्थिति से उन्हें बचाने के लिए यह अनिवार्य है कि विकसित एवं विकासशील देशों के बीच सार्थक वार्ता के लिए दबाव डाला जाए और 'गुटनिरपेक्ष आंदोलन' द्वारा विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग मज़बूत एवं सक्रिय किया जाए।
  2. गुट निरपेक्षता स्वतंत्र हुए देशों के लिए एक जुड़ाव का माध्यम हैं और यदि ये देश एक साथ आ जाएँ तो यह एक बहुत बड़ी शक्ति का रूप ले सकता हैं।
  3. आज विश्व के राष्ट्रों के समक्ष आतंकवाद, नि:शस्त्रीकरण, मानवाधिकार एवं पर्यावरण जैसी अनेक समस्या चुनौतियों के रूप में विराजमान है। इन सबके समाधान के लिए भी इस आंदोलन के मंच को अपनाना होगा।
  4. गुट-निरपेक्ष आंदोलन का महत्व इस बात से भी रहा हैं की यह एक ऐसा आंदोलन रहा है जो विश्व भर में मौजूदा असमानताओं से निपटने के लिए एक वैकल्पिक विश्व-व्यवस्था बनाने के संकल्प पर टिका रहा हैं।

उपरोक्त सभी विवरणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकला जा सकता हैं कि 'गुट-निरपेक्ष आंदोलन' कि प्रासंगिकता आज भी कम नहीं हुई हैं।


शीतयुद्ध का दौर

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समकालीन विश्व राजनीति

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कभी-कभी कहा जाता है कि शीतयुद्ध सीधे तौर पर शक्ति के लिए संघर्ष था और इसका विचारधारा से कोई संबंध नहीं था। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने उत्तर के समर्थन में एक उदाहरण दें।


शीतयुद्ध के सन्दर्भ में सिर्फ ये कहना कि यह सीधे तौर पर शक्ति के लिए संघर्ष था और इसका विचारधारा से कोई संबंध नहीं था। ऐसे कहना उचित नहीं होगा क्योंकि दोनों गुटों में विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात अमेरिका तथा सोवियत संघ दो परस्पर विचार धाराओं क्रमश: पूँजीवादी तथा साम्यवाद के रूप में उभरे जिनका कभी तालमेल नहीं हो सकता। 

शीतयुद्ध सिर्फ जोर-आजमाइश, सैनिक गठबंधन अथवा शक्ति-संतुलन का मामला भर नहीं था बल्कि इसके साथ-साथ विचारधारा के स्तर पर भी एक वास्तविक संघर्ष जारी था। विचारधारा की लड़ाई इस बात को लेकर थी कि पूरे विश्व में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन को सूत्रबद्ध करने का सबसे बेहतर सिद्धांत कौन-सा है। पश्चिमी गठबंधन का अगुआ अमरीका था और यह गुट उदारवादी लोकतंत्र तथा पूँजीवाद का हामी था। पूर्वी गठबंधन का अगुवा सोवियत संघ था और इस गुट की प्रतिबद्धता समाजवाद तथा साम्यवाद के लिए थी।

लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इसके पीछे कही न कही शक्ति को अर्जित करना भी इसकी एक मुख्या धारणा रही हैं। उदाहरण के लिए क्यूबा का संकट, बलिन संकट तथा कांगो संकट हैं। कई ऐसे क्षेत्र रहे हैं, जहाँ विरोधी गुट ने अपने प्रतिद्वंद्वी को आगे बढ़ने से रोकने या अपने गठबंधन के प्रचार व प्रसार को रोकने का प्रयास किया। उसके पीछे केवल एक ही मंशा रही हैं कि उसकी सैनिक शक्ति व क्षमता को कमज़ोर किया जाए। कही न कही दोनों गुट एक दूसरे के ऊपर खुद को महाशक्ति साबित करना चाहते थे। 


'गुट-निरपेक्ष आंदोलन अब अप्रासंगिक हो गया है'। आप इस कथन के बारे में क्या सोचते हैं। अपने उत्तर के समर्थन में तर्क प्रस्तुत करें।


दूसरे विश्वयुद्ध का अंत समकालीन विश्व-राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद समस्त विश्व मुख्य दो शक्ति गुटों में विभाजित हो गया था। दोनों शक्ति गुटों का नेतृत्व दो महाशक्तियों सोवियत संघ तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के द्वारा क्रमश: साम्यवादी तथा गैर साम्यवादी विचारधारा के आधार पर किया जा रहा था जिसे विश्व राजनीति में शीत युद्ध का नाम दिया गया।
इस शीत युद्ध के दौरान दोनों महाशक्तियाँ विश्व के अन्य राष्ट्र को अपने-अपने गुट में शामिल करने के प्रयास में लग गई। इसी समय विश्व राजनीति में गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने जन्म लिया।
परन्तु दिसंबर, 1981 में सोवियत संघ के विघटन के पश्चात शीत युद्ध का अंत हो गया था। परिणामस्वरूप अमेरिका ही महाशक्ति के रूप में बचा अर्थात संसार एक ध्रुवीय हो गया। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न किया जाने लगा कि गुटनिरपेक्षता का उद्देश्य शीतयुद्ध के संदर्भ में हुआ था और आज शीत युद्ध का अंत हो जाने के कारण गुटनिरपेक्षता की कोई प्रासंगिकता नहीं रही है, किन्तु ऐसे लोगों का विचार उचित नहीं है क्योंकि विश्व राजनीति में गुट-निरपेक्षता अपना महत्व स्थाई रूप में धारण कर चुका है। इसके महत्व एवं भूमिका के संदर्भ में निम्नलिखित बातें देखि या सुनी जा सकती है:

  1. आज भी बहुसंख्यक गुट-निरपेक्ष राष्ट्र आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं और विकसित राष्ट्रों तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा उनका नव-औपनिवेशिक शोषण किया जा रहा है। इस स्थिति से उन्हें बचाने के लिए यह अनिवार्य है कि विकसित एवं विकासशील देशों के बीच सार्थक वार्ता के लिए दबाव डाला जाए और 'गुटनिरपेक्ष आंदोलन' द्वारा विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग मज़बूत एवं सक्रिय किया जाए।
  2. गुट निरपेक्षता स्वतंत्र हुए देशों के लिए एक जुड़ाव का माध्यम हैं और यदि ये देश एक साथ आ जाएँ तो यह एक बहुत बड़ी शक्ति का रूप ले सकता हैं।
  3. आज विश्व के राष्ट्रों के समक्ष आतंकवाद, नि:शस्त्रीकरण, मानवाधिकार एवं पर्यावरण जैसी अनेक समस्या चुनौतियों के रूप में विराजमान है। इन सबके समाधान के लिए भी इस आंदोलन के मंच को अपनाना होगा।
  4. गुट-निरपेक्ष आंदोलन का महत्व इस बात से भी रहा हैं की यह एक ऐसा आंदोलन रहा है जो विश्व भर में मौजूदा असमानताओं से निपटने के लिए एक वैकल्पिक विश्व-व्यवस्था बनाने के संकल्प पर टिका रहा हैं।

उपरोक्त सभी विवरणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकला जा सकता हैं कि 'गुट-निरपेक्ष आंदोलन' कि प्रासंगिकता आज भी कम नहीं हुई हैं।


शीतयुद्ध के दौरान भारत की अमरीका और सोवियत संघ के प्रति विदेश नीति क्या थी? क्या आप मानते हैं कि इस नीति ने भारत के हितों को आगे बढ़ाया?


गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता के रूप में शीतयुद्ध के दौर में भारत ने दो स्तरों पर अपनी भूमिका निभाई। शीतयुद्ध के दौरान भारत की अमरीका व सोवियत संघ के प्रति विदेश नीति दोनों गुटों में शामिल न होने की रही थी जिसके कारण भारत की विदेश नीति को 'गुट निरपेक्षता' की नीति कहा जाता है।

भारत की नीति न तो नकारात्मक थी और न ही निष्क्रियता की थी। नेहरू ने विश्व को याद दिलाया कि गुटनिरपेक्षता कोई 'पलायन' की नीति नहीं है। इसके विपरीत, भारत शीतयुद्धकालीन प्रतिद्वंदिता की जकड़ ढीली करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मामलों में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करने के पक्ष में था। भारत ने दोनों गुटों के बीच मौजूद मतभेदों को कम करने की कोशिश की और इस तरह उसने इन मतभेदों को पूर्णव्यापी युद्ध का रूप लेने से रोका।

कुछ लोगों का तर्क यह रहा है कि यह नीति अंतर्राष्ट्रीयता का एक उदार आदर्श है जो भारतीय हितों के साथ मेल नहीं खाती। यह तर्क ठीक नहीं है। यह गुट-निरपेक्षता की नीति भारत के लिए हितकारी रही है जिन्हें निम्नलिखित तर्कों से स्पष्ट किया जा सकता हैं:

  1. भारत अपनी गुट निरपेक्षता की नीति के कारण ही ऐसे अंतर्राष्ट्रीय फैसले लेने में सफल रहा, जो उसके हितो की पूर्ति में सहायक रहे न कि किसी सैनिक गुट या इन देशों की।
  2. भारत को हमेशा दोनों गुटों या देशों से लाभ मिला है, क्योंकि दोनों देश भारत को अपने करीब लाना चाहते थे। यदि कोई एक महाशक्ति भारत पर दबाव बनाना चाहती थी तो दूसरी महाशक्ति भारत की सहायता के लिए तैयार थी। इसका प्रथम लाभ भारत को यह था कि दोनों में से किसी ने भी उस पर दबाव नहीं बनाया तथा दोनों ही महाशक्तियाँ भारत के प्रति चिंतित रहीं।


महाशक्तियाँ छोटे देशों के साथ सैन्य गठबंधन क्यों रखती थीं? तीन कारण बताइए?


महाशक्तियों द्वारा छोटे देशों के साथ सैन्य गठबंधन रखें के तीन कारन निम्नलिखित थे:

  1. महाशक्तियाँ छोटे देशों के भू-भाग को अपने सैनिक साधनों के रूप में प्रयोग करना चाहती थीं। इनमें विरोधी देशों पर आक्रमण करने के लिए अपने सैनिक अड्डे बनाना तथा सैनिक जासूसी करना महत्त्वपूर्ण था।
  2. महाशक्ति छोटे देशों से सैन्य गठबंधन करके युद्ध में व युद्ध की सामग्री पर होने वाले खर्च को छोटे-छोटे देशों में बाँटकर अपने खर्च के बोझ को हल्का करना चाहती थी।
  3. महाशक्ति छोटे देशों से सैन्य गठबंधन करके उन देशों के महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों जैसे खनिज व तेल आदि पदार्थों को अपने हित में प्रयोग करना चाहती थी।


गुट-निरपेक्ष आंदोलन को तीसरी दुनिया के देशों ने तीसरे विकल्प के रूप में समझा। जब शीतयुद्ध अपने शिखर पर था तब इस विकल्प ने तीसरी दुनिया के देशों के विकास में कैसे मदद पहुँचाई?


द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब शीत युद्ध अपने चरम पर था तब गुट निरपेक्ष आंदोलन के रूप में एक नई धारणा उभरकर सामने आई।

गुटनिरपेक्ष देश शीतयुद्ध के दौरान महज करने वाले देश भर नहीं थे उन्हें 'अल्प विकसित देशों' का दर्जा भी मिला था।  उसी वक्त पूरी दुनिया को तीन भागो में विभाजित कर दिया गया।

  1. पहली दुनिया (पूँजीवाद गुट)
  2. दूसरी दुनिया (साम्यवादी गुट)
  3. तीसरी दुनिया (अल्प-विकसित व उपनिवेशक गुट)

इन देशों के सामने मुख्य चुनौती आर्थिक रूप से और ज्यादा विकास करने तथा अपनी जनता को गरीबी से उबारने की थी। नव-स्वतंत्र देशों की आजादी के लिहाज़ से भी आर्थिक विकास महत्त्वपूर्ण था। बगैर टिकाऊ विकास के कोई देश सही मायनों में आजाद नहीं रह सकता। उसे धनी देशों पर निर्भर रहना पड़ता। इसमें वह उपनिवेशक देश भी हो सकता था जिससे राजनीतिक आजादी हासिल की गई।

इसी समझ से नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की धारणा का जन्म हुआ। 1972 में इस सन्दर्भ में सयुंक्त राष्ट्रसंघ के व्यापर और विकास से संबंधित सम्मलेन में 'टुवार्ड्स अ न्यू ट्रेड पालिसी फॉर डेवलपमेंट' शीर्षक से एक रिपोर्ट तैयार की गई, जिसमें तीसरे दुनिया के देशों के विकास के लिए निम्नलिखित सुझावों पर बल दिया गया:

  1. अल्प विकसित देशों को अपने उन प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण प्राप्त होगा जिनका दोहन पश्चिम के विकसित देश करते हैं।
  2. अल्प विकसित देशों की पहुँच पश्चिमी देशों के बाजार तक होगी; वे अपना सामान बेच सकेंगे और इस तरह गरीब देशों के लिए यह व्यापार फायदेमंद होगा।
  3. पश्चिमी देशों से मंगायी जा रही प्रौद्योगिकी की लागत कम हो जाएगी।
  4. अल्प विकसित देशों की अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थानों में भूमिका बढ़ेगी।

अत: यह कहा जा सकता हैं की गुट निरपेक्षता का स्वरुप धीरे धीरे बदल रहा था और अब इसमें आर्थिक मुद्दों को अथिक महत्व दिया जाने लगा था। उपरोक्त सभी वर्णों से यह बात स्पष्ट हो जाती है की गुट-निरपेक्षता ने तीसरी दुनिया के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं।


गुटनिरपेक्ष आंदोलन अब अप्रासंगिक हो गया है क्या आप इस कथन से सहमत है उदाहरण सहित स्पष्ट करो?

इसके साथ ही किसी पावर ब्लॉक के पक्ष या विरोध में ना होकर निष्पक्ष रहना है। ये संगठन संयुक्त राष्ट्र के कुल सदस्यों की संख्या का लगभग 2/3 एवं विश्व की कुल जनसंख्या के 55% भाग का प्रतिनिधित्व करता है। खासकर इसमें तृतीय विश्व यानि विकासशील देश सदस्य हैं।

गुटनिरपेक्षता की नीति वर्तमान समय में कितनी प्रासंगिक है?

गुटनिरपेक्ष नीति को लाए हुए 55 से भी अधिक वर्ष बीत चुके हैं किंतु अपनी प्रगतिशीलता एवं समतावादी अवधारणा के कारण यह नीति आज भी प्रासंगिक है। वर्तमान समय में अमेरिका तथा चीन विश्व की बड़ी शक्तियों के रूप में उभर रहे हैं और ये अपने हितों के लिये विश्व के देशों को अपने-अपने पक्ष में करने का प्रयास कर रहे हैं।

19 वां गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन कब हुआ?

19वां गुट निरपेक्ष शिखर सम्मेलन (19th Non Aligned Movement Summit Baku, Azerbaijan) अजरबैजान के बाकू में 25-26 अक्टूबर को आयोजित किया गया. उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू इस सम्मलेन में भारत का प्रतिनिधित्व किया. इस वर्ष सम्मेलन का थीम 'समकालीन विश्व की चुनौतियों के समाधान के लिए बाण्डुंग सिद्धांतों का अनुपालन' था.

गुटनिरपेक्ष आंदोलन से आप क्या समझते हैं वर्तमान में इसका क्या औचित्य है?

गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) ने सदैव एक स्वतंत्र राजनीतिक पथ बनाने का प्रयास किया है, ताकि सदस्य राष्ट्र को दो महाशक्तियों के वैचारिक युद्ध के बीच फँसने से बचाया जा सके। वर्तमान में यह संगठन एक नवीन अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था बनाने का प्रयास कर रहा है।