‘अपठित’ शब्द अंग्रेज़ी भाषा के शब्द ‘unseen’ का समानार्थी है। इस शब्द की रचना ‘पाठ’ मूल शब्द में ‘अ’ उपसर्ग और ‘इत’ प्रत्यय जोड़कर बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है-‘बिना पढ़ा हुआ।’ अर्थात गद्य या काव्य का ऐसा अंश जिसे पहले न पढ़ा गया हो। परीक्षा में अपठित गद्यांश और काव्यांश पर आधारित प्रश्न पूछे जाते हैं। इस तरह के प्रश्नों को पूछने का उद्देश्य छात्रों की समझ अभिव्यक्ति कौशल और भाषिक योग्यता का परख करना होता है। Show अपठित गद्यांश अपठित गद्यांश प्रश्नपत्र का वह अंश होता है जो पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों से नहीं पूछा जाता है। यह अंश साहित्यिक पुस्तकों पत्र-पत्रिकाओं या समाचार-पत्रों से लिया जाता है। ऐसा गद्यांश भले ही निर्धारित पुस्तकों से हटकर लिया जाता है परंतु उसका स्तर, विषय-वस्तु और भाषा-शैली पाठ्यपुस्तकों जैसी ही होती है।
अपठित गद्यांश के प्रश्नों को कैसे हल करें अपठित गदयांश पर आधारित प्रश्नों को हल करते समय निम्नलिखित तथ्यों का ध्यान रखना चाहिए
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए- प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. उदाहरण (उत्तर सहित) निम्नलिखित गद्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और पूछे गए प्रश्नों के उत्तर गद्यांश के आधार पर लिखिए- 1. जिस विद्यार्थी ने समय की कीमत समझ ली, वह सफलता को अवश्य प्राप्त करता है। प्रत्येक विद्यार्थी को अपनी दिनचर्या दुनिया के सफलतम व्यक्तियों ने सदैव कार्य-व्यस्तता में जीवन बिताया है। उनकी सफलता का रहस्य समय का सदुपयोग रहा है। दुनिया में अथवा प्रकृति में हर वस्तु का समय निश्चित है।। बीत जाने पर कार्य फलप्रद नहीं होता। सूरज यदि समय पर उदय होना व अस्त होना बंद कर दे, वर्षा यदि समय पर न हो, किसान समय पर अनाज न बोए, तो कैसी स्थिति हो जाएगी? ठीक इसी प्रकार यदि विद्यार्थी समय की कीमत नहीं समझेगा तो वह सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। परीक्षा के समय यदि विद्यार्थी परिश्रम नहीं करेगा और उस दिन आराम करेगा तो उसे वांछित सफलता नहीं मिल सकती। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 2. सदियों पूर्व, अब लिटिल अंदमान और कार-निकोबार आपस में जुड़े हुए थे, तब वहाँ एक सुंदर-सा गाँव था। पास में एक सुंदर और शक्तिशाली युवक रहा करता था। उसका नाम था तताँरा। निकोबारी उसे बेहद प्रेम करते थे। तताँरा एक नेक और मददगार व्यक्ति था। सदैव दूसरों की सहायता के लिए तत्पर रहता। अपने गाँववालों को ही नहीं, अपितु समूचे द्वीपवासियों की सेवा करना अपना परम कर्तव्य समझता था। उसके इस त्याग की वजह से वह चर्चित था। सभी उसका आदर करते। वक्त-मुसीबत में उसे स्मरण करते और वह भागा-भागा वहाँ पहुँच जाता। दूसरे गाँवों में भी पर्व-त्योहारों के समय उसे विशेष रूप से आमंत्रित किया जाता। उसका व्यक्तित्व तो आकर्षक था ही, साथ ही आत्मीय स्वभाव की वजह से लोग उसके करीब रहना चाहते। पारंपरिक पोशाक के साथ वह अपनी कमर में सदैव एक लकड़ी की तलवार बाँधे रहता। लोगों का मत था, बावजूद लकड़ी की होने पर, उस तलवार में अद्भुत दैवीय शक्ति थी। तताँरा अपनी तलवार को कभी अलग न होने देता। उसका दूसरों के सामने उपयोग भी न करता। किंतु उसके चर्चित साहसिक कारनामों के कारण लोग-बाग तलवार में अद्भुत शक्ति का होना मानते थे। तताँरा की तलवार एक विलक्षण रहस्य थी। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 3. कविवर रवींद्रनाथ टैगोर को नोबल पुरस्कार मिला। देश-विदेश से बधाई के संदेश आए। उनके पड़ोसी ने उन्हें बधाई नहीं दी। टैगोर, को यह व्यवहार अखरा, लेकिन उन्होंने उसे भुलाने की कोशिश की, पर भुला नहीं पाए। बार-बार उनके सामने उसका चेहरा आ जाता था। वह जब-जब उसके बारे में सोचते क्रोध से भर जाते। अगली सुबह वह समुद्र के किनारे टहल रहे थे। सूर्य की किरणों में सागर चाँदी-सा चमक रहा था। तभी उनकी नज़र करीब ही पानी से भरे गड्ढे पर पडी। वहाँ भी सूर्य की किरणें बराबर पड़ रही थीं। तभी उनको ख्याल आया कि सूर्य ने तो सब पर बराबर किरणें फैलाई हैं। उसने तो समुद्र और गड्ढे में कोई अंतर नहीं किया। टैगोर को अपनी गलती का अहसास हुआ कि यदि दूसरा अपनी उदारता छोड़ रहा है तो वे क्यों छोड़ें? तत्काल उन्होंने उसके घर जाकर उनके चरण-स्पर्श किए। उसकी आँखें गीली हो गईं। वह बोला कि आप जैसे देवतुल्य को यह पुरस्कार मिलना ही चाहिए था। यह कहकर उसने टैगोर के चरण-स्पर्श किए। दोनों के बीच की दूरी मिट गई। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 4. हँसी शरीर के स्वास्थ्य को शुभ संवाद देने वाली है। वह एक साथ ही शरीर और मन को प्रसन्न करती है। पाचन-शक्ति बढ़ाती है, रक्त को चलाती है और अधिक पसीना लाती है। हँसी एक शक्तिशाली दवा है। एक डॉक्टर कहता है कि वह जीवन की मीठी मदिरा है। डॉक्टर यूंड कहता है कि आनंद से बढ़कर बहुमूल्य वस्तु मनुष्य के पास और नहीं है। कारलाइल एक राजकुमार था। संसार त्यागी हो गया था, वह कहता है कि जो जी से हँसता है, वह कभी बुरा नहीं होता। जी से हँसो, तुम्हें अच्छा लगेगा। अपने मित्र को हँसाओ, वह अधिक प्रसन्न होगा। शत्रु को हँसाओ तुम से कम घृणा करेगा। एक अनजान को हँसाओ, उसका दुख घटेगा। निराश को हँसाओ, उसकी आशा बढ़ेगी। एक बूढ़े को हँसाओ, वह अपने को जवान समझने लगेगा। एक बालक को हँसाओ उसके स्वास्थ्य में वृद्धि होगी। वह प्रसन्न और प्यारा बालक बनेगा। पर हमारे जीवन का उद्देश्य केवल हँसी ही नहीं है, हमको बहुत काम करने हैं। यद्यपि उन कामों में, कष्टों में और चिंताओं में एक सुंदर आंतरिक हँसी, बड़ी प्यारी वस्तु भगवान ने दी है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2 प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 5. हमारे समाज में बहुत से लोग भाग्यवादी हैं। ऐसे लोग समाज की प्रगति में बाधक होते हैं। आज तक किसी भाग्यवादी ने समाज में कोई महान कार्य नहीं किया। बड़ी-बड़ी खोजें, बड़े-बड़े आविष्कार और बड़े-बड़े निर्माण श्रम के द्वारा ही संपन्न हो सके हैं। हमारे साधन, हमारी प्रतिभा श्रम के बिना व्यर्थ है। श्रम करके ही प्रतिभासंपन्न कलाकारों ने देश को विभिन्न कलाओं से सुसज्जित किया जो आज हमारी धरोहर हैं। जब हम अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए श्रम करते हैं, तो हमारे मन को एक ऐसी तृप्ति अनुभव होती है, ऐसा आनंद मिलता है, जिसका वर्णन शब्दों से परे है। अतः हमें श्रम करना चाहिए। श्रम करने वाले लोग दीर्घजीवी होते हैं, वे समाज का उन्नयन करते हैं, वे देश का उत्थान कर विश्व में अपना व अपने देश का नाम अमर कर जाते हैं। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 6. ग्लोबल वार्मिंग की समस्या निरंतर बढ़ती जा रही है। इस समस्या का कारण मनुष्य ही है। आने वाली पीढी चैन से सांस लेने के बजाय अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करती नज़र आएगी। 21 ऐसे औद्योगिक देश हैं, जो वायुमंडल में लगभग 80 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं, जिनमें अमेरिका सर्वोपरि है। बढ़ते तापमान का दूरगामी परिणाम हमारे देश की जीवन रेखा कहलाने वाले मानसून पर दिखाई पड़ने लगा है। अब पता नहीं चलता कि वर्षा कब आएगी और कितने समय रहेगी। तापमान बढ़ने से हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने की दर तेज़ी से बढ़ रही है। इससे नदियों में ज़्यादा पानी आएगा जो बाढ़ की मुसीबत पैदा करेगा और फिर नदियाँ हमेशा के लिए सूख जाएंगी। गंगा को जीवनदान देने वाला गंगोत्री ग्लेशियर 30 मीटर सालाना की दर से सिकुड़ता जा रहा है। बरफ़ पिघलने से स्वाभाविक रूप से समुद्र के जल स्तर में वृद्धि होने लगी है, जिसकी वजह से कई टापुओं और विभिन्न तटीय देशों के डूबने का खतरा बना हुआ है। जल स्तर में बढ़ोतरी के साथ-साथ समुद्रीय जल का तापमान भी बढ़ता जा रहा है। भौगोलिक परिवर्तन के साथ-साथ ग्लोबल वार्मिंग से जैव मंडल भी काफ़ी प्रभावित हो रहा है। न सिर्फ स्थलीय और जलीय जीव-जंतुओं में बल्कि वनस्पतियों में भी कई परिवर्तन दिखाई दे रहे हैं। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 7. व्याकरण भाषा के मौखिक और लिखित दोनों ही रूपों का अध्ययन कराता है। यद्यपि इस प्रकार के अध्ययन का क्षेत्र मौखिक भाषा ही रहती है, तथापि भाषा के लिखित रूप को भी अध्ययन का विषय बनाया जाता है। भाषा और लिपि के परस्पर संबंध से कभी-कभी यह भ्रांति भी फैल जाती है कि दोनों अभिन्न हैं। वस्तुतः भाषा लिपि के बिना भी रह सकती है। आदिम जातियों की नई भाषाएँ केवल मौखिक रूप में ही व्यवहृत हैं, उनके पास कोई लिपि नहीं है। पर लिपि भाषा के बिना नहीं रह सकती। किसी भी भाषा विशेष के लिए परंपरा के आधार पर एक विशेष लिपि रूढ़ि हो जाती है। जैसे हिंदी के लिए देवनागरी लिपि। लिखित भाषा स्थायी होती है। इसी के आधार पर मनुष्य की उन्नति और विकास यात्रा का भी ज्ञान होता है। इसीलिए भाषा को मानव की सांस्कृतिक चेतना की संवाहिका भी कहा जाता है। भाषा और समाज परस्पर अभिन्न माने जाते हैं, क्योंकि भाषा के अभाव में समाज संभव ही नहीं हो सकता है। समाज में परस्पर अभिव्यक्ति का साधन भाषा ही होती है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 8. एक ऋषि ने अपने शिष्य को उपदेश देते हुए कहा था-हे पुत्र! तू माता की आज्ञा का पालन कर। तू माँ को अपने दुराचरण से शोक संतप्त मत कर। माँ को सदा अपने निकट रख और उसके सामीप्य में रहकर शुद्ध मन और आचरण से उसकी सेवा कर। भारतीय संस्कृति में माता-पिता के चरणों में स्वर्ग होने की बात कही गई है। वहाँ कहा गया है कि जैसे भूमि के समान कोई दान नहीं, सत्य के समान कोई धर्म नहीं वैसे ही माता-पिता की सेवा के समान कोई पुण्य नहीं है। माता-पिता ही देवता हैं। सबसे पहले उनकी पूजा करनी चाहिए। किंतु नई पीढ़ी माता-पिता की सेवा का अर्थ भूल गई है। वृद्ध माता-पिता वृद्धाश्रम में जीवन बिताने को विवश हो गए हैं। यह ठीक है कि नई पीढ़ी का अपना अलग जीवन है, जीवन के प्रति उनका अपना दृष्टिकोण है, किंतु माता-पिता का ध्यान रखना भी तो उनका नैतिक और सामाजिक दायित्व है। वृद्ध माता-पिता को भव्य भवन या मूल्यवान संसाधनों की आवश्यकता नहीं होती। सुख-सुविधा के भौतिक साधनों से जो सुख प्राप्त होता है वह बाहरी और क्षणिक होता है। उनको तो अपनों से निकटता चाहिए और अपनत्व चाहिए। इसी से उन्हें आंतरिक खुशी और संतोष मिलेगा। वृद्ध माता-पिता को यह सुख और संतोष देना-हज़ारों वर्षों की तपस्या से भी बढ़कर है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 9. उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ से जब पूछा गया कि आपकी शहनाई में बनारस किस तरह मौजूद है? उनका जवाब था-“हमने कुछ नहीं पैदा किया है। जो हो गया, वह उसका करम है। हाँ, जो लेकर हम चले हैं अपनी शहनाई में, वह बनारस का अंग है। किसी भी चीज़ में जल्दबाज़ी नहीं करते, बनारसवाले। बड़े इत्मीनान से बोल लेकर चलते हैं। एक महाराज जी थे, वे बालाजी घाट के पास मंदिर में रोज सुबह की आरती में करीब साढ़े चार-पाँच बजे बड़ा सुंदर पद गाते थे : ‘किरपा करो महाराज मो पे।’ हम रियाज़ के लिए जाएँ वहाँ, तो रोज सुनते थे। फिर ठीक वही बंदिश, जब वह गाकर बंद करें, तब अपनी शहनाई से निकालते थे। तो वही ठेठपन आया हमारे बजाने में। मंदिर का घंटा-घड़ियाल भी कानों में पड़ता था और गंगा-पुजैया का बियाह, सहाना भी गज़ब जान पड़ता था। हम आज भी जितना कर पाते हैं वो सब यही बनारस की देन है। उसकी गड़बड़ी भी है अगर कुछ तो उसमें भी एक अलग अंदाज़ है। सबकी अपनी-अपनी खूबी और चलन-बढ़त का अलग-अलग अंदाज़ होता है। अब जब हम जिंदगीभर यही मंगलागौरी और पक्का महाल में रियाज़ करते जवान हुए हों, तो कहीं-न-कहीं से बनारस का शहद तो ‘टपकेगा ही हमारी शहनाई में’। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 10. मैंने ‘अतिथि’ शब्द के समानांतर एक दूसरा शब्द गढ़ा है- असमय’। अतिथि का अर्थ है जिसकी तिथि न हो, अर्थात् आने का दिन निश्चित न हो, मतलब कि जो बिना पूर्व सूचना के अकस्मात् टपक पड़े। ठीक उसी तरह ‘असमय’ का अर्थ कीजिए कि जिसका समय न हो जब चाहे आ जाए और आने में ही नहीं जाने में भी ‘असमय’ हो। तात्पर्य की कब तक रहेगा, कब जाएगा इसका कोई ठिकाना नहीं। मैं अतिथियों से नहीं घबराता पर ‘असमय’ से ज़रूर काँपता हूँ, कारण कि मैं कामकाजी आदमी हूँ। इस युग में कौन कामकाजी नहीं है। जिसको देखिए वही अस्त-व्यस्तता के मारे परेशान है। आजकल बड़प्पन दिखाने के जो कई साधन हैं, उनमें एक यह कहना भी कि ‘क्या बताऊँ साहब, खाना खाने तक की फुरसत नहीं मिलती, नींद और चैन हराम है।’ बात बहुत गलत हो, ऐसा नहीं। जिसको देखिए, चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही हैं, नाक की सीध में दौड़ा जा रहा है। जिधर नज़र डालिए उधर ही भाग-दौड़। आदमी ने मशीनें इज़ाद की, आराम के लिए, मगर मकड़े की तरह वह उन मशीनों में उलझकर अपनी आज़ादी खो बैठा, अपनी आदमियत खो बैठा। बाल-बच्चों के बीच इत्मीनान से बैठने का, दिल बहलाने का समय नहीं मिलता। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 11. कौसानी की गिनती कुमाऊँ के सबसे सुंदर पर्यटन स्थलों में की जाती है। यह 1890 मी. ऊँचाई पर बसा कस्बा है, जहाँ से हिमालय का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। कौसानी में पहाड़ों की चोटियों पर सूर्य को डूबते देखना एक प्राकृतिक अनुभव है। यहाँ सूर्यास्त देखने की सबसे अच्छी जगह है-अनासक्ति आश्रम। अनासक्ति आश्रम महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए बनाया गया था, जिन्होंने 1929 में इस स्थान की यात्रा की थी और इसके प्राकृतिक सौंदर्य से अभिभूत होकर इसे ‘भारत का स्विट्जरलैंड’ की संज्ञा दी थी। यह वही स्थान है, जहाँ उन्होंने अपनी पुस्तक अनासक्ति योग लिखी थी। आश्रम में गांधी जी के जीवन से जुड़ी पुस्तकों और फ़ोटोग्राफ़्स का अच्छा संग्रह है और एक छोटी-सी बुकशॉप भी है। यहाँ एक छोटा-सा प्रार्थना कक्ष भी है जहाँ हर दिन सुबह और शाम प्रार्थना सभा आयोजित होती है। इस जगह के बारे में गांधी जी ने लिखा है’इन पहाड़ों में प्राकृतिक सौंदर्य की मेहमाननवाजी के आगे मानव द्वारा किया गया कोई भी सत्कार फीका है। मैं आश्चर्य के साथ सोचता हूँ कि इन पर्वतों के सौंदर्य और जलवायु से बढ़कर किसी और जगह का होना तो दूर, इनकी बराबरी भी संसार का कोई सौंदर्य स्थल नहीं कर सकता है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 12. यह घटना सन् 1899 की है। उन दिनों कोलकाता में प्लेग हुआ था शायद ही कोई ऐसा घर बचा था जहाँ यह बीमारी न पहुँची हो। ऐसी विकट स्थिति में भी स्वामी विवेकानंद और उनके कई शिष्य रोगियों की सेवा-शुश्रूषा में जुटे हुए थे। वे अपने हाथों से नगर की गलियाँ और बाज़ार साफ़ करते थे और जिस घर में प्लेग का कोई मरीज होता था, उन्हें दवा आदि देकर उनका उपचार करते थे। उसी दौरान कुछ लोग स्वामी विवेकानंद के पास आए। उनका मुखिया बोला, ‘स्वामी जी, इस धरती पर पाप बहुत बढ़ गया है, इसलिए प्लेग की महामारी के रूप में भगवान लोगों को दंड दे रहे हैं। पर आप ऐसे लोगों को बचाने का यत्न कर रहे हैं। ऐसा करके आप भगवान के कार्यों में बाधा डाल रहे हैं।’ मंडली के मुखिया की ऐसी बातें सुनकर स्वामी जी गंभीरता से बोले, ‘सबसे पहले तो मैं आप सब विद्वानों को नमस्कार करता हूँ।’ इसके बाद स्वामी जी बोले, ‘आप सब यह तो जानते ही होंगे कि मनुष्य इस जीवन में अपने कर्मों के कारण कष्ट और सुख पाता है। ऐसे जो व्यक्ति कष्ट से पीड़ित है और तड़प रहा है, यदि दूसरा व्यक्ति उसके घावों पर मरहम लगा देता है तो वह स्वयं ही पुण्य का अधिकारी बन जाता है। अब यदि आपके अनुसार प्लेग से पीड़ित लोग पाप के भागी हैं तो हमारे कार्यकर्ता इन लोगों की मदद कर रहे हैं। हमारे जो कार्यकर्ता इन लोगों की मदद कर रहे हैं वे तो पुण्य के भागी बन रहे हैं। बताइए कि इस संदर्भ में आपको क्या कहना है ?’ उनकी बात सुनकर सभी लोग भौंचक्के रह गए और चुपचाप सिर झुकाकर वहाँ से चले गए। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 13. मित्रता के बिना संसार शून्य है। यह मायावी संसार के प्रेमपूर्वक सहज भोगने का एक माध्यम है। हमारे घर में धन-धान्य और समस्त ऐश्वर्य विद्यमान हों पर घर के सदस्यों के बीच मित्रवत् संबंध नहीं हैं तो वह ऐश्वर्य किसी काम का नहीं। घोर गोपनीय बात, अत्यंत कठिन संकटपूर्ण परिस्थिति और अपार प्रसन्नता में मनुष्य सगे-संबंधियों का साथ छोड़ सकता है, किंतु मित्र का नहीं। राजद्वार से श्मशान तक में भी मित्रता अटूट रहती है। द्रोह, छल, कपट मन में आता नहीं, प्राण देकर मित्रता का निर्वाह करता है। मित्रों में परस्पर विश्वास की भावना अधिक रहती है। जो लोग मित्र के दुख से दुखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुख को धूलि-कण के समान और मित्र के धूल-कण के समान दुख को सुमेरु पर्वत के समान जाने, जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलाए। उनके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपाए। लेन-देन में मन में शंका न रखे। अपनी शक्ति के अनुसार सदा मित्र का हित ही करता रहे। दूसरी ओर जो सामने तो कोमल और मधुर वचन बोलता है और पीछे अहित करता है तथा मन में कुटिलता रखता है। हे भाई! जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को त्यागने में ही भलाई है। वे मानव की मित्रता के विश्वासी नहीं। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 14. सरकार अखबारों में तो महँगाई कम करने की बात करती है, पर वह भी महँगाई बढ़ाने में किसी से कम नहीं है। सरकारी उपक्रम भी अपने उत्पादों के दाम बढ़ाते रहते हैं। वे अपने उद्देश्य को भुला बैठते हैं कि उन्हें इसलिए शुरू किया गया है कि भावों पर नियंत्रण कर सकें। उत्पादन के नाम पर सरकार लंबी-चौड़ी योजनाएँ बनाती है, पर उनका क्रियान्वयन पूरी तरह से नहीं हो पाता। इस जानलेवा महँगाई ने आम लोगों की कमर तोड़कर रख दी है। अब उन्हें दो समय का भोजन जुटाना तक कठिन हो गया है। आवास-समस्या पर भी महँगाई की मार पड़ी है। शहरों में दो कमरों का फ़्लैट चार हज़ार रुपए महीने से कम किराए पर नहीं मिल पाता। कपड़ों का तो कुछ पूछिए ही नहीं। यह सही है कि हमारी आवश्यकताएँ बढ़ती जा रही हैं और इसने भी महँगाई को बढ़ाने में योगदान दिया है, पर विकाशील राष्ट्र में ऐसा होता ही है। महँगाई के लिए अंधाधुंध बढ़ती जनसंख्या भी उत्तरदायी है। इस पर हमें नियंत्रण करना होगा। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 15. जब कोई युवा अपने घर से बाहर निकलकर बाहरी संसार में अपनी स्थिति जमाता है, तब पहली कठिनता उसे मित्र चुनने में यही हेल-मेल बढ़ते-बढ़ते मित्रता के रूप में परिणत हो जाता है। मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर उसके जीवन की सफलता निर्भर हो जाती है, क्योंकि संगति का बड़ा भारी गुप्त प्रभाव हमारे आचरण पर पड़ता है। हम लोग ऐसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरंभ करते हैं, जबकि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है। हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते हैं, जिसे जो जिस रूप में चाहे, उस रूप में ढाले, चाहे राक्षस बनाए, चाहे देवता। ऐसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है, जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प के हैं, क्योंकि हमें उनकी हर बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है। पर ऐसे लोगों का साथ करना और भी बुरा है, जो हमारी ही बात को ऊपर रखते हैं, क्योंकि ऐसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई नियंत्रण रहता है और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 16. महानगरों में भीड़ होती है, भीड़ उसे कहते हैं, जहाँ लोगों का जमघट होता है। लोग तो होते हैं, लेकिन उनकी छाती में हृदय नहीं होता। सिर होते हैं, लेकिन उनमें विचार और बुद्धि नहीं होती। हाथ होते हैं; लेकिन उन हाथों में पत्थर होते हैं, विध्वंस के लिए। वे हाथ निर्माण के लिए नहीं होते। यह भीड़ एक अंधी गली से दूसरी अंधी गली की ओर जाती है, क्योंकि भीड़ में होने वाले लोगों का आपस में कोई रिश्ता नहीं होता। वह एक-दूसरे के कुछ भी नहीं लगते। सारे अनजान लोग इकट्ठे होकर विध्वंस करने में एक-दूसरे का साथ देते हैं, क्योंकि जिन इमारतों, बसों और रेलों में तोड़-फोड़ का काम करते हैं, वे उनकी नहीं होती और न ही उनमें सफर करने वाले उनके अपने होते हैं। महानगरों में लोग एक ही बिल्डिंग में पडोसी की तरह रहते हैं, लेकिन यह पड़ोस भी संबंध रहित होता है। पुराने ज़माने में दही जमाने के लिए जामन माँगने पड़ोस में लोग जाते थे, अब हर ‘फ़्लैट’ में फ्रिज है, इसलिए जाने की ज़रूरत नहीं रही। सारा पड़ोस, सारे संबंध इस फ्रिज में ‘फ्रीज़’ हो गए हैं। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 17. यदि हमारे वृक्ष स्वस्थ हैं तो निश्चित मानिए हम भी स्वस्थ हैं। हमें तो प्राणवायु उन्हीं से मिलती है। हम कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं या उन्हें देते हैं और वे बदले में ऑक्सीजन देते हैं। जो हमारे जीवन की हर गतिविधि के लिए आवश्यक है। हमारे स्वास्थ्य का हर बिंदु ऑक्सीजन की उपलब्धता से अनुप्राणित है भले ही यह बात हमें कल्पना लोक की लगती हो, लेकिन यह वैज्ञानिक प्रामाणिकता भी रखती है, इसमें रत्ती भर भी संदेह करने की गुंजाइश नहीं है। हम यदि अपने आस-पास खड़े वृक्षों की रक्षा का जिम्मा अपने कंधों पर उठा लें, तो निश्चित मानिए हमने अपने स्वास्थ्य को लंबे समय तक स्वस्थ रखने की गारंटी प्राप्त कर ली है। वृक्षों की रक्षा में ही हमारे जीवन की सुरक्षा का राज छिपा है। कहा जाता है “एक स्वस्थ मन हज़ारों सोने के सिंहासनों से कहीं अधिक मूल्यवान होता है, क्योंकि स्वस्थ मन ही समाज और स्वस्थ देश की रचना करने में समर्थ है। कुत्सित विचारों वाले लोग अपना जीवन तो चला सकते हैं लेकिन समाज और देश को नहीं चला सकते। करोड़ों परिवारों के सुनहरे भविष्य के बारे में वही चिंतन, मनन और सृजन कर सकता है जो व्यर्थ के लालच, लोभ व षड्यंत्रों से मुक्त हो और जिस पर किसी भी प्रकार का कोई अनुचित दबाव न हो।” प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 18. अनुशासनहीनता के अनेक कारण हैं। इन कारणों पर विचार कर उन्हें दूर करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए, जिससे विद्यार्थियों में अनुशासित जीवन जीने की कला का विकास हो। कई छात्र वैयक्तिक कारणों से अनुशासनहीनता का शिकार हो जाते हैं। ऐसे छात्र दिशाहीन जीवन जीते हैं। वे न तो समय पर अपना गृहकार्य करते हैं और न ही कार्य विशेष में उनकी रुचि होती है। इससे वे अन्य छात्रों से पिछड़ जाते हैं और कई बार अनुशासनहीन कार्यों में लिप्त हो आत्महीनता का परिचय देते हैं। पारिवारिक वातावरण तथा परिस्थितियाँ भी अनुशासनहीनता का कारण बन जाती हैं। माता-पिता का अनुचित दबाव, बाल मनोविज्ञान के प्रति उदासीनता आदि से भी छात्रों में अनुशासनहीनता को बढ़ावा मिलता है। आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक कारणों से भी छात्रों में अनुशासनहीनता को गति मिलती है। वर्तमान शिक्षा पद्धति भी छात्रों में अनुशासनहीनता के लिए कुछ हद तक दोषी है, क्योंकि इसमें छात्रों की व्यक्तिगत रुचि को नज़रअंदाज कर दिया जाता है और परीक्षाओं तथा उनमें प्राप्त अंकों को विशेष महत्त्व दिया जाता है। इससे कई छात्रों की प्रतिभा दबकर रह जाती है। कई बार बहुत अच्छे अंक प्राप्त कर भी छात्र अपनी इच्छानुरूप संस्थाओं में प्रवेश नहीं ले पाते और कम प्रतिभावान तथा कम अंक प्राप्त छात्र कई अन्य कारणों से प्रवेश प्राप्त कर लेते हैं। भाई-भतीजावाद, बेरोजगारी एवं भविष्य के प्रति अनास्था भी अनुशासनहीनता का कारण बन जाते हैं। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 19. जब-जब समाज पथभ्रष्ट हुआ है, तब-तब युग सर्जक की भूमिका का निर्वाह शिक्षकों ने बखूबी किया है। आज की दशा में भी जीवन मूल्यों की रक्षा के गुरुतर दायित्व शिक्षक पर ही आ जाता है। वर्तमान स्थिति में जीवनमूल्यों के संस्थापन का भार शिक्षकों पर पहले की अपेक्षा अधिक हो गया है, क्योंकि आज का परिवार बालक के लिए सदगुणों की पाठशाला जैसी संस्था नहीं रह गया है जहाँ से बालक एक संतुलित व्यक्तित्व की शिक्षा पा सके। शिक्षक, विद्यालय परिसर में छात्र के लिए आदर्श होता है। शिक्षक के हर क्रियाकलाप पर छात्रों की दृष्टि रहती है। प्राथमिक स्तर के छात्र तो अपने शिक्षकों के निर्देश को ब्रह्मवाक्य मानकर उनका अनुसरण करते हैं। यहाँ तक कि अपने माता-पिता की तुलना में शिक्षकों को अधिमान देते हैं। इस वर्ग के छात्र किसी अन्य की बातों को उतना महत्त्व नहीं देते जितना कि अपने शिक्षकों की बातों को वे महत्त्वपूर्ण समझते हैं। प्राथमिक स्तर के छात्रों का चित्त निर्मल होता है। यही काल छात्रों में जीवन मूल्यों के संस्थापन का उत्तम काल है। इस अवस्था के छात्रों के स्वच्छ एवं निर्विकार मन पर शिक्षक जो भाव अंकित करना चाहें, कर सकते हैं। इस समस्या का मन पर पड़ने वाला प्रभाव स्थायी होता है। अतः इस स्तर पर शिक्षण कार्य में कार्यरत शिक्षकों को अपने छात्रों को छोटी-छोटी नीतिपरक कथाएँ सुनाकर उनमें जीवन मूल्यों का बीजारोपण करना चाहिए। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 20. विश्व के प्रायः सभी धर्मों में अहिंसा के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। भारत के सनातन हिंदू धर्म और जैन धर्म के सभी ग्रंथों में अहिंसा की विशेष प्रशंसा की गई है। ‘अष्टांग योग’ के प्रवर्तक पतंजलि ऋषि ने योग के आठों अंगों में प्रथम अंग ‘यम’ के अंतर्गत ‘अहिंसा’ को प्रथम स्थान दिया है। इसी प्रकार ‘गीता’ में भी अहिंसा के महत्त्व पर जगह-जगह प्रकाश डाला गया है। भगवान महावीर ने अपनी शिक्षाओं का मूलाधार अहिंसा को बताते हुए ‘जियो और जीने दो’ की बात कही है। अहिंसा मात्र हिंसा का अभाव ही नहीं, अपितु किसी भी जीव का संकल्पपूर्वक वध नहीं करना और किसी जीव या प्राणी को अकारण दुख नहीं पहुँचाना हैं। ऐसी जीवन-शैली अपनाने का नाम ही ‘अहिंसात्मक जीवन-शैली’ है। अकारण या बात-बात में क्रोध आ जाना हिंसा की प्रवृत्ति का एक प्रारंभिक रूप है। क्रोध मनुष्य को अंधा बना देता है; वह उसकी बुद्धि का नाश कर उसे अनुचित कार्य करने को प्रेरित करता है, परिणामतः दूसरों को दुख और पीड़ा पहुँचाने का कारण बनता है। सभी प्राणी मेरे लिए मित्रवत् हैं। मेरा किसी से भी बैर नहीं है, ऐसी भावना होने पर अहं जनित क्रोध समाप्त हो जाएगा और हमारे मन में क्षमा का भाव पैदा होगा। क्षमा का यह उदात्त भाव हमें हमारे परिवार से सामंजस्य कराने व पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा देने में अहम् भूमिका निभाता है। हमें ईर्ष्या तथा द्वेष रहित होकर लोभवृत्ति का त्याग करते हुए संयमित खान-पान तथा व्यवहार एवं क्षमा की भावना को जीवन में उचित स्थान देते हुए अहिंसा का एक ऐसा जीवन जीना है कि हमारी जीवन-शैली एक अनुकरणीय आदर्श बन जाए। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 21 लोगों को यह कहते सुना जाता है कि एक और एक दो होते हैं, परंतु एक लोकोक्ति है ‘एक और एक ग्यारह’-इस कथन का अभिप्राय है कि एकता में शक्ति होती है। जब दो व्यक्ति एक साथ मिलकर प्रयास करते हैं तो उनकी शक्ति कई गुनी हो जाती हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज अलग-अलग इकाइयों का समूहबद्ध रूप है, जिसमें हर इकाई समाज को शक्तिशाली बनाती है। व्यक्ति रूप में एक व्यक्ति का कोई महत्त्व नहीं, परंतु समष्टि रूप में वह समाज की एक इकाई है। बाढ़ से बचने के लिए जब एक अंधे और लँगड़े में सहयोग हुआ तो अंधे को लँगड़े की आँखें तथा लँगड़े को अंधे की टाँगें मिल गईं और दोनों बच गए। एकता में बड़ी शक्ति है। जो समाज एकता के सूत्र में बँधा नहीं रहता, उसका पतन अवश्यंभावी है। भारत की परतंत्रता इसकी फूट का परिणाम थी। जब भारतवासियों ने मिलकर आज़ादी के लिए संघर्ष किया तो अंग्रेजों को यहाँ से भागना पड़ा। गणित में शून्य के प्रभाव से अंक दस गुने हो जाते हैं। अतः समाज का हर व्यक्ति सामूहिक रूप से समाज की रीढ़ होता है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 22. आज भी भारत में साक्षरता का प्रतिशत लक्ष्य से काफी कम है। लोगों को शिक्षा का महत्त्व समझाना है। यदयपि काफ़ी लोग शिक्षा की आवश्यकता को समझ गए हैं, पर एक पूरी पीढ़ी के बदलाव के बाद ही साक्षरता का लक्ष्य पाया जा सकेगा। सरकारी प्रचार-माध्यमों से लोगों को शिक्षा का महत्त्व बताया जा रहा है, पर आर्थिक पिछड़ापन इसमें बाधक बन जाता है। भारत में प्रजातंत्र की स्थापना की गई है और प्रजातंत्र की सफलता के लिए लोगों का शिक्षित होना नितांत आवश्यक है। शिक्षा के अभाव में नागरिक अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों का सफल निर्वाह नहीं कर पाते। शिक्षा का महत्त्व जानना अति आवश्यक है। शिक्षा ही व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करती है। शिक्षा व्यक्ति का दृष्टिकोण व्यापक बनाती है। अशिक्षित व्यक्ति न ही अपने अधिकारों को जानता है और न कर्तव्यों के प्रति सचेष्ट होता है। शिक्षित व्यक्ति ही लोकतंत्र का सही अर्थ समझते हैं। अशिक्षितों का लोकतंत्र तो भेड़चाल मात्र होता है। अब सरकार भी साक्षरता अभियान चलाकर अधिक से अधिक लोगों को शिक्षित बनाने का भरपूर प्रयास कर रही है। हमें यह बात समझनी चाहिए कि शिक्षा से हम लोगों का जीवन ही उन्नत होगा। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 23. आज समाज में नारी की स्थिति में पुराने समय से काफी बदलावा आया है। प्राचीन काल में नारी को देवी मानकर पूजनीय बताया गया, पर मध्य काल में नारी की काफ़ी दुर्दशा हुई। उसे घर की चारदीवारी तक सीमित कर दिया गया। उसे भोग की वस्तु बना दिया। पुरुष वर्ग ने उसे अपने कठोर नियंत्रण में रखने का भरपूर प्रयास किया। यह एक प्रकार से नारी का शोषण था। पाश्चात्य जगत में नारी स्वातंत्र्य की लहर चली। नारी मुक्ति के कई आंदोलन चलाए गए। धीरे-धीरे यह प्रभाव भारत में भी आया। गत एक दशक में नारी की स्थिति में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन लक्षित हो रहे हैं। अब की नारी पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलकार सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ रही है। वह तरक्की की सभी मंजिलें छू लने की ओर निरंतर अग्रसर है। अब वह घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर अपनी स्वतंत्र सत्ता का अहसास करा रही है। अब उसका कार्यक्षेत्र केवल घर तक सीमित नहीं रह गया है। नारी की स्थिति बदलने में अनेक तत्वों ने बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। सबसे पहला कारण है-नारी शिक्षा के प्रति चेतना एवं उसका प्रसार। पहले अधिकांश नारियाँ अशिक्षित थीं। अतः वे अपनी स्थिति के बदलाव के बारे में सोच ही नहीं पाती थीं। सरकार की ओर से लड़कियों की शिखा को काफ़ी प्रोत्साहन दिया गया है। अतः साक्षरता प्रतिशत काफ़ी बढ़ गया है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 24. महात्मा गांधी अपना काम अपने हाथ करने पर बल देते थे। वह प्रत्येक आश्रमवासी से आशा करते थे कि वह अपने शरीर से संबंधित प्रत्येक कार्य, सफ़ाई तक स्वयं करेगा। उनका कहना था कि जो श्रम नहीं करता है वह पाप करता है और पाप का अन्न खाता है। ऋषि-मुनियों ने कहा है-बिना श्रम किए जो भोजन करता है वह वस्तुत: चोर है। महात्मा गांधी का समस्त जीवन दर्शन श्रम सापेक्ष था। उनका समस्त अर्थशास्त्र यही बताता था कि प्रत्येक उपभोक्ता को उत्पादनकर्ता होना चाहिए। उनकी नीतियों की उपेक्षा करने के परिणाम हम आज भी भोग रहे हैं। न गरीबी कम होने में आती है, न बेरोज़गारी पर नियंत्रण हो पा रहा है और न आबादी पर नियंत्रण हमारे वश की बात रही है। दक्षिण कोरिया वासियों ने श्रमदान करके ऐसे श्रेष्ठ भवनों का निर्माण किया है, जिनसे किसी को भी ईर्ष्या हो सकती है। श्रम की अवज्ञा के परिणाम का सबसे ज्वलंत उदाहरण है, हमारे देश में व्याप्त शिक्षित वर्ग की बेकारी। हमारा शिक्षित युवा वर्ग शारीरिक श्रमपरक कार्य करने से परहेज करता है। वह यह नहीं सोचता है कि शारीरिक श्रम परिणामतः कितना सुखदायी होती है। पसीने से सिंचित वृक्ष में लगने वाला फल कितना मधुर होता है। ‘दिन अस्त और मज़दूर मस्त’ इसका भेद जानने वाले महात्मा ईसा मसीह ने अपने अनुयायियों को यह परामर्श दिया था कि तुम केवल पसीने की कमाई खाओगे। पसीने टपकाने के बाद मन को संतोष और तन को सुख मिलता है, भूख भी लगती है और चैन की नींद भी आती है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 25. परिवर्तन प्रकृति का नियम है और परिवर्तन ही अटल सत्य है। अत: पर्यावरण में भी परिवर्तन हो रहा है, लेकिन वर्तमान समय में चिंता की बात यह है कि जो पर्यावरणीय परिवर्तन पहले एक शताब्दी में होते थे, अब उतने ही परिवर्तन एक दशक में होने लगे हैं। पर्यावरण परिवर्तन की इस तेज़ी का कारण है विस्फोटक ढंग से बढ़ती आबादी, वैज्ञानिक एवं तकनीकी उन्नति और प्रयोग तथा सभ्यता का विकास। पहला परिवर्तन है ओजोन की परत में कमी और विश्व के तापमान में वृद्धि। ये दोनों क्रियाएँ परस्पर संबंधित हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में सुपरसोनिक वायुयानों का ईजाद हुआ और वे ऊपरी आकाश में उड़ाए जाने लगे। उन वायुयानों के द्वारा निष्कासित पदार्थों में उपस्थित नाइट्रिक ऑक्साइड के द्वारा ओजोन परत का क्षय महसूस किया गया। यह ओजोन परत वायुमंडल के समताप मंडल या बाहरी घेरे में होती है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. अभ्यास प्रश्न निम्नलिखित गद्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए- 1. वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर, इन सबका अपना-अपना महत्त्व है। इनमें से वसंत ऋतु की शोभा सबसे निराली है। वैसे तो वसंत ऋतु फाल्गुन मास से शुरू हो जाती है लेकिन असली महीने चैत्र और वैशाख हैं। वसंत ऋतु को ऋतुराज कहते हैं, क्योंकि यह ऋतु सबसे सुहावनी, अद्भुत, आकर्षक और मन में उमंग भर देने वाली है। इस ऋतु में पेड़-पौधों, वृक्षों, लताओं पर नए-नए पत्ते निकलते हैं, सुंदर-सुंदर फूल खिलते हैं। सचमुच वसंत की दुनिया की शोभा ही निराली होती है। वसंत ऋतु प्रकृति के लिए वरदान बनकर आती है। बागों में, वाटिकाओं में, वनों में सर्वत्र नवजीवन आ जाता है। पृथ्वी पर कण-कण नए आनंद, उत्साह एवं संगीत का अनुभव करता है। ऐसा लगता है कि जैसे मूक वीणा ध्वनित हो उठी हो, बाँसुरी को होठों से लगाकर किसी ने मधुर तान छेड़ दी हो। शिशिर से ठिठुरे हुए वृक्ष मानो निद्रा से जाग उठे हों और प्रसन्नता से झूमने लगे हों। शाखाओं एवं पत्तों पर उत्साह नज़र आता है। कलियाँ अपना घूघट खोलकर अपने प्रेमी भँवरों से मिलने के लिए उतावली हो जाती हैं। चारों ओर रंग-बिरंगी तितलियों की अनोखी शोभा दिखाई देती है। प्रकृति में सर्वत्र यौवन के दर्शन होते हैं, सारा वातावरण सुवासित हो उठता है। चंपा, माधवी, गुलाब और चमेली आदि की सुंदरता मन को मोह लेती है। कोयल की ध्वनि कानों में मिश्री घोलती है। प्रश्नः 2. कड़ी मेहनत और दिन-रात भट्टे में जलती आग के बाद जब भट्ठा खुलता था तो मज़दूर से लेकर मालिक तक की बेचैन साँसों को राहत मिलती थी। भट्टे में पकी ईंटों को बाहर निकालने का काम शुरू हो गया था। लाल-लाल पक्की ईंटों को देखकर सुकिया और मानो की खुशी की इंतहा नहीं थी। खासकर मानो तो ईंटों को उलट-पुलटकर देख रही थी। खुद के हाथ की पक्की ईंटों का रंग ही बदल गया था। उस दिन ईंटों को देखते-देखते ही मानो के मन में बिजली की तरह एक ख्याल कौंधा था। इस ख्याल के आते ही उसके भीतर जैसे एक साथ कई-कई भट्टे जल रहे थे। उसने सुकिया से पूछा था, “एक घर में कितनी ईंटें लग जाती हैं?” प्रश्नः 3. संसार के समस्त जीवधारियों में मनुष्य ही सृष्टिकर्ता की अनुपम रचना है और प्रसन्नता प्रभुप्रदत्त वरदानों में सर्वश्रेष्ठ उपहार है। प्रसन्नता अन्तःकरण की विहँसती सुकोमल और निश्छल भावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ ही जीवन-पथ की असफलताओं को सफलताओं में परिवर्तित करने की अद्भुत सामर्थ्य से परिपूर्ण होती है। अनुभवी संतों और मनीषियों द्वारा प्रसन्नता को जीवन का शृंगार और मधुर भाव-भूमि पर खिला हुआ सुगंधित पुष्प और विवेक का प्रतीक माना गया है। वस्तुतः प्रसन्नचित्तता व्यक्ति का ईश्वरीय गुण है, जिसकी प्राप्ति के लिए व्यक्ति को न तो किसी बड़े धार्मिक अनुष्ठान की आवश्यकता होती है और न ही किसी विशेषज्ञ की। प्रसन्नता एक मनोवृत्ति है, जिसे दैनिक अभ्यास में लाने से अंतर्मन में छिपी उदासी और कुंठाजनित आसुरी मनोविकार नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति का जीवन प्रसन्नता से परिपूर्ण होकर आनंद से भर जाता है। प्रसन्नता चुंबकीय शक्ति संपन्न एक विशिष्ट गुण है, जो दूसरों को स्नेह, सहयोग, अपनी ओर सहज में सुलभ कराने में अत्यंत सहायक होता प्रश्नः 4. द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के पश्चात् भी स्वतंत्रता-प्राप्ति की आशा दृष्टिगोचर नहीं हुई और आज़ाद हिंद फौज़ के अनेक नेताओं पर लाल किले में सुनवाई हुई और उन्हें फाँसी की सजा सुनाई गई। इससे सुप्त विद्रोहाग्नि अचानक भडक उठी। विद्यार्थियों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अंतिम युद्ध का संकल्प लिया। उधर मुंबई में भारत के नौसैनिकों ने भी विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। फलस्वरूप लॉर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में एक मिशन भारतीय नेताओं के साथ समझौते के लिए आया किंतु असफल रहा। इसके बाद देश के राज्यों को क, ख, ग तीन भागों में बाँट दिया गया और असम को पूर्वी बंगाल का एक अंग बना दिया था, जिसे पूर्वी पाकिस्तान बनाया जाना था। इसके विरोध में संपूर्ण असम की जनता ने आंदोलन छेड़ दिया। अंग्रेज़ सरकार ने असम को ‘ग’ मंडल के साथ जोड़ दिया। लोकप्रिय बोरदोलोई जी ने असम को भारत के साथ रखने के लिए समग्र भारत में घूम-घूमकर जनता का समर्थन प्राप्त किया। असमवासी अडिग चट्टान के समान अड़ गए और असम को पाकिस्तान में जाने से बचा लिया। बोरदोलोई जी का यह कार्य अविस्मरणीय है। उनके अथक परिश्रम, त्याग और निष्ठा के फलस्वरूप शेष भारत के साथ असम भी 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हो गया। प्रश्नः 5. झूरी काछी के दोनों बैलों के नाम थे-हीरा और मोती। दोनों पछाईं जाति के थे-देखने में सुंदर, काम में चौकस, डील में ऊँचे। बहुत दिनों साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आस-पास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय करते थे। एक, दूसरे के मन की बात कैसे समझ जाता था, हम नहीं कह सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है। दोनों एक-दूसरे को चाटकर और सूंघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे-विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे दोस्तों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है। इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफुसी, कुछ हल्की-सी रहती है, जिस पर ज़्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता। जिस वक्त ये दोनों बैल हर या गाड़ी में जोत दिए जाते और गरदन हिला-हिलाकर चलते, उस वक्त हर एक की यही चेष्टा होती थी कि ज़्यादा से ज्यादा बोझ मेरी ही गरदन पर रहे। दिन-भर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते, तो एक-दूसरे को चाट-चूटकर अपनी थकान मिटा लिया करते। नाँद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नाँद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे। प्रश्नः 6. अंततः इस संस्कृति के फैलाव का परिणाम क्या होगा? यह गंभीर चिंता का विषय है। हमारे सीमित संसाधनों का घोर अपव्यय हो रहा है। जीवन की गुणवत्ता आलू के चिप्स से नहीं सुधरती। न बहुविज्ञापित शीतल पेयों से। भले ही वे अंतर्राष्ट्रीय हों, पीज़ा और बर्गर कितने ही आधुनिक हों, हैं वे कूड़ा-खाद्य। समाज में वर्गों की दूरी बढ़ रही है, सामाजिक सरोकारों में कमी आ रही है। जीवन स्तर का यह बढ़ता अंतर आक्रोश और अशांति को जन्म दे रहा है। जैसे-जैसे दिखावे की यह संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशांति भी बढ़ेगी। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास तो हो ही रहा है, हम लक्ष्य-भ्रम से भी पीड़ित हैं। विकास के विराट उद्देश्य पीछे हट रहे हैं, हम झूठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा कर रहे हैं। मर्यादाएँ टूट रही हैं, नैतिक मानदंड ढीले पड़ रहे हैं। व्यक्ति-केंद्रिकता बढ़ रही है, स्वार्थ-परमार्थ पर हावी हो रहा है। भोग की आकांक्षाएँ आसमान को छू रही हैं। किस बिंदु पर रुकेगी यह दौड़? प्रश्नः 7. भारत का दलित समाज शताब्दियों से विश्व का सर्वाधिक प्रताड़ित, पीड़ित एवं शोषित समाज रहा है। दुनिया के इतिहास में किसी भी समुदाय ने इतना कष्ट, दुख, दारिद्रय नहीं झेला, जितना हमारे दलित समाज ने। फिर भी बाबा साहब ने समग्र समाज की बात सोची, भारत राष्ट्र की बात सोची। राजनीति तो सामाजिक लक्ष्य का हथियार है। यह सोच हमारी राजनीति को अर्थवत्ता देती है। यदि हम स्वाभाविक बदलाव के बाबा साहब अंबेडकर के उद्देश्यों को अपना सकें, तो उनके प्रयासों को एक सार्थकता मिलेगी। आजादी के बाद हमारे आंदोलनकारी नेताओं ने चाहे वे जे.पी. हों या लोहिया, उन्होंने सामाजिक समस्या का साक्षात्कार तो किया, लेकिन अपने आंदोलन के लिए सामाजिक लक्ष्य निर्धारित नहीं किए। आज भी कुछ आंदोलनकारी राष्ट्रवादी हैं एवं राष्ट्रीयकरण की बात करते हैं तो उनके सामने अंबेडकर के समान सामाजिक समस्याओं से सीधा टकराने के अलावा कोई दूसरा मार्ग नहीं है। सामाजिक आज़ादी के इस मार्ग पर चलने वालों के लिए चेतावनी का एक बोर्ड ज़रूर लगा है कि यहाँ सफलता के शॉर्टकट नहीं हैं और हो सकता है कि सफलता से पहले असफलताओं के लंबे दौर चलें। जे.पी. का आंदोलन सत्ता के चरित्र परिवर्तन का प्रयास था, किंतु सामाजिक लक्ष्यों के अभाव में इस आंदोलन के प्रतिफल स्थायी नहीं हुए। ये सारे प्रयास उस सामाजिक सशक्तीकरण के अभियान का लक्ष्य लेकर चलने चाहिए थे, जिसके लिए बाबा साहब ने अपना जीवन समर्पित कर दिया। हमारे सामने एक स्वर्णिम अवसर था कि अन्ना हजारे के आंदोलन को निरुद्देश्य राजनीतिक दिशा से मोड़कर सामाजिक आज़ादी के विस्तृत राष्ट्रीय एजेंडे की ओर उन्मुख करने का सार्थक प्रयास करते। प्रश्नः 8. वह नेपाल से तिब्बत जाने का मुख्य रास्ता है। फरी-कलिङ्पोंङ् का रास्ता जब नहीं खुला था, तो नेपाल ही नहीं हिंदुस्तान की भी चीजें इसी रास्ते तिब्बत जाया करती थीं। यह व्यापारिक ही नहीं सैनिक रास्ता भी था, इसीलिए जगह-जगह फौज़ी चौकियाँ और किले बने हुए हैं, जिनमें कभी चीनी पलटन रहा करती थी। आजकल बहुत से फौज़ी मकान गिर चुके हैं। दुर्ग के किसी भाग में जहाँ किसानों ने अपना बसेरा बना लिया है, वहाँ घर कुछ आबाद दिखाई पड़ते हैं। ऐसा ही परित्यक्त एक चीनी किला था। हम वहाँ चाय पीने को ठहरे। तिब्बत में यात्रियों के लिए बहुत-सी तकलीफें भी हैं और कुछ आराम की बातें भी। वहाँ जाति-पाँति, छुआछूत का सवाल ही नहीं है और न औरतें परदा ही करती हैं। बहत निम्न श्रेणी के भिखमंगों को लोग चोरी के डर से घर के भीतर नहीं आने देते, तो आप बिलकुल घर के भीतर चले जा सकते हैं। चाहे आप बिल्कुल अपरिचित हों, तब भी घर की बहू या सासु माँ को अपनी झोली में से चाय दे सकते हैं। वह आपके लिए उसे पका देगी। मक्खन और सोडा-नमक दे दीजिए, वह चाय चोडी में कूटकर उसे दूधवाली चाय के रंग की बनाकर मिट्टी के टोटीदार बरतन (खोटी) में रखकर आपको दे देगी। यदि बैठक की जगह चूल्हे से दूर है और आपको डर है कि सारा मक्खन आपकी चाय में नहीं पड़ेगा, तो आप खुद जाकर चोडी में चाय मथकर ला सकते हैं। प्रश्नः 9. अंधेरा कहाँ है? यह बात बड़ी सरल है। अगर आप अपने जीवन में उजाला चाहते हैं, तो इस बात को समझना होगा कि अँधेरा कहाँ है ? अँधेरा ठीक प्रकाश के पास है। जब प्रकाश आएगा तो अँधेरा जाएगा। आजकल नकली मोमबत्तियाँ भी मिलती हैं, जो बैटरी से जलती हैं। उनमें एक छोटा बल्ब होता है और उनकी सुगंध भी अच्छी होती है। जब मैंने उन मोमबत्तियों को पहली बार देखा तो वह तौलिये के पास पड़ी हुई थीं। मैंने कहा-‘यह तो अच्छी बात नहीं है। तौलिए में आग लग जाएगी।’ मैंने मोमबत्तियों को तौलिए से थोड़ा अलग कर दिया। जब मैं उनके पास गया तो महसूस किया कि उन मोमबत्तियों में न आग है न गरमी। एक मोमबत्ती उठाकर देखा तो सोचने लगा, अरे, यह तो बड़ी अच्छी मोमबत्ती है। इसमें मोमबत्ती के सारे गुण हैं। यह प्रकाश भी देती है। इससे किसी चीज़ को आग भी नहीं लगेगी। इसकी खुशबू भी अच्छी है। रात को अचानक ख्याल आया लेकिन यह मोमबत्ती दूसरी मोमबत्ती को जला नहीं सकती।’ नुक्स पकड़ में आ गया। यह प्रकाश दे सकती है, पर बुझे हुए दीपक को जला नहीं सकती। उसको जलाने के लिए जलता हुआ दीया चाहिए, जलती हुई मोमबत्ती चाहिए। ठीक उसी प्रकार गुरु भी आपके हाथ में ज्ञान का दीया रखते हैं। उसे जलाते हैं, ताकि आपको जीवन में ठोकरें न खानी पड़ें। ठोकरें खाने का मतलब है कि रास्ते में पत्थर पड़े हुए हैं। प्रश्नः 10. बूढे सियार ने भेड़ों को रोककर कहा, भाइयो और बहनो! अब भय मत करो। भेडिया राजा संत हो गए हैं। उन्होंने हिंसा बिल्कुल छोड़ दी है। उनका हृदय परिवर्तन हो गया है। वे आज सात दिनों से घास खा रहे हैं। रात-दिन भगवान के भजन व परोपकार में लगे हैं। उन्होंने अपना जीवन जीव-मात्र की सेवा में अर्पित कर दिया है। अब वे किसी का दिल नहीं दखाते, किसी का रोम तक नहीं छूते। भेड़ों से उन्हें विशेष प्रेम है। इस जाति ने जो कष्ट सहे हैं, उनकी याद करके कभी-कभी भेड़िया संत की आँखों से आँसू आ जाते हैं। उनकी अपनी भेड़िया जाति ने जो अत्याचार आप पर किए हैं, उनके कारण संत का माथा लज्जा से जो झुका है, सो झुका ही हुआ है, परंतु अब वे शेष जीवन आपकी सेवा में लगाकर प्रायश्चित करेंगे। आज सवेरे की बात है कि एक मासूम भेड़ के बच्चे के पाँव में काँटा लग गया तो भेड़िया संत ने उसे दाँतों से निकाला; पर जब वह बेचारा कष्ट में चल बसा तो भेड़िया संत ने सम्मानपूर्वक उसकी अंत्येष्टि क्रिया की। उनके घर के पास हड्डियों का जो ढेर आप देख रहे हैं, वह उसी का है। अब वे सर्वस्व त्याग चुके हैं। अब आप उनसे भय मत करो। प्रश्नः 11.मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कृति है। शुभ तथा अशुभ संस्कारों की प्राप्ति हमें अपने जन्म से पहले ही माता के गर्भधारण करने के समय से प्रारंभ हो जाती है। जन्म लेने पर बच्चा ज्यों-ज्यों बड़ा होता जाता है, त्यों-त्यों उस पर उसके माता-पिता परिवार के अन्य सदस्यों, अड़ोस-पड़ोस के वातावरण, अपने मित्रों, पुस्तकों के ज्ञान आदि का प्रभाव पड़ता है। जीवन के व्यवहार में उसे जिस किसी से काम पड़ता है वह उसके गुण-दोषों से अछूता नहीं रहता। इस प्रकार जीवन के कई पड़ावों पर ये प्रभाव उसके संस्कार बनते जाते हैं। स्वभाव से ही मनुष्य ऊँचा उठना और आगे बढ़ना चाहता है। यही मनुष्य और पशु में अंतर है। पशु जहाँ के तहाँ पड़े हैं। मनुष्य अपने संस्कारों की पहचान कर विकास-मार्ग पर अग्रसर हो रहा है। हमारे शुभ और उच्च संस्कार ही हमारी मानवता की पहचान हैं। यद्यपि हमारे शुभ संकल्प पूर्वजन्मों के कर्मों तथा इस जन्म की अच्छी संगति से जुड़े हुए हैं, फिर भी उन्हें पाने के लिए हमें अपना जीवन, स्वार्थ-त्यागकर नि:स्वार्थ भाव से बिताना होगा। आलस्य, प्रमाद छोड़ हमें परिश्रमी बनना होगा। भौतिक अंधानुकरण को छोड़, उच्च लक्ष्य की प्राप्ति की ओर निरंतर अग्रसर होते रहना होगा जिससे हम आत्मोन्नति कर अपना और अपने देश का कल्याण कर विश्व को भी कुछ दे सकें। मुक्त पतन से क्या आशय?Solution : जब भी कोई वस्तु केवल पृथ्वी के आकर्षण अर्थात् गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी की ओर खिंचती है तो बह वस्तु मुक्त पतन में होती है।
मुक्त पतन का श्रवण क्या है?Solution : जब भी कोई वस्तु पृथ्वी की ओर गिरती है तो त्वरण उत्पन्न होता है। यह त्वरण पृथ्वी गुरुत्वाकर्षण बल के कारण उत्पन्न होता है। यही कारण है कि इसे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के कारण उत्पन्न त्वरण या गुरुत्वीय त्वरण कहते हैं।
श्न 1 मुक्त पतन से आप क्या समझते हैं 2 गुरुत्वीय त्वरण से आप क्या समझते हैं?Solution. एक मात्र गुरुत्वीय आकर्षण बल के हेतु अगर वस्तुएं पृथ्वी की और गिरती है तो उसे मुक्त पतन कहते है। मुक्त पतन में वस्तु का त्वरण गुरुत्वीय त्वरण (g = 9.8ms−2)के समान होते है।
गुरुत्वीय त्वरण से आप क्या समझते हैं?न्यूटन के गति के दुसरे नियम के अनुसार जब किसी वस्तु पर बल कार्य करता है तो उसमे त्वरण (a = F/m) उत्पन्न हो जाता है। अत: पृथ्वी के गुरुत्वीय बल के कारण वस्तु में भी एक त्वरण उत्पन्न हो जाता है इस गुरुत्व बल द्वारा उत्पन्न त्वरण को ही गुरुत्वीय त्वरण कहते है।
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