सामाजिक न्याय की अवधारणा पर कौन बोल देता है? - saamaajik nyaay kee avadhaarana par kaun bol deta hai?

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सामाजिक न्याय की अवधारणा का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।

सामाजिक न्याय: सामाजिक न्याय की अवधारणा न्याय की तुलना में व्यापक है। ‘सामाजिक’ शब्द समाज से जुड़ा है। सामाजिक मुद्दों, समस्याओं और सुधारों सहित इसका दायरा व्यापक है, जिससे इसमें सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन शामिल हैं। 

सामाजिक न्याय में समाज के दलित और वंचित वर्गों की उन्नति के लिए किए गए उपाय शामिल हैं। इसलिए यह सामाजिक इंजीनियरिंग की मांग करता है जो सामाजिक समस्याओं से निपटने के लिए समाज को बदलने का एक प्रयास है।

ऐसे सामाजिक-आर्थिक बदलाव कानून के जरिए लाए जा सकते हैं। सामाजिक न्याय का उद्देश्य राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र का निर्माण करना, वर्ग और जाति भेद को समाप्त करना है।

यह लोकतंत्र दवारा प्रदत्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ समाजवाद के सिद्धांतों को जोड़ती है।

तो ‘सामाजिक’ शब्द का व्यापक अर्थ है, समाज से जुड़ा है और इसे कैसे व्यवस्थित किया जाना चाहिए, और इसके सामाजिक मूल्य और संरचना क्या होनी चाहिए न्याय की अवधारणा को विभिन्न दृष्टिकोणों से परिभाषित किया जा सकता है।

यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने न्याय को सामाजिक जीवन के सच्चे सिद्धांत के रूप में देखा। एक अंग्रेजी राजनीतिक वैज्ञानिक अर्नेस्ट बार्कर के अनुसार, न्याय प्लेटो के विचारों और उनके प्रवचन के पाठ का आधार था।

प्लेटो ने अपनी पुस्तक द रिपब्लिक में सेफलस, पोलेमार्चस और ग्लौकॉन जैसे दोस्तों के साथ बातचीत के माध्यम से न्याय की अवधारणा पर चर्चा की सेफलस का कहना है कि न्याय में सच बोलना और किसी के कर्ज का भुगतान करना शामिल है, जबकि पोलेमार्चस बताते हैं कि न्याय प्रत्येक व्यक्ति को वह देना है जो उसके लिए उचित है।

“न्याय वह कला है जो मित्रों को अच्छाई और शत्रुओं को बुराई देती है।” ग्लौकॉन का तर्क है कि न्याय “कमजोर थेसिमैचस के हित में है, प्राचीन ग्रीस के एक परिष्कार ने न्याय को मजबूत के हित के रूप में देखा, दूसरे शब्दों में, पराक्रम सही है। 

प्लेटो ने इन सभी परिभाषाओं को खारिज कर दिया क्योंकि वे न्याय को बाहरी और कृत्रिम मानते थे। प्लेटो के लिए, न्याय प्राथमिक नैतिक मूल्य है और आंतरिक रूप से अन्य आवश्यक और नैतिक गुणों से जुड़ा हुआ है।

सामाजिक न्याय की अवधारणा पर कौन बोल देता है? - saamaajik nyaay kee avadhaarana par kaun bol deta hai?

एक विचार के रूप में सामाजिक न्याय की बुनियाद सभी मनुष्यों को समान मानने पर आधारित है। इसमें किसी के साथ सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पूर्वर्ग्रहों के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। हर किसी के पास इतने न्यूनतम संसाधन होने चाहिए कि वे ‘उत्तम जीवन’ की अपनी संकल्पना को धरती पर उतार पाएँ।•  विकसित हों या विकासशील, दोनों ही तरह के देशों में राजनीतिक सिद्धांत के दायरे में सामाजिक न्याय की इस अवधारणा और उससे जुड़ी अभिव्यक्तियों का प्रमुखता से प्रयोग किया जाता है।


• सामाजिक न्याय की अवधारणा सर्वप्रथम 1840 से 1848 में परिभाषित की गई थी इस बारे में अनेक विद्वानों की अलग-अलग विचार और मत्था दृष्टिकोण है

• सामाजिक न्याय कोई अलग बात नहीं बल्कि समाज-निर्माण का ही अभिन्न अंग है। न्याय के बिना समाज की संकल्पना अधूरी है। मानवाधिकार तथा समानता आधार बिंदु हैं।

• अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन के संविधान के अनुसार- ‘‘सामाजिक न्याय के बिना सर्वव्याप्त और अनंत शांति की प्राप्ति बेमानी है।’’ सामाजिक न्याय  वैसे समाज या संगठन को स्थापित करने की अवधारणा है जो समानता तथा एकता के मूल्यों पर आधारित है,।

• सामाजिक न्याय में भौतिक संसाधनों का समान रूप से वितरण सामाजिक शारीरिक मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास सम्मिलित होता है।

  • सामाजिक न्याय के प्रमुख दे दो लक्ष्य होते हैं


(1) अन्याय का अंत
(2) व्यक्ति के सामाजिक धार्मिक आर्थिक राज।नीतिक शैक्षिक आदि स्तरों पर ए समानता का अंत करना

• भारत जेसे देश में सामाजिक न्याय का नारा वंचित समूहों की राजनीतिक गोलबंदी का एक प्रमुख आधार रहा है। उदारतावादी मानकीय राजनीतिक सिद्धांत में उदारतावादी-समतावाद से आगे बढ़ते हुए सामाजिक न्याय के सिद्धांतीकरण में कई आयाम जुड़ते गये हैं। मसलन, अल्पसंख्यक अधिकार, बहुसंस्कृतिवाद, मूल निवासियों के अधिकार आदि। इसी तरह, नारीवाद के दायरे में स्त्रियों के अधिकारों को ले कर भी विभिन्न स्तरों पर सिद्धांतीकरण हुआ है और स्त्री-सशक्तीकरण के मुद्दों को उनके सामाजिक न्याय से जोड़ कर देखा जाने लगा है।

• हमारे देश में सामाजिक आर्थिक विकास और सशक्तीकरण के लिये समूह आधारित उपागम  को स्वीकार किया गया। संविधान निर्माताओं ने संविधान निर्माण के दौरान ही समूह को लक्षित करके प्रावधान बनाये। समाज के पिछड़े, वंचित दलित और हाशिए के समाज के सामाजिक-आर्थिक उन्नयन लऔर सशक्तीकरण के लिये हमने उन्हें विभिन्न समूहों के रूप में चिन्हित किया और सकारात्मक कार्रवाई के रूप में आरक्षण को अपनाया। हमने माना कि जब शिक्षा और रोजगार में आरक्षण के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिए पर पहुँच गये लोगों को बराबरी पर लाया जाएगा तो बाकी समस्याएँ भी खत्म होती जाएँगी। हालांकि ऐसा पूरी तरीके से नहीं हुआ और दूसरे कानून भी बनाने पड़े जिसमें दलित उत्पीड़न पर रोक लगाने वाला कानून प्रमुख है।

  • प्लेटो का न्याय


• प्लेटो ने भी अपनी पुस्तक द रिपब्लिक में न्याय संबंधी विचारों को व्यक्त करते है
• व्यक्तिगत न्याय-अपने प्रतिदत्त गुणों के अनुसार कार्य करना और दूसरों के कार्य में हस्तक्षेप न करना ही व्यक्तिगत न्याय है
• सामाजिक न्याय -प्लेटो के व्यक्तिगत न्याय का ही विस्तृत रूप सामाजिक न्याय है प्रत्येक वर्ग द्वारा अपने कार्य को करना तथा दूसरों के कार्य में  हस्तक्षेप न करना ही सामाजिक न्याय हैं

भारतीय सविंधान और सामाजिक न्याय

सामाजिक न्याय की अवधारणा पर कौन बोल देता है? - saamaajik nyaay kee avadhaarana par kaun bol deta hai?

• भारतीय  संविधान किं प्रस्तावन  में ही अपने नागरिकों के न्याय-सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक को गंभीरता से वादा किया है अतः भारतीय संविधान की प्रस्तावना ही हमें तीन प्रकार के जो न्याय प्रदान करने का वादा करती है उसमें से सामाजिक न्याय भी  है

  • मूल अधिकार और सामाजिक न्याय 


भारतीय संविधान के भाग चार में मौलिक अधिकारों के अंतर्गत ऐसे अनेक अनुच्छेद हैं जोकि प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के सामाजिक न्याय प्रदान करता है
जैसे….


•भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 राज्य भारत के सभी नागरिकों व्यक्तियों को विधि के समक्ष समानता और विधि के समान संरक्षण प्रदान करता है

•भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 धर्म मूल वंश जाति लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद का निषेध करता है

•भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16 राज्य राज्य दिन पदों पर नियुक्ति के संबंध में सभी नागरिकों को अवसर की समानता प्रदान करता है लोक नियोजन में सरकारी नौकरियों में अवसर की समानता

*.अनुच्छेद 17 के अंतर्गत राज्य राज्य स्वच्छता छुआछूत का उन्मूलन कर पछता को दंडी अपराध घोषित करता है

  • नीति निदेशक तत्व और सामाजिक न्याय

भारतीय संविधान के भाग 3 में भी मौलिक अधिकारों की तरह कुछ ऐसे उपबंध है जो सामाजिक न्याय के उद्देश्य को व्यावहारिकता प्रदान करता है यद्यपि यह उपबंध न्यालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है लेकिन विधि बनाने में इन तत्व का प्रयोग राज्य का कर्तव्य घोषित किया गया है।
सामाजिक न्याय से संबंधित कुछ उपबंध इस प्रकार हैं

1 अनुच्छेद 38 राज्य पर ऐसी सामाजिक व्यवस्था के निर्माण का दायित्व आरोपित करता है जिससे जीवन के सभी क्षेत्रों में न्याय की स्थापना हो सके।
2 अनुच्छेद 39 क  द्वारा राज्य को समाज के कमजोर वर्गों को कानूनी सहायता उपलब्ध करवाने हेतु निर्देशित किया गया ह
3 अनुच्छेद 39 ख ग  राज्य को ऐसी आर्थिक नीतियों का निर्माण निर्दिष्ट किया है जिससे पूजी का शैलेंद्र कुछ ही व्यक्तियों की हाथों में ना हो जाए।
4 अनुच्छेद 41 द्वारा राज्य को काम के अधिकार को व्यवहारिक रूप देने के लिए समुचित प्रावधान करने हेतु निर्देशित किया गया है
5 अनुच्छेद 42  के अंतर्गत राज्य का यह दायित्व है कि वह उचित और समुचित सुविधाएं उपलब्ध कराएं।
अनुच्छेद 42 के तहत राज्य नागरिकों को जीविकोपार्जन हेतु समुचित वेतन उपलब्ध करवाए जाने हेतु निर्देशित करता है।

  • कब मनाया जाता है विश्व सामाजिक न्याय दिवस — 

Fact- संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा के द्वारा सन 2007 में सामाजिक न्याय दिवस मनाए जाने की घोषणा की तथा इस घोषणा को मध्य नजर रखते हुए प्रतिवर्ष 20 फरवरी को सामाजिक न्याय दिवस मनाए जाने का निर्णय किया।

किसी सामाजिक न्याय के उद्देश्य को मध्य नजर रखते हुए 20 फरवरी 2009 से प्रतिवर्ष विश्व सामाजिक न्याय दिवस मनाया जाता है।

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सामाजिक न्याय की अवधारणा पर कौन बल देता है?

एक विचार के रूप में सामाजिक न्याय (social justice) की बुनियाद सभी मनुष्यों को समान मानने के आग्रह पर आधारित है। इसके मुताबिक किसी के साथ सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पूर्वर्ग्रहों के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। हर किसी के पास इतने न्यूनतम संसाधन होने चाहिए कि वे 'उत्तम जीवन' की अपनी संकल्पना को धरती पर उतार पाएँ।

सामाजिक न्याय की अवधारणा क्या है?

सामाजिक न्याय का अर्थ (Meaning Of Social Justice) सामाजिक न्याय से तात्पर्य है समाज के सभी सदस्यों के मध्य बिना किसी भेदभाव के समता, एकता और मानव अधिकारों की स्थापना करना तथा व्यक्ति की प्रतिष्ठा, गरिमा को विशेष महत्व प्रदान करता हैं.

न्याय की अवधारणा के प्रतिपादक कौन है?

इस प्रश्न का उत्तर है- (ब) अरस्तू।

न्याय की अवधारणा से क्या समझते हैं?

न्याय द्विमुख है, जो एक साथ अलग-अलग चेहरे दिखलाता है। वह वैधिक भी है और नैतिक भी। उसका संबंध सामाजिक व्यवस्था से है और उसका सरोकार जितना व्यक्तिगत अधिकारों से है उतना ही समाज के अधिकारों से भी है।... वह रूढ़िवादी (अतीत की ओर अभिमुख) है, लेकिन साथ ही सुधारवादी (भविष्य की ओर अभिमुख) भी है।