परमात्मा की तीन स्वतंत्र शक्तियां किस महापुराण में बताई गई है - paramaatma kee teen svatantr shaktiyaan kis mahaapuraan mein bataee gaee hai

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शास्त्रों के अनुसार परमात्मा की पंचकृत्यकारी शक्तियाँ!

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परमात्मा की तीन स्वतंत्र शक्तियां किस महापुराण में बताई गई है - paramaatma kee teen svatantr shaktiyaan kis mahaapuraan mein bataee gaee hai

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शास्त्रों के अनुसार परमात्मा की पंचकृत्यकारी शक्तियाँ!

विश्व के प्राचीनतम 'वेद' (ज्ञान स्रोत) सार्वभौमिक ग्रन्थ हैं, जिनका प्राकट्य सृष्टि के साथ ही हुआ है। सृष्टि के बाद मनुष्य इस संसार में किस प्रकार अपना लक्ष्य प्राप्त करेगा, इसके लिए साधन विशेष का निर्णय वेदों में किया गया है। ये मनुष्यों को धीरे धीरे उनके गंतव्य की ओर इन्हीं पंच शक्तियों के माध्यम से जाते हैं। * आगम शास्त्रों में परमेश्वर को 'पंचकृत्यकारी' कहा गया है। इनकी पांच शक्तियाँ निरन्तर काम कर रही हैं!

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१) सृष्टि-शक्ति से जीवों को भोग और परमार्थ साधन करने की शक्ति मिलती है।

सृष्टि-शक्ति : इस सृजन शक्ति से ही जीव भोग प्राप्ति के साथ साथ परमार्थ के लिए साधन कर सकता है।

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२) पालन-शक्ति से ही हमारा इस सृष्टि में लालन-पालन संभव हो पाता है।

पालन-शक्ति : यदि पालन न हो, उत्पत्ति होते ही संहार हो जाये तो फ़िर आगे कोई कार्य नहीं हो सकता।

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३) संहार-शक्ति पृथ्वी पर संतुलन बनाए रखती है।

संहार-शक्ति : यह शक्ति पृथ्वी पर संतुलन बनाए रखती है। यदि यह शक्ति न हो तो एक घर में वृद्धों की कतारें लग जाएं।

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४) निग्रह-शक्ति (माया) सत्य को आवृत्त कर जीवों को भोगों की ओर ले जाती है।

निग्रह-शक्ति (माया) : यह सत्य को आवृत्त कर जीवों को भोगों की ओर प्रवृत्त करा रही है।

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५) अनुग्रह-शक्ति,परमेश्वर की कृपा शक्ति हमें मूल स्वरूप प्राप्ति कराती हैं।

अनुग्रह-शक्ति (परमेश्वर की कृपा शक्ति) : यह प्रत्येक जीव को अपने मूल स्वरूप में पहुंचाने के लिए निरन्तर प्रयास करती रहती है। शास्त्रों के अनुसार वस्तुतः इस अनुग्रह-शक्ति के अंदर ही ये सभी शक्तियाँ अपना काम करती हैं।

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५) अनुग्रह-शक्ति (परमेश्वर की कृपा शक्ति)

अनुग्रह-शक्ति (परमेश्वर की कृपा शक्ति) : इस शक्ति का विशिष्ट स्वरूप है जो सृष्टि के आदि में प्रकट हुआ। जिस समय भगवान ने माया शक्ति को आधार बनाकर इस सृष्टि की उत्पत्ति की, उसी समय अनुग्रह शक्ति ने भगवान से वेदों का प्राकट्य कराया। ये चारों वेद ईश्वर के मुख से निकले हुए वचन हैं ।

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अहं विज्ञानामि विविक्त रूपो, न चास्ति वेत्ता ममचित्त सदाहम्।:

ॐ अणोरणीयानहमेव तद्वन्महानहं, विश्वमिवं विचित्रम्। पुरातनोऽहं पृरुषोऽहमीशो, हिरण्यमयोऽहं शिवरूपमस्मि। अपाणि पादोऽहमचिन्त्य शक्तिः, पश्याम्यचक्षुः स श्रृणोम्यकर्णः। अहं विज्ञानामि विविक्त रूपो, न चास्ति वेत्ता ममचित्त सदाहम्। -- (कैवल्योपनिषद् 20/21) अर्थात् मैं छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा हूँ। इस अद्भुत संसार को मेरा ही स्वरूप मानना चाहिये, मैं ही शिव और ब्रह्मा का स्वरूप हूँ, मैं ही परमात्मा और विराट् पुरुष हूँ, वह शक्ति जिसके न हाथ है, वह परब्रह्म मैं ही हूँ, मैं सर्वदा चित्तस्वरूप रहता हूँ, मुझे कोई जान और समझ नहीं सकता। मैं बुद्धि के बिना ही सब कुछ जानने, स्थूल कानों के बिना सब कुछ सुनने और स्थूल आँखों के बिना सब कुछ देखने की सामर्थ्य रखता हूँ।

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परोपकार में सदा तत्पर रहें,कल्प-वृक्ष बनें,परमात्मा की अनुग्रह-शक्ति पाएँ!

"कोई कल्प-वृक्ष है तो उसका बीज परोपकार। परोपकारी सबका हृदय जीत लेता है। सभी का सहयोग उसे मिलता है। शिवा ने थोड़ी ताकत से ज्यादा विजय पाई है, क्योंकि उसे भगवान का आशीर्वाद मिला है और मनुष्यों का प्यार व सहयोग। यदि संसार के सारे मनुष्य परोपकार में तत्पर हो जायें, तो संसार कितना सुन्दर और सुखपूर्वक बन जाये।"- समर्थ गुरु रामदास

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ईश्वरीय अनुग्रह शक्ति से कर्तव्य का पालन कर त्यागी और परोपकारी बनें!

केवल अपने सुख, अपने मंगल और अपने कल्याण में व्यस्त, उसका ही ध्यान रखने वाले लोग ईश्वरीय कर्तव्य से विमुख रहते है। अपना मंगल और अपना कल्याण भी वाँछनीय है, लेकिन सबके साथ मिलकर, एकाकी नहीं। अपने हित तक बँधे रहने वाले बहुतायत स्वार्थी हो जाते है। स्वार्थ और ईश्वरीय कर्तव्य में विरोध है। जो स्वार्थी होगा, वह कर्तव्य विमुख ही चलता रहेगा। ईश्वर ने सृष्टि उत्पन्न की। एक से एक बढ़कर आनन्ददायक पदार्थों का निर्माण किया। वह निखिल ब्रह्माण्डों के प्रत्येक का स्वामी है। पर क्या वह उनका उपभोग स्वयं करता है? नहीं वह उनका उपयोग स्वयं नहीं करता है। उसने सारी सम्पदायें और साधन अपने बच्चों के लिये ही सुरक्षित कर दिए है। वह अपने आप में महान् त्यागी और परोपकारी है।

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हम सृष्टि के सारे जीवों से प्रेम करें, ईश्वर की अनुकम्पा बरसती रहे!

हम मनुष्यों का भी कर्तव्य है कि हम परोपकारी और परमार्थी बने। हमारे पास जो भी बल-बुद्धि-विधा-धन-सम्पत्ति आदि उस प्रभु के दिए हुये पदार्थ है, उनका एक अंश परोपकार और परमार्थ में लगाये। ऐसा कभी न सोचे कि यह सब तो मेरा है, में ही इसका उपभोग करूँगा। गरीबों, असहायों और आवश्यकता ग्रस्तों की सहायता करना, दुखी और अपाहिजों की सेवा करना ईश्वरीय कर्तव्य है, जो पूरा करना ही चाहिये। ईश्वर अपने विरचित जीव मात्र से प्रेम करता है। उसके पुत्र उसके प्रतिनिधि मनुष्य का भी कर्तव्य है कि वह सृष्टि के सारे जीवों से प्रेम करे।

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ईश्वरीय कर्तव्य के पालन की प्रेरणा, सामर्थ्य और क्षमता विकसित करें!

हमें चाहिये कि संसार कर नश्वर और भ्रामक वासनाओं से दूर रहें, उनसे सुरक्षित रहकर अपनी शक्ति और स्वरूप को पहचाने। निकृष्ट भोग-वासनायें पाशविक प्रवृत्ति की घोतक है, ईश्वरीय कर्तव्य की नहीं। ईश्वरीय कर्तव्य का घोतक तो आत्मसंयम, आत्म-विकास और आत्म-विस्तार से ही होता है। यदि हमारे हृदयों में यह धारणा दृढ़ हो जाये कि हम उस परम पवित्र, महान् और सर्वोपरि सत्ताधारी ईश्वरीय के पुत्र और संसार में उसके प्रतिनिधि है तो संसार की निकृष्ट वासनाओं और तुच्छ भोगों से विरक्ति हो जाना आसान हो जाये। जब तक अपने उच्च-स्वरूप का विश्वास नहीं होता मनुष्य निम्नता की ओर झुकता रहता है।

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हम अपने सच्चिदानंद स्वरूप को पहचान कर शुध्द और बुध्द बनें!

कितना ही शक्तिशाली और कितना ही उच्च पद वाला क्यों न हो, किन्तु मनुष्य अपने आत्म-स्वरूप को तब तक नहीं पहचान पाता, जब तक वह विषय वासनाओं के अन्धकार से निकल कर अपने स्वरूप का दर्शन आत्मा के प्रकाश में नहीं करता। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह विचार करे व उसके फलस्वरूप अनुभव भी कि वह कितना विशाल, कितना महान् और कितना प्रचुर है। उसका स्वरूप ठीक वैसा ही है, जैसा कि उसके परमपिता परमात्मा का। इस प्रकार की ईश्वरीय अनुभूति होते ही मनुष्य अपने को सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान्, सर्वहितकारी और सर्व-सम्पन्न पायेगा। उसकी सारी क्षुद्रताएँ, सारी दीनताएँ और सारी निकृष्टताएँ आपसे आप स्खलित हो जायेंगी और वह अपने को सच्चिदानन्द स्थिति में पाकर शुद्ध और बुद्ध बन जायेगा।

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हमारा वास्तविक स्वरूप : सत्+चित्+आनन्द=सच्चिदानंद।

मनुष्य का वास्तविक स्वरूप सच्चिदानन्द ही है। अपनी साँसारिक निकृष्टताओं के कारण ही वह इस स्वरूप को भूले है। अपने में आत्म-श्रद्धा और आस्था का विकास करिये। मिथ्या से निकलकर सत्य में आइए। जीवतत्व से ईश्वरत्व की और बढ़िए। ईश्वर का पुत्र उसका प्रतिनिधि होने में विश्वास करिये। ईश्वरीय कर्तव्यों का पालन करने के लिये धर्म को धारण करिये। उपकारी और परमार्थी बनकर सत्य, सेवा, त्याग, और आत्मीयता के भाव जगाइए। निश्चय ही आप अपना वह अधिकार और स्वत्व पा लेंगे, जो ईश्वर में सन्निहित है और जिसकी सत्ता है- * सत् चित् आनन्द=सच्चिदानंद। *

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राधा कृष्ण का नाम पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से लें,जीवन मरण के बंधन से हों मुक्त!

प्रभु का नाम श्रद्धा और भक्ति के साथ लेने से मनुष्य जीवन मरण के बंधन से मुक्त हो सकता है। ईश्वर की भक्ति में ही सबसे बड़ी शक्ति है जो व्यवहारिक जीवन में हर संकट को टालते है। कहा कि इस संसार से बेड़ा पार लगाना है तो हर मनुष्य को प्रभु के चरणों में खुद को सौंप देना चाहिए। संकीर्तन के माध्यम से ब्रजधाम, गोकुलधाम, द्वारिकापुरी, मायापुरी सहित कई जाग्रत-धाम हैं। जिस मनुष्य ने श्री राधा-कृष्ण की भक्ति में अपने आप को डुबो दिया, उसका जीवन सार्थक हो जाता है। महामंत्र की सोलह मालाएँ जपें और सदा प्रसन्न रहें:- "हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे! हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे!!"

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