समाजशास्त्र की खोज कब हुई थी? - samaajashaastr kee khoj kab huee thee?

यद्यपि मनुष्य आदि-काल से ही समाज में रहता है, परन्तु उसने समाज और अपने स्वयं के अध्ययन में काफी देर से रुचि लेना प्रारम्भ किया। सर्वप्रथम मनुष्य ने प्राकृतिक घटनाओं का अध्ययन किया, अपने चारों ओर के पर्यावरण को समझने का प्रयत्न किया और अन्त में स्वयं के अपने समाज के विषय में सोचना-विचारना शुरू किया। यही कारण है कि पहले प्राकृतिक विज्ञानों का विकास हुआ और उसके पश्चात् सामाजिक विज्ञानों का।

सामाजिक विज्ञानों के विकास-क्रम में समाजशास्त्र का एक विषय के रूप में विकास काफी बाद में हुआ। पिछली शताब्दी में ही इस नवीन विषय को अस्तित्व में आने का अवसर मिला। इस दृष्टि से अन्य सामाजिक विज्ञानों की तुलना में समाजशास्त्र एक नवीन विज्ञान है।

समाजशास्त्र की खोज कब हुई थी? - samaajashaastr kee khoj kab huee thee?

समाजशास्त्र की आवश्यकता का अनुभव जटिल समाजों और विभिन्न सामाजिक घटनाओं को समझने के लिए किया गया। धीरे-धीरे इस शास्त्र का महत्व बढ़ता ही गया।

समाजशास्त्र के विकास के सम्बन्ध में टी.बी. बोटोमोर (Bottomore) ने लिखा है कि हजारों वर्षों से लोगों ने उन समाजों एवं समूहों का अवलोकन और चिन्तन किया है जिसमें वे रहते हैं। फिर भी समाजशास्त्र एक आधुनिक विज्ञान है और एक शताब्दी से अधिक पुराना नहीं है। डान मार्टिण्डेल (Don Martindale) ने बताया है कि यदि मानव प्रकृति से दार्शनिक है तो स्वभावतः वह समाजशास्त्री भी है क्योंकि सामाजिक जीवन उसका स्वाभाविक उद्देश्य है। परन्तु समाज में रहने, सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने और सामाजिक जीवन में भागीदार बनने मात्र से व्यक्ति समाजशास्त्री नहीं बन जाता।

अतः आवश्यकता इस बात की है कि यह समझने का प्रयत्न किया जाए कि वास्तव में समाजशास्त्र क्या है? sociology in hindi

समाजशास्त्र 'समाज' का ही विज्ञान या शास्त्र है। इसके द्वारा समाज या सामाजिक जीवन का अध्ययन किया जाता है। इस नवीन विज्ञान को जन्म देने का श्रेय फ्रांस के प्रसिद्ध विद्वान ऑगस्त कॉम्ट (Auguste Comte) को है। आपने ही सर्वप्रथम सन् 1838 में इस नवीन शास्त्र को 'समाजशास्त्र' (Sociology) नाम दिया। इसी कारण आपको 'समाजशास्त्र का जनक'। (Father of Sociology) कहा जाता है।

समाजशास्त्र के प्रारम्भिक लेखकों में कॉम्ट के अलावा दुर्खीम, स्पेन्सर तथा मैक्स वेबर के नाम भी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन सभी विद्वानों के विचारों का समाजशास्त्र के एक विषय के रूप में विकास में काफी योगदान है।

समाजशास्त्र की उत्पत्ति के मूल स्रोतों पर प्रकाश डालते हुए गिन्सबर्ग (Ginsberg) ने लिखा है कि मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि समाजशास्त्र की उत्पत्ति राजनीतिक दर्शन, इतिहास, विकास के जैविकीय सिद्धान्त एवं उन सभी सामाजिक और राजनीतिक सुधार के आन्दोलनों पर आधारित है जिन्होंने सामाजिक दशाओं का सर्वेक्षण करना आवश्यक समझा। स्पष्ट है कि समाशास्त्र की उत्पत्ति में राजनीतिक दर्शन, इतिहास, विकास के जैविकीय सिद्धान्त तथा सामाजिक एवं राजनीतिक सुधार आन्दोलनों का योग रहा है। समाजशास्त्र की उत्पत्ति उन प्रयत्नों का परिणाम है जिनके द्वारा सामाजिक ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के बीच पाये जाने वाले सामान्य आधार को ढूंढा गया।


समाजशास्त्र का अर्थ एवं परिभाषा

शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि समाशास्त्र दो शब्दों से मिलकर बना है जिनमें से पहला शब्द 'सोशियस' (Socius) लैटिन भाषा से और दूसरा शब्द 'लोगस' (Logas) ग्रीक भाषा से लिया गया है। 'सोशियस' का अर्थ है-समाज और 'लोगस' का शास्त्र। इस प्रकार 'समाजशास्त्र (Sociology) का शाब्दिक अर्थ समाज का शास्त्र या समाज का विज्ञान है।

जॉन स्टुअर्ट मिल ने 'Sociology' के स्थान पर 'इथोलॉजी' (Ethology) शब्द को प्रयुक्त करने का सुझाव दिया और कहा कि 'Sociology' दो भिन्न भाषाओं की एक अवैध सन्तान है, लेकिन अधिकांश विद्वानों ने मिल के सुझाव को नहीं माना। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से हरबर्ट स्पेन्सर (Herbert Spencer) ने समाज के क्रमबद्ध अध्ययन का प्रयत्न किया और अपनी पुस्तक का नाम 'सोशियोलॉजी' रखा। सोशियोलॉजी (Sociology) शब्द की उपयुक्तता के सम्बन्ध में आपने लिखा है कि प्रतीकों की सुविधा एवं सूचकता उनकी उत्पत्ति सम्बन्धी वैधता से अधिक महत्त्वपूर्ण है। स्पष्ट है कि शाब्दिक दृष्टि से समाजशास्त्र का अर्थ समाज (सामाजिक सम्बन्धों) का व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध ढंग से अध्ययन करने वाले विज्ञान से है।

जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि समाजशास्त्र क्या है तो विभिन्न समाजशास्त्रियों के दृष्टिकोणों में भिन्नता देखने को मिलती है, लेकिन इतना अवश्य है कि अधिकांश समाजशास्त्री समाजशास्त्र को 'समाज का विज्ञान' मानते हैं। समाजशास्त्र का अर्थ स्पष्ट करने की दृष्टि से विभिन्न विद्वानों ने समय-समय पर विचार व्यक्त किये हैं। उनके द्वारा दी गयी समाजशास्त्र की परिभाषाओं को प्रमुखतः निम्नलिखित चार भागों में बांटा जा सकता है:-

  1. समाजशास्त्र समाज के अध्ययन के रूप में।
  2. समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के अध्ययन के रूप में।
  3. समाजशास्त्र समूहों के अध्ययन के रूप में।
  4. समाजशास्त्र सामाजिक अन्त:क्रियाओं के अध्ययन के रूप में।

अब इनमें से प्रत्येक पर हम यहाँ विचार करेंगे।


समाजशास्त्र समाज के अध्ययन के रूप में

गिडिंग्स, समनर, वार्ड आदि कुछ ऐसे समाजशास्त्री हुए हैं जिन्होंने समाशास्त्र को एक ऐसे विज्ञान के रूप में परिभाषित करने का प्रयत्न किया जो सम्पूर्ण समाज का एक समग्र इकाई के रूप में अध्ययन कर सके।

  • वार्ड (Ward) के अनुसार, "समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है।"
  • गिडिंग्स (Giddings) के अनुसार, "समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है।" आपने ही अन्यत्र लिखा है कि समाजशास्त्र समाज का एक समग्र इकाई के रूप में व्यवस्थित वर्णन एवं व्याख्या है।
  • ओडम (Odum) के अनुसार, "समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो समाज का अध्ययन करता है।" इन परिभाषाओं के आधार पर यह तो स्पष्ट है कि समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है, परन्तु यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि समाजशास्त्र किस समाज का अध्ययन करता है-मानव समाज का या पशु समाज का अथवा दोनों का। यहाँ हमें यह स्पष्टतः समझ लेना चाहिए कि समाजशास्त्र के अन्तर्गत मानव समाज का अध्ययन किया जाता है।
  • जी. डंकन मिचेल (G. Duncan Mitchell) के अनुसार, “समाजशास्त्र मानव समाज के संरचनात्मक पक्षों (Structural Aspects) का विवरणात्मक एवं विश्लेषणात्मक शास्त्र है।"


समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के अध्ययन के रूप में

जहाँ कुछ विद्वानों ने समाजशास्त्र को समाज का विज्ञान माना है, वहीं कुछ अन्य ने इसे सामाजिक सम्बन्धों का व्यवस्थित अध्ययन कहा है, लेकिन समाज के विज्ञान और सामाजिक सम्बन्धों के अध्ययन में कोई अन्तर नहीं है।

इसका कारण यह है कि सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था को ही समाज के नाम से पुकारा गया है।

समाजशास्त्र को सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन मानने वाले कुछ प्रमुख विद्वानों की परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-

  • मैकाइवर तथा पेज (MacIver and Page) के अनुसार, "समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के विषय में है, सम्बन्धों के इसी जाल को हम समाज कहते हैं।" आपने अन्यत्र लिखा है, “सामाजिक सम्बन्ध मात्र समाजशास्त्र की विषय-वस्तु है।"
  • क्यूबर (J.F. Cuber) के अनुसार, “समाजशास्त्र को मानव सम्बन्धों (Human relationships) के वैज्ञानिक ज्ञान की शाखा के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।"
  • मैक्स वेबर (Max Weber) के अनुसार, “समाजशास्त्र प्रधानतः सामाजिक सम्बन्धों तथा कृत्यों का अध्ययन है।" इसी प्रकार के विचारों को व्यक्त करते हुए वान वीज (Von Wiese) ने लिखा है, "सामाजिक सम्बन्ध ही समाजशास्त्र की विषय-वस्तु का एकमात्र वास्तविक आधार है।"
  • आरनोल्ड एम. रोज (Arnold M. Rose) के अनुसार, "समाजशास्त्र मानव सम्बन्धों का विज्ञान है।"
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि समाजशास्त्र एक ऐसा विज्ञान है जो सामाजिक सम्बन्धों का व्यवस्थित अध्ययन करता है। सामाजिक सम्बन्धों के जाल को ही समाज कहा गया है। मनुष्य पारस्परिक जागरूकता (Mutual Awareness) और सम्पर्क (Contact) के आधार पर विभिन्न व्यक्तियों एवं समूहों के साथ अगणित सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करता है। जब अनेक व्यक्ति और समूह विभिन्न इकाइयों के रूप में एक-दूसरे के साथ सम्बन्धित हो जाते हैं, तब इन सम्बन्धों के आधार पर जो कुछ बनता है, वही 'समाज' (Society) कहलाता है। ऐसे समाज या सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन समाजशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है।


समाजशास्त्र समूहों के अध्ययन के रूप में

नोब्स, हाइन तथा फ्लेमिंग के अनुसार, "समाजशास्त्र समूहों में लोगों का वैज्ञानिक और व्यवस्थित अध्ययन है।" इसका तात्पर्य है कि समाजशास्त्र व्यवहार के उन प्रतिमानों की ओर ध्यान देता है जो संगठित समुदायों में रहने वाले लोगों में पाये जाते हैं।

जॉन्सन (Johnson) ने समाजशास्त्र को सामाजिक समूहों का अध्ययन माना है। आपके ही शब्दों में, “समाजशास्त्र सामाजिक समूहों का विज्ञान है...सामाजिक समूह सामाजिक अन्त:क्रियाओं की ही एक व्यवस्था है।" आपकी मान्यता है कि समाजशास्त्र को 'सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन' कह देने से काम नहीं चलेगा और हम किसी निश्चित निष्कर्ष पर भी नहीं पहुँच सकेंगे।

अतः समाजशास्त्र को सामाजिक समूहों का विज्ञान माना जाना चाहिए। सामाजिक समूह का अर्थ जॉन्सन के अनुसार केवल व्यक्तियों के समूह से नहीं होकर व्यक्तियों के मध्य उत्पन्न होने वाली अन्तःक्रियाओं की व्यवस्था से है। विभिन्न व्यक्ति जब एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं तो उनमें सामाजिक अन्त: क्रिया उत्पन्न होती है और इन्हीं अन्त:क्रियाओं के आधार पर समूह बनते हैं। समाजशास्त्र सामाजिक अन्त:क्रियाओं के आधार पर बनने वाले ऐसे सामाजिक समूहों का अध्ययन ही है। जॉन्सन ने समाजशास्त्र में उन्हीं सामाजिक सम्बन्धों को महत्त्व दिया है जो सामाजिक अन्त:क्रियाओं के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं। आपने लिखा है, "समाजशास्त्र के अन्तर्गत व्यक्तियों में हमारी रुचि केवल वहीं तक है जहाँ तक वे सामाजिक अन्त:क्रियाओं की व्यवस्था में भाग लेते हैं।" स्पष्ट है कि समूह के निर्माण में सामाजिक अन्त:क्रियाएँ आधार के रूप में हैं और इन्हीं के आधार पर बनने वाले सामाजिक समूहों का अध्ययन समाजशास्त्र में किया जाता है।

सामाजिक समूहों के अध्ययन को समाजशास्त्र में इतना महत्त्व क्यों दिया जाता है, इसे भी हमें यहाँ समझ लेना चाहिए। व्यक्ति समूह में रहता है तथा उसकी विभिन्न गतिविधियों में भाग लेता है और अपनी आवश्यकताओं या लक्ष्यों की पूर्ति करता है। वह परिवार-समूह, नाते-रिश्तेदारों के समूह, जाति-समूह और खेल-कूद के साथियों के समूह, पड़ोस-समूह, विद्यालय-समूह, व्यावसायिक समूह, धार्मिक समूह एवं राजनीतिक दल में भाग लेता है और यहीं उसका विकास होता है। इनमें से प्रत्येक समूह सामाजिक अन्त:क्रियाओं की एक व्यवस्था है, अतः जब हम समाजशास्त्र में सामाजिक समूहों का अध्ययन करते हैं तो अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक अन्त:क्रियाओं के व्यवस्थित अध्ययन के महत्त्व को भी स्वीकार करते हैं।


समाजशास्त्र सामाजिक अन्तःक्रियाओं के अध्ययन के रूप में

कुछ सामजशास्त्री समाजशास्त्र को सामाजिक अन्त:क्रियाओं के अध्ययन के रूप में परिभाषित करते हैं। इनकी मान्यता है कि सामाजिक सम्बन्धों की बजाय सामाजिक अन्त:क्रियाएँ समाज का वास्तविक आधार हैं। सामाजिक सम्बन्धों की संख्या इतनी अधिक है कि उनका ठीक से अध्ययन किया जाना बहुत ही कठिन है। अतः समाजशास्त्र में सामाजिक अन्त:क्रियाओं का अध्ययन किया जाना चाहिए। अन्तःक्रिया (Interaction) का तात्पर्य दो या दो से अधिक व्यक्तियों या समूहों का जगरूक अवस्था में एक दूसरे के सम्पर्क में आना और एक दूसरे के व्यवहारों को प्रभावित करना है। सामाजिक सम्बन्धों के निर्माण का आधार अन्त:क्रिया ही है। यही कारण है कि समाजशास्त्र को सामाजिक अन्तःक्रियाओं का विज्ञान माना गया है।

  • गिलिन और गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार, "व्यापक अर्थ में समाजशास्त्र व्यक्तियों के एक-दूसरे के सम्पर्क में आने के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली अन्तःक्रियाओं का अध्ययन कहा जा सकता है।"
  • गिन्सबर्ग (Ginsberg) के अनुसार, "समाजशास्त्र मानवीय अन्तःक्रियाओं और अन्तःसम्बन्धों, उनकी दशाओं और परिणामों का अध्ययन है।"
  • जार्ज सिमेल (George Simmel) के अनुसार, "समाजशास्त्र मानवीय अन्त:सम्बन्धों के स्वरूपों का विज्ञान है।" उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि समाजशास्त्र सामाजिक अन्तःक्रियाओं का विज्ञान है। कुछ अन्य विद्वानों ने समाजशास्त्र को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है
  • मैक्स वेबर (Max Weber) के अनुसार, "समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो सामाजिक क्रिया (Social Action) का विश्लेषणात्मक बोध कराने का प्रयत्न करता है।" आपके अनुसार सामाजिक क्रियाओं को समझे बिना समाजशास्त्र को समझना कठिन है। इसका कारण यह है कि जहाँ समाजशास्त्र में सामाजिक सम्बन्धों एवं सामाजिक अन्त:क्रियाओं का विशेष महत्त्व है, वहाँ सामाजिक क्रियाओं को समझे बिना इन दोनों को नहीं समझा जा सकता, स्वयं अन्त:क्रियाओं का निर्माण सामाजिक क्रियाओं से ही होता है। अतः मैक्स वेबर ने समाजशास्त्र में सामाजिक क्रियाओं को समझने पर विशेष जोर दिया है। समाजशास्त्र में सामाजिक क्रिया के अध्ययन को टालकट पारसन्स ने भी काफी महत्त्व दिया है। आपकी मान्यता यह है कि सम्पूर्ण सामाजिक संरचना, सामाजिक सम्बन्धों, समाज तथा सामाजिक व्यवस्था को 'क्रिया' की धारणा के माध्यम से ही समझा जा सकता है।
  • सोरोकिन (Sorokin) के अनुसार, "समाजशास्त्र सामाजिक-सांस्कृतिक प्रघटनाओं के सामान्य स्वरूपों, प्रकारों और अनेक अन्तर्सम्बन्धों का सामान्य विज्ञान है।" आपने अन्यत्र बताया है कि समाजशास्त्र समाज के उन पहलुओं का अध्ययन करता है जो आवर्तक (Recurrent), स्थायी और सार्वभौमिक हैं और जो प्रत्येक सामाजिक विज्ञान की विषय-वस्तु से सम्बन्धित हैं, किन्तु फिर भी कोई भी सामाजिक विज्ञान उनका विशेष रूप से अध्ययन नहीं करता।" 
अपने व्यापक रूप में समाजशास्त्र समाज व्यवस्था (Social System) का अध्ययन करने वाला विज्ञान है। समाज व्यवस्था में सामाजिक प्रक्रिया, सामाजिक सम्बन्ध, सामाजिक नियन्त्रण, सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक संस्थाएँ तथा इनसे सम्बन्धित प्रभाव एवं परिस्थितियाँ आती हैं। अन्य शब्दों में, समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो समाज व्यवस्था से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों का अध्ययन करता है।

उपर्युक्त सभी परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि समाजशास्त्र सम्पूर्ण समाज का एक समग्र इकाई के रूप में अध्ययन करने वाला विज्ञान है। इसमें सामाजिक सम्बन्धों का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है। सामाजिक सम्बन्धों को ठीक से समझने की दृष्टि से सामाजिक क्रिया, सामाजिक अन्तःक्रिया एवं सामाजिक मूल्यों के अध्ययन पर इस शास्त्र में विशेष जोर दिया जाता है।


समाजशास्त्र का उद्भव

एक पृथक् विषय के रूप में समाजशास्त्र का इतिहास 150 वर्ष से अधिक पुराना नहीं है। इस शास्त्र के अन्तर्गत समाज का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। पूर्व में समाज, सामाजिक सम्बन्धों, परिवार, विवाह, सम्पत्ति, सामाजिक संस्थाओं आदि पर धर्म का स्पष्ट प्रभाव था। ईसा के जन्म के पूर्व भारत, चीन, अरब, ग्रीस, रोम आदि देशों में सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों पर दार्शनिक दृष्टिकोण से चिन्तन प्रारम्भ हुआ। इस समय मनु, कौटिल्य, कन्फ्यूशियस, प्लेटो तथा अरस्तू प्रसिद्ध सामाजिक दार्शनिक हुए। यद्यपि प्रारम्भ में समाज और सामाजिक जीवन को धार्मिक एवं दार्शनिक आधार पर समझने का प्रयत्न किया गया, लेकिन धर्म और दर्शन की पद्धतियों में वस्तुनिष्ठता व उद्वेगात्मक तटस्थता का अभाव था, निरीक्षण एवं परीक्षण को कोई महत्त्व नहीं दिया गया था।

तत्पश्चात् इतिहास की सहायता से समाज और सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने का प्रयत्न किया गया। समाजशास्त्र के अन्तर्गत इतिहास की सहायता से बीते हुए युग के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त की गयी। अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों एवं उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में इतिहास एवं दर्शन की अध्ययन-विधियों का मिला-जुला रूप देखने को मिलता है। इस प्रकार की विश्लेषण पद्धति के विकास में जर्मन दार्शनिक हीगल का विशेष योगदान था। इससे समाजशास्त्र के विकास में काफी सहायता मिली। इस समय यूरोप में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक पक्षों के विश्लेषण के लिए राजनीतिक अर्थतन्त्र नामक विषय को काफी महत्त्व दिया गया। इस विषय से सम्बन्धित अध्ययनों ने समाजशास्त्र के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

जब हम समाजशास्त्र के उद्भव एवं विकास का विचार करते हैं तो तीन विश्लेषण पद्धतियां उभरकर सामने आती हैं-

  1. प्रथम विश्लेषण पद्धति मानव चिन्तन की निरन्तरता पर जोर देती है। इसमें समाजशास्त्र के उदय एवं विकास को प्राचीन युग के सामाजिक चिन्तन के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया गया। वार्स एवं टिमैरोफ ने समाजशास्त्र का आरम्भ चिन्तन के एक निरन्तर प्रवाह के एक भाग के रूप में माना है। इसके अनुसार प्राचीनकाल में ग्रीस, रोम, भारत, चीन और अरब देशों में समाजशास्त्र का उदय हुआ। सामाजिक जीवन का विश्लेषण करने वाले विभिन्न सामाजिक विज्ञानों जैसे-इतिहास, राजनीतिशास्त्र, दर्शन, अर्थशास्त्र तथा प्राकृतिक विज्ञानों में प्रयुक्त अध्ययन-विधियों के सम्मिलित प्रभाव के परिणामस्वरूप समाजशास्त्र की उत्पत्ति हुई।
  2. द्वितीय विश्लेषण पद्धति सिद्धान्तों तथा तथ्यों के विवेचन पर जोर देती है। इस पद्धति के प्रतिपादक मर्टन का कहना है कि समाजशास्त्र के सिद्धान्तों पर विचार करते समय इसके इतिहास के अध्ययन पर जोर नहीं देकर सिद्धान्तों एवं तथ्यों के विश्लेषण पर जोर देना चाहिए।
  3. तृतीय विश्लेषण पद्धति से सम्बन्धित विद्वानों का कहना है कि तत्कालीन यूरोप के सामाजिक एवं आर्थिक परिप्रेक्ष्य में समाजशास्त्र के उदय तथा विकास पर विचार किया जाना चाहिए। उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों में औद्योगीकरण व पूंजीवाद के विकास के परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन में जो बदलाव आया, उसके सन्दर्भ में समाजशास्त्र के उद्भव एवं विकास का पता लगाया जाना चाहिए।


समाजशास्त्र के उद्भव की पृष्ठभूमि (Background of Origin of Sociology)

अठारहवीं शताब्दी के यूरोप की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं बौद्धिक परिस्थितियों ने समाजशास्त्र के उद्भव और विकास में विशेष योग दिया। अब राज्य व समाज की उत्पत्ति में दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त में विश्वास कम हुआ और इनकी उत्पत्ति में मानवीय प्रयत्नों को महत्त्वपूर्ण माना गया। इंग्लैण्ड में राजा के अधिकार कम हुए एवं संसद के अधिकार बढ़े। फ्रांस में राज्यक्रान्ति हुई, कारखानों पर आधारित नवीन अर्थव्यवस्था अस्तित्व में आयी, नगरों | का विकास हुआ तथा समुदायों की दमनात्मक शक्ति में कमी आयी। इन सबके परिणामस्वरूप अनेक सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिवर्तन होने लगे। इससे समाज में बदलाव आया, समाज की नई सरंचना विकसित हुई।

इस संरचना की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं-

  1. राजतन्त्र के स्थान पर लोकतान्त्रिक राजनीतिक व्यवस्था का विकास हुआ।
  2. भूमि तथा कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था की जगह औद्योगिक व्यवस्था का उदय हुआ।
  3. गांवों से लोग या तो अन्य देशों की ओर या अपने ही देश में नगरों की ओर जाने लगे।
  4. परम्परागत सामुदायिक सम्बन्धों एवं दबाव वाली सामूहिकता के स्थान पर व्यक्तिवादी विचारधारा का विकास हुआ। 

फ्रांस में राज्यक्रान्ति (1789) के परिणामस्वरूप सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया में तेजी आयी। इस क्रान्ति के फलस्वरूप स्वतन्त्रता, समानता एवं बन्धुत्व के विचार पनपे। फ्रांस में राजतन्त्र के स्थान पर लोकतान्त्रिक राजप्रण

ली प्रारम्भ हुई। राज्यक्रान्ति के पश्चात् फ्रांस में पनपी सामाजिक अव्यवस्था ने फ्रांस में सेण्ट साइमन तथा ऑगस्त कॉम्ट को काफी प्रभावित किया। इन दोनों विद्वानों ने व्यवस्था, पुनर्गठन एवं समाज की वैज्ञानिक व्याख्या हेतु एक नए समाज-विज्ञान की आवश्यकता पर बल दिया।

करीब-करीब इसी समय प्राकृतिक विज्ञानों का विकास हुआ और इसका प्रभाव सामाजिक विज्ञानों पर भी पड़ा। अब यह महसूस किया जाने लगा कि जिस प्रकार सार्वभौम सिद्धान्तों की सहायता से भौतिक जगत की व्याख्या की गयी है, इसी प्रकार से सामाजिक विज्ञानों में भी सार्वभौम सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर सामाजिक जगत की व्याख्या की जा सकती है।

यहाँ भी वस्तुनिष्ठ तरीके से या तटस्थ रहकर समाज का अध्ययन करना सम्भव है। इन मान्यताओं ने समाजशास्त्र के विकास में विशेष योग दिया।

ब्रिटिश समाजशास्त्री बॉटोमोर का कहना है कि अठारहवीं शताब्दी की बौद्धिक परिस्थितियाँ समाजशास्त्र के उदय में सहायक प्रमाणित हुईं। इस समय राजनीतिक दर्शन, इतिहास के दर्शन, उद्विकाश के प्राणिशास्त्रीय सिद्धान्त, सामाजिक-राजनीतिक सुधार आन्दोलन तथा सामाजिक सर्वेक्षण विधि के विकास ने समाज के वस्तुनिष्ठ अध्ययन के लिए पृष्ठभूमि तैयार की।

इतिहास की दार्शनिक व्याख्या करने वालों में ऐडम फर्ग्युसन का नाम उल्लेखनीय है। आपने राज्य, समाज, परिवार, नातेदारी, जनसंख्या, प्रथा एवं कानून पर विचार व्यक्त किए। आपकी मान्यता है कि समाज पारस्परिक रूप से सम्बद्ध संस्थाओं की प्रणाली है। फर्ग्युसन के चिन्तन का प्रभाव हीगल तथा सेण्ट साइमन के विचारों पर पड़ा। हीगल का प्रभाव कार्ल मार्स पर तथा सेण्ट साइमन का ऑगस्त कॉम्ट पर पड़ा।


नए समाज-विज्ञान का प्रारम्भिक रूप (Early Form of New Social Science)

इस नवीन समाज-विज्ञान के सम्बन्ध में सेण्ट साइमन ने निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया

  1. वैज्ञानिक अन्वेषणों, औद्योगिक क्रान्ति एवं राजनीतिक उथल-पुथल के फलस्वरूप सामाजिक संरचना काफी कुछ बदल चुकी है। अतः परिवर्तित सामाजिक संरचना के विश्लेषण के लिए एक नए समाज-विज्ञान की आवश्यकता है।
  2. इस नवीन विज्ञान में प्राकृतिक विज्ञानों में प्रयुक्त होने वाली पद्धतियों को काम में लिया जाना चाहिए।
  3. आज की बदली हुई परिस्थितियों में आस्था, कल्पना एवं तर्क पर आधारित धार्मिक एवं दार्शनिक विवेचन का कोई महत्त्व नहीं रह गया है।
  4. अपने उपर्युक्त तर्कों को मूर्त रूप देने हेतु सेण्ट साइमन ने ऑगस्त कॉम्ट के साथ मिलकर सामाजिक जीवन का अध्ययन करने हेतु एक नए विज्ञान-सामाजिक भौतिकी को विकसित करने का प्रयत्न किया जिसे बाद में समाजशास्त्र का नाम दिया गया। इस विज्ञान के द्वारा सामाजिक जीवन का उसी प्रकार अध्ययन किया जाएगा जिस प्रकार भौतिकशास्त्र द्वारा भौतिक जगत का अध्ययन किया जाता है।

ऑगस्त कॉम्ट एवं सेण्ट साइमन दोनों सामाजिक भौतिकी (समाजशास्त्र) को विकसित करने हेतु कुछ वर्षों तक साथ-साथ काम करते रहे। इन दोनों विद्वानों ने सामाजिक विज्ञानों को धर्म एवं दर्शन के प्रभाव से मुक्त कराने का प्रयत्न किया। इन दोनों का कार्ल मार्क्स पर प्रभाव रहा है। इस काल को बॉटोमोर चिन्तन की दृष्टि से 'समाजशास्त्र' को प्रागैतिहासिक काल मानते हैं।


समाजशास्त्र की उत्पत्ति (Origin of Sociology)

सन् 1838 में ऑगस्त कॉम्ट ने उपर्युक्त प्रस्तावित विज्ञान को 'सोशियोलॉजी' नाम दिया। यह लैटिन के 'सोश्यस' तथा ग्रीक के 'लोगस' शब्द से मिलकर बना है जिसका अर्थ होता है-समाज का विज्ञान या शास्त्र। इसे ही हिन्दी में समाजशास्त्र कहा गया।

उन्नीसवीं शताब्दी में समाजशास्त्र के विकास में ऑगस्त कॉम्ट, कार्ल मार्क्स तथा हर्बर्ट स्पेन्सर का योगदान महत्त्वपूर्ण  है। इस समय समाजशास्त्री समाज के वैज्ञानिक विश्लेषण के प्रति जागरूक थे। इस दिशा में कॉम्ट ने 'वैज्ञानिक दर्शन का सिद्धान्त' प्रतिपादित किया। मार्क्स ने इसी समय 'वैज्ञानिक समाजवाद' नामक सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इस समय समाजशास्त्र पर एक ओर तो भौतिक विज्ञानों का एवं दूसरी ओर प्राणी-विज्ञानों का प्रभाव पड़ा। इसी समय सामाजिक उद्विकास, उन्नति एवं प्रगति के सिद्धान्तों तथा सोपानों का पता लगाने का प्रयत्न किया गया। तीन विचारकों-कॉम्ट, मार्क्स तथा स्पेन्सर ने सामाजिक उद्विकास पर प्रकाश डाला। कार्ल मार्क्स ने आदिम साम्यवाद के स्तर से शुरू करके साम्यवाद तक की सामाजिक स्थिति का विश्लेषण 'इतिहास की भौतिक व्याख्या' के सिद्धान्त के आधार पर किया। स्पेन्सर ने बताया कि प्राणी-जगत के समान ही समाज का भी उद्विकास हुआ है।

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में जर्मन समाजशास्त्री टॉनीज, जार्ज सिमेल एवं फ्रेंच समाजशास्त्री इमाइल दुर्खीम ने समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के प्रतिपादन में योग दिया। टॉनीज ने समाज का समुदायों एवं समितियों के रूप में वर्गीकरण प्रस्तुत किया। सिमेल ने 'स्वरूपात्मक समाजशास्त्र' के विकास में योग दिया जिसके अनुसार समाजशास्त्र की प्रमुख विषय-वस्तु सामाजिक अन्तःक्रिया के स्वरूपों का अध्ययन है। जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर का भी समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के विकास में काफी योगदान रहा है। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अमरीका के कुछ विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन का कार्य प्रारम्भ हो चुका था। इस समय यहाँ थास्टर्न वेबलन, फ्रेकवार्ड तथा ई. ए. रॉस प्रसिद्ध समाजशास्त्री हुए। इटली में विल्फ्रेडो पैरेटो ने 'अभिजात वर्ग के परिभ्रमण का सिद्धान्त' प्रतिपादित किया।


समाजशास्त्र का विकास

अब हम यहां समाजशास्त्र के विकास की विभिन्न अवस्थाओं पर विचार करेंगे।


समाजशास्त्र के विकास की प्रथम अवस्था

साधारणतः यह माना जाता है कि समाजशास्त्र के विकास की प्रारम्भिक अवस्था यूरोप से शुरू हुई, परन्तु कुछ भारतीय विचारकों की मान्यता है कि समाज जीवन से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण बातें वेदों, उपनिषदों, पुराणों महाकाव्यों एवं स्मृतियों आदि से मिलती हैं। यहाँ प्रचलित वर्णाश्रम व्यवस्था इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि भारतीय चिन्तकों ने समाज और जीवन की एक व्यापक व्यवस्था का विकास पाश्चात्य विद्वानों के इस दिशा में चिन्तन के बहुत पहले ही कर लिया था, लेकिन यहाँ हमें इतना अवश्य ध्यान में रखना होगा कि भारतीय विद्वानों के समाज सम्बन्धी विचार धर्म, राजनीति एवं अर्थ से काफी प्रभावित थे।

पश्चिमी समाजों में समाज सम्बन्धी अध्ययनों का प्रारम्भ यूनानी विचारकों से हुआ। प्लेटो तथा अरस्तू की रचनाएँ इस दिशा में प्रमुख प्रयास थे। प्लेटो ने अपनी पुस्तक 'रिपब्लिक' (427-347 ई. पू.) तथा अरस्तू ने 'इथिक्स एण्ड पॉलिटिक्स' (384-322 ई. पू.) में समाज जीवन से सम्बन्धित विभिन्न समस्याओं एवं घटनाओं का व्यवस्थित विवरण प्रस्तुत किया। आपने अपनी रचनाओं में पारिवारिक जीवन, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, स्त्रियों की स्थिति, सामाजिक संहिताओं आदि का विस्तृत वर्णन किया है। इन विद्वानों के विचारों में स्पष्टता का अवश्य अभाव था और ये एक ओर समाज, समुदाय तथा राज्य में दूसरी ओर दर्शन एवं विज्ञान में स्पष्ट भेद नहीं कर पाए। उस समय समाज में धर्म और जादू-टोने का विशेष बोलबाला था। इसी कारण उस समय सामाजिक घटनाओं का अध्ययन प्रमुखतः वैज्ञानिक दृष्टि से नहीं किया जा सका। प्लेटो तथा अरस्तू के पश्चात् समाज-जीवन के अध्ययन एवं समाजशास्त्र के विकास में लुक्रेशियस (96-55 ई. पू.), सिसरो (106-43 ई. पू.), मारकस आरेलियस (121-180 ए. डी.) सेण्ट आगस्टाइन (354-430 ए. डी.) आदि का उल्लेखनीय योगदान है। भारतीय विचारों के इतिहास में मनु एवं कौटिल्य (चाणक्य) का योगदान काफी उल्लेखनीय है। मनु ने अपनी रचना 'मनुस्मृति' में भारतीय समाज व्यवस्था का और कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र' में सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का विवेचन प्रस्तुत किया है।


समाजशास्त्र के विकास की द्वितीय अवस्था

छठी शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक का काल समाजशास्त्र के विकास की द्वितीय अवस्था मानी जाती है। इस काल में भी काफी लम्बे समय तक सामाजिक समस्याओं को समझने के लिए धर्म और दर्शन का सहारा लिया जाता रहा, लेकिन तेरहवीं शताब्दी में सामाजिक समस्याओं को तार्किक ढंग से समझने का प्रयत्न किया गया। धीरे-धीरे सामाजिक घटनाओं के अध्ययन में तर्क का महत्त्व बढ़ता गया। थामस एक्यूनस (1227-1274) तथा दान्ते

(1265-1321) की रचनाओं से यह बात भली-भांति स्पष्ट है। इन विद्वानों ने मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी माना और समाज को व्यवस्थित ढंग से संचालित करने के लिए सरकार की आवश्यकता पर जोर दिया। एक्यूनस ने सामाजिक सहयोग, न्याय, ईश्वर, श्रद्धा, एकता आदि का अध्ययन किया। इसी काल में समाज को परिवर्तनशील माना गया और साथ ही बतलाया गया कि इस परिवर्तन के पीछे कुछ निश्चित नियम, सामाजिक क्रियाएँ एवं शक्तियाँ कार्य करती हैं। इस समय सामाजिक घटनाओं एवं तथ्यों को समझने के लिए उस विधि के प्रयोग पर जोर दिया गया जिसका प्रयोग प्राकृतिक घटनाओं एवं तथ्यों को समझने हेतु किया जाता था। परिणामस्वरूप इस काल के विचारकों के चिन्तन में वैज्ञानिकता का प्रभाव दिखाई देने लगा। अब समाज के अध्ययन में कार्यकारण सम्बन्धों पर जोर दिया जाने लगा।


समाजशास्त्र के विकास की तृतीय अवस्था

इस अवस्था का प्रारम्भ पन्द्रहवीं शताब्दी से माना गया है। इस काल में सामाजिक घटनाओं के अध्ययन में वैज्ञानिक विधि का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। इस समय समाज-जीवन के विभिन्न पक्षों-सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि का स्वतन्त्र रूप से अध्ययन किया जाने लगा। परिणामस्वरूप विशिष्ट सामाजिक विज्ञानों, जैसे अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनीतिशास्त्र, इतिहास आदि का विकास हुआ। इस काल के विचारकों के बौद्धिक चिन्तन के फलस्वरूप समाजशास्त्र के विकास के लिए आवश्यक पृष्टभूमि तैयार हो सकी। हॉब्स, लॉक तथा रूसो के द्वारा 'सामाजिक समझौते का सिद्धान्त' प्रतिपादित किया गया। सर थामस मूर ने अपनी पुस्तक 'यूटोपिया' में दिन-प्रतिदिन की सामाजिक समस्याओं को समझाने का प्रयत्न किया। इसी पुस्तक में आपने इंग्लैण्ड की सामाजिक व्यवस्था एवं तत्कालीन सामाजिक समस्याओं का विवरण दिया है। माण्टेस्क्यू ने अपनी पुस्तक 'दी स्पिरिट ऑफ लॉज' में मानव समाज पर भौगोलिक पर्यावरण के प्रभाव को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया। विको नाम विद्वान ने 'दी न्यू साइन्स' में सामाजिक शक्तियों की उद्देश्यपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत की। माल्थस ने जनसंख्या-सिद्धान्त और जनाधिक्य से सम्बन्धित समस्याओं पर प्रकाश डाला। एडम स्मिथ ने आर्थिक मनुष्यों का विचार दिया। कन्डोरसेट ने सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। जेम्स हेरिंगटन ने इतिहास की आर्थिक व्यवस्था से सम्बन्धित सिद्धांत प्रस्तुत किया। इन सभी और अनेक अन्य विद्वानों का यद्यपि समाजशास्त्र के विकास मे काफी योगदान है, परन्तु इनके अध्ययनों में एकरूपता और विशेषीकरण का अभाव है। कई विद्वान सामाजिक घटनाओं को आर्थिक घटनाओं से पृथक करके उनका अध्ययन नहीं कर पाए।


समाजशास्त्र के विकास की चतुर्थ अवस्था

समाजशास्त्र के विकास की इस चतुर्थ अवस्था का प्रारम्भ ऑगस्ट कॉम्ट (1798-1857) के समय से माना जाता है। यही समाजशास्त्र के वैज्ञानिक विकास की वास्तविक अवस्था है। फ्रांसीसी विद्वान ऑगस्ट कॉम्ट के गुरु सेण्ट साइमन भौतिक विज्ञानों के समान समाज को एक ऐसा विज्ञान बनाना चाहते थे जिसमें सामाजिक घटनाओं का

व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध अध्ययन तथा विश्लेषण किया जा सके। इसके परिणामस्वरूप सामाजिक नियमों का पता लगाया जा सके। ऑगस्ट कॉम्ट ने अपने गुरु के इन्हीं विचारों को मूर्त रूप देने का प्रयत्न किया। आपने समाज से सम्बन्धित अध्ययन को 'सामाजिक भौतिकी' (Social Physics) के नाम से पुकारा। सन् 1838 में आपने इस नाम को बदलकर इसे 'समाजशास्त्र' (Sociology) नाम दिया। यही कारण है कि आपको समाजशास्त्र का | जन्मदाता या पिता (Father of Sociology) कहा जाता है।

समाजशास्त्र रूपी विशाल भवन का आधार ऑगस्त कॉम्ट का चिन्तन ही है। आपने ही सर्वप्रथम सामाजिक दर्शन और समाजशास्त्र में अन्तर स्पष्ट किया। आपने ही सामाजशास्त्रीय प्रणाली का विकास किया। आपने स्पष्टतः बताया है कि प्राकृतिक घटनाओं के समान सामाजिक घटनाओं का भी वैषयिक तरीके से प्रत्यक्ष विधि की सहायता से अध्ययन किया जा सकता है। सन् 1849 में जान स्टुअर्ट मिल ने इंग्लैण्ड को समाजशास्त्र शब्द से परिचित कराया। बाद में प्रसिद्ध ब्रिटिश समाजशास्त्री हरबर्ट स्पेन्सर ने समाजशास्त्र के विकास में सक्रिय योग दिया। आपने ही अपनी रचना 'सिन्थेटिक फिलॉसफी' के एक भाग 'प्रिन्सीपल्स ऑफ सोशियोलॉजी' में कॉम्ट के विचारों को मूर्त रूप देने का प्रयत्न किया। आपने अपने प्रसिद्ध 'सावयवी सिद्धान्त' में समाज की तुलना मानव शरीर से की है। सर्वप्रथम अमरीका के येल विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन का कार्य प्रारम्भ हुआ।

समाजशास्त्र को अन्य सामाजिक विज्ञानों से पृथक् एक स्वतन्त्र एवं वैषयिक विज्ञान बनाने का श्रेय फ्रांसीसी विद्वान इमाइल दुर्थीम (1858-1917) को है। आपने समाजशास्त्र को सामूहिक प्रतिनिधानों (Collective Representations) का विज्ञान माना है। एडवुड ने बताया है कि यद्यपि कॉम्ट ने फ्रांस में समाजशास्त्र की नींव डाली, लेकिन इसे वैषयिक विज्ञान बनाने वाली विचारधारा का जनक दुर्थीम को ही माना जा सकता है। आपने ही समाजशास्त्र को अन्य सामाजिक विज्ञानों जैसे मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र और इतिहास से स्वतन्त्र किया। प्रसिद्ध जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर (1864-1920) ने समाजशास्त्र को विज्ञान का रूप देने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया। इटली के समाजशास्त्री विल्फ्रेडो पैरेटो (1848-1923) का समाजशास्त्र के व्यवस्थित विज्ञान के रूप में विकास में काफी योगदान है।

समाजशास्त्र के विकास में विश्व के विभिन्न देशों के विद्वानों का महत्त्वपूर्ण सहयोग है। विशेषतः 20वीं शताब्दी में फ्रांस, जर्मनी एवं संयुक्त राज्य अमरीका में इस विषय का काफी विकास हुआ। इंग्लैण्ड में इसके विकास की गति धीमी रही। अमरीका में समाजशास्त्र के विकास तथा अध्ययन-अध्यापन पर काफी ध्यान दिया गया, लेकिन वहाँ भी 20वीं शताब्दी में ही इस विषय का विकास हुआ। यह इस बात से स्पष्ट है कि हार्वर्ड जैसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में सन् 1930 तक समाजशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन की कोई व्यवस्था नहीं थी।

समाजशास्त्र के विकास में इंग्लैण्ड के हरबर्ट स्पेन्सर, मिल, चार्ल्स बूथ, हॉबहाउस, वेस्टरमार्क, मानहीम, गिन्सबर्ग आदि का उल्लेखनीय योगदान है। इन्होंने इंग्लैण्ड में समाजशास्त्र के विकास की दृष्टि से सराहनीय कार्य किया। वहाँ सन् 1907 में समाजशास्त्र का अध्यापन कार्य प्रारम्भ हुआ। फ्रांस में दुर्थीम, टार्डे, लीप्ले आदि ने समाजशास्त्र के विकास की दृष्टि से सराहनीय कार्य किया। वहाँ सन् 1889 में समाजशास्त्र का अध्ययन-अध्यापन प्रारम्भ हुआ। 

जर्मनी में 19वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों और 20वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में समाजशास्त्र के विकास में टॉनीज, वान विज, मैक्स वेबर, कार्ल मार्क्स, वीरकान्त, सिमैल आदि विद्वानों का काफी योगदान रहा। अमरीका में समाजशास्त्र का बहुत विकास हुआ। वहाँ गिडिंग्स, समनर, वार्ड, पार्क, बर्गेस, सॉरोकिन, जिमरमैन, मैकाइवर, ऑगबर्न, पारसन्स, मर्टन, यंग, कॉजर, रॉस आदि ने इस दिशा में विशेष सहयोग दिया। वहाँ सन् 1876 में येल विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम समाजशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन का कार्य प्रारम्भ हुआ। सन् 1924 में मिस्र में और 1947 में स्वीडन में समाजशास्त्र विभाग स्थापित किए गए। वर्तमान में सभी विकसित और विकासशील देशों में समजाशास्त्र का अध्ययन साधारणतः प्रारम्भ हो चुका है, यद्यपि कुछ देश अपवाद अवश्य हैं। वर्तमान में समाजशास्त्र की उपयोगिता और लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है।


भारत में समाजशास्त्र का विकास

भारत में समाजशास्त्र के विकास को तीन यगों में बांटा जा सकता है-


प्राचीन भारत में समाजशास्त्र का विकास

प्राचीन भारतीय ग्रन्थों-वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता, स्मृतियों आदि में समाजिक चिन्तन का व्यवस्थित रूप देखने को मिलता है। इन ग्रन्थों के सूक्ष्म अवलोकन से ज्ञात होता है कि यहां उस समय समाजिक व्यवस्था काफी उन्नत प्रकार की थी और जीवन के आवश्यक मूल्यों पर गहन चिन्तन प्रारम्भ हो चुका था। साथ ही उस समय सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने वाले आवश्यक तत्वों पर भी गम्भीरता से विचार चल रहा था। उस काल के ग्रन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि उस समय वर्णाश्रम व्यवस्था व्यक्ति और समाज के जीवन को किस प्रकार संचालित कर रही थी। यह व्यवस्था व्यक्ति और समाज के बीच सुन्दर समन्वय का एक उत्तम उदाहरण है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ जीवन के चार प्रमुख उद्देश्य थे, जिन्हें प्राप्त करने के लिए व्यक्ति प्रयत्नशील रहता था और अपने व्यक्तित्व का विकास करते हुए समाजिक जीवन को उन्नत बनाने में योग देता था। उस समय व्यक्ति को इतना महत्त्व नहीं दिया गया कि वह समाज पर हावी हो जाए और साथ ही समाज को भी इतना शक्तिशाली नहीं मान लिया गया कि व्यक्ति का व्यक्तित्व दबकर रह जाए और वह (समाज) व्यक्ति को निगल जाए। उस समय के चिन्तक इस बात से परिचित थे कि केवल भौतिकता और व्यक्तिवादिता के आधार पर व्यक्ति के जीवन को पूर्णता प्रदान नहीं की जा सकती। अतः उन्होंने आध्यात्मवाद का सहारा लिया, धर्म के आधार पर व्यक्ति के आचरण को निश्चित करने का प्रयत्न किया। यह सम्पूर्ण सामाजिक चिन्तन समाजशास्त्र के विकास की दृष्टि से अमूल्य सामग्री है।

कौटिल्य (चाणक्य) के अर्थशास्त्र, शुक्राचार्य के नीतिशास्त्र, मनु की मनुस्मृति, मुगल काल में लिखी गयी आईन-ए-अकबरी आदि ग्रन्थों से पता चलता है कि उस समय सामाजिक व्यवस्था कैसी थी, किस प्रकार के रीति-रिवाज, समाजिक प्रथाएँ, परम्पराएँ और आचरण सम्बन्धी आदर्श-नियम प्रचलित थे। इन ग्रन्थों के अध्ययन से उस समय की समाज-व्यवस्था को समझने और उसमें समय-समय पर होने वाले परिवर्तनों को जानने में सहायता मिलती है। उदाहरण के रूप में, मनुस्मृति में समाजिक ज्ञान भरा पड़ा है। इसमें वर्ण, जाति, विवाह, परिवार, राज्य, धर्म, आदि पर गम्भीरता से विचार किया गया। इस ग्रन्थ ने समाज के भावी स्वरूप को निर्धारित करने में काफी योग दिया। प्राचीन ग्रन्थों का समाजशास्त्रीय दृष्टि से अध्ययन करने की दिशा में प्रो. विनयकुमार सरकार, प्रो. बृजेन्द्रनाथ, डॉ. भगवानदास एवं प्रो. केवल मोतवानी ने महत्त्वपूर्ण योग दिया। वर्तमान में आवश्यकता इस बात की है कि प्राचीन भारतीय विचारों पर समाजशास्त्रीय दृष्टि से चिन्तन और मनन किया जाए। यहाँ हमें इतना अवश्य ध्यान में रखना है कि उस समय की समाज-व्यवस्था एवं सामाजिक चिन्तन पर धर्म का काफी प्रभाव था। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि वैदिक काल से ही भारत में समाजशास्त्र के विकास की परम्परा प्रारम्भ हो चुकी थी, यद्यपि मध्यकाल में यहाँ समाजिक व्यवस्थाओं के अध्ययन पर ध्यान दिया गया।


भारत में समाजशास्त्र का औपचारिक प्रतिस्थापन युग

भारत में, समाजशास्त्र एक नवीन विज्ञान है। यद्यपि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यूरोप में समाजशास्त्र का एक व्यवस्थित विषय के रूप में विकास प्रारम्भ हो चुका था, परन्तु भारत में बीसवीं शताब्दी के पहले तक ऐसा कोई विज्ञान नहीं था जो समाज का सम्पूर्णता में अध्ययन करे। पश्चिम के देशों में समाजशास्त्र का विकास तेजी से होता जा रहा था। ऐसी दशा में भारतीयों का ध्यान भी भारत में समाजशास्त्र को एक विषय के रूप में विकसित करने की ओर गया। परिणामस्वरूप यहाँ समाजशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन का कार्य प्रारम्भ हुआ। सन् 1914 से 1947 तक का काल भारत में समाजशास्त्र का औपचारिक प्रतिस्थापन युग कहा जा सकता है।

यहाँ सर्वप्रथम सन् 1914 में बम्बई विश्वविद्यालय में स्नातक स्तर पर समाजशास्त्र का अध्ययन-कार्य प्रारम्भ हुआ। यहीं सन् 1919 में ब्रिटिश समाजशास्त्री प्रो. पैट्रिक गेडिस की अध्यक्षता में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना हुई

और समाजशास्त्र की स्नातकोत्तर कक्षाएं शुरू की गयीं। सन् 1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रो. बृजेन्द्रनाथ शील के प्रयत्नों से अर्थशास्त्र विषय के साथ समाजशास्त्र का अध्ययन-कार्य चालू किया गया। डॉ. राधाकमल मुकर्जी, विनय कुमार, डॉ. डी. एन. मजुमदार तथा प्रो. निर्मल कुमार बोस जैसे प्रतिभाशाली विद्वान डॉ. बृजेन्द्रनाथ शील के ही विद्यार्थी थे जिन्होंने आगे चलकर समाजशास्त्र के विकास में काफी योग दिया। सन् 1921 में लखनऊ विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के अन्तर्गत समाजशास्त्र को मान्यता अवश्य दी गयी, परन्तु इस विषय का अध्ययन अर्थशास्त्र विषय के अन्तर्गत ही किया जाने लगा। यहाँ देश के प्रमुख विद्वान डॉ. राधाकमल मुकर्जी को

समाजशास्त्र का विभागाध्यक्ष नियुक्त किया गया। सन् 1924 में प्रो. पैट्रिक गेडिस के बाद उन्हीं के शिष्य और देश-विदेश में जाने-माने समाजशास्त्री डॉ. जी. एस. घुरिये को बम्बई विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के विभागाध्यक्ष का पद सुशोभित करने का अवसर मिला। प्रो. राधाकमल मुकर्जी और डॉ. जी. एस. घुरिये का भारत में समाजशास्त्र के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। मैसूर विश्वविद्यालय में सन् 1923 में स्नातक कक्षाओं में इस विषय को पढ़ाया जाने लगा। इस वर्ष आन्ध्र विश्वविद्यालय में भी समाजशास्त्र को एक विषय के रूप में मान्यता प्रदान की गयी। सन् 1930 में पूना विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग प्रारम्भ हुआ और श्रीमती इरावती कार्वे ने विभागाध्यक्ष का पद संभाला। धीरे-धीरे देश के कुछ अन्य विश्वविद्यालयों में भी समाजशास्त्र को बी. ए. तथा एम. ए. के पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर लिया गया। सन् 1947 के पूर्व तक देश में समाजशास्त्र के विकास की गति काफी धीमी रही, परन्तु इस काल में यहाँ समाजशास्त्र की नींव अवश्य पड़ चुकी थी। इतना अवश्य है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पूर्व तक कहीं समाजशास्त्र अर्थशास्त्र के साथ तो कहीं मानवशास्त्र या दर्शनशास्त्र के साथ जुड़ा रहा और एक स्वतन्त्र विषय के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं कर सका।


स्वतन्त्र भारत में समाजशास्त्र का व्यापक प्रसार युग

सन् 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से यह युग प्रारम्भ होता है। इस युग में समाजशास्त्र को देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में एक व्यवस्थित स्वतन्त्र विषय के रूप में मान्यता प्राप्त हुई तथा इसके अध्ययन-अध्यापन की ओर लोगों का ध्यान गया। वर्तमान में देश में आधे से अधिक विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना हो चुकी है। वर्तमान में मुंबई, कोलकाता, लखनऊ, मैसूर, पूना, बड़ौदा, गुजरात, पटना, भागलपुर, गोरखपुर, दिल्ली, जबलपुर, पंजाब, नागपुर, राजस्थान, जोधपुर, उदयपुर, अजमेर, इन्दौर, जीवाजी, भोपाल, रायपुर, रांची, काशी विद्यापीठ, कुमाऊं, रुहेलखण्ड, बुन्देलखण्ड, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, रविशंकर, मेरठ, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, चेन्नई, कानपुर आदि विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र विभागों की स्थापना हो चुकी है। इनके अतिरिक्त देश के अनेक राजकीय एवं अराजकीय महाविद्यालयों में भी बी. ए. और एम. ए. स्तर पर समाजशास्त्र का अध्यापन कार्य चल रहा है। वर्तमान में इस विषय की लोकप्रियता एवं उपयोगिता तेजी के साथ बढ़ती जा रही है। अब तो अनेक विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र से सम्बन्धित शोध-कार्य भी चल रहे हैं। साथ ही समाजशास्त्र के विकास की दृष्टि से कुछ शोध संस्थान भी स्थापित किए गए हैं।


भारत में समाजशास्त्र के विकास की प्रवृत्तियाँ

भारत में समाजशास्त्र के विकास की तीन प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं 


1. पाश्चात्य समाजशास्त्रीय परम्परा से प्रभावित (Influenced by Western Sociological Thinking)

इस विचारधारा के मानने वाले विद्वानों का कहना है कि भारत में पश्चिमी समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों एवं अध्ययन पद्धतियों को काम में लेते हुए ही समाजशास्त्र का विकास किया जा सकता है।

भारत में पाश्चात्य समाजशास्त्रीय चिन्तन से प्रभावित होकर जाति, वर्ग, विवाह, परिवार, नातेदारी और धर्म से सम्बन्धित अनेक अनुभवात्मक अध्ययन (Empirical Studies) किये गये हैं। ऐसे अध्ययनकर्ताओं में डॉ. हट्टन, रिजले, डॉ. घुरिये, मजूमदार एवं कापडिया के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं। इन विद्वानों ने उपर्युक्त पर गहन अध्ययन कर समाजशास्त्र के विकास में अपूर्व योग दिया। डॉ. हट्टन और मजूमदार ने भारतीय जाति-व्यवस्था की सूक्ष्म विवेचना प्रस्तुत की है। डॉ. घुरिये ने विभिन्न समाजशास्त्रीय विषयों पर लिखा है जिनमें जाति, वर्ग, व्यवसाय, परिवार, धर्म आदि मुख्य हैं।

आपने अनेक पुस्तकें भी लिखी हैं जिनमें

  • Caste, Class and Occupation
  • Culture and Society
  • Cities and Civilization प्रमुख हैं।

आपके प्रयत्नों से सन् 1952 में Indian Sociological Society की स्थापना हुई जिसने 'सोशियोलॉजिकल बुलेटिन' (Sociological Bulletin) का प्रकाशन किया। आप ही इस पत्रिका के प्रथम सम्पादक रहे हैं। डॉ. के. एम. कापडिया ने विवाह, परिवार और नातेदारी पर अपने अध्ययनों के आधार पर बहुत कुछ लिखा है।

आपने कई लेखों के अतिरिक्त दो महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं :-

  1. Marriage and Family in India
  2. Hindu Kinship


डॉ. मजूमदार ने बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा बंगाल के जनजातीय क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण अनुसन्धान कार्य किया है। जाति-व्यवस्था और ग्रामीण भारत के सम्बन्ध में भी आपने काफी कुछ लिखा है।

आपकी पुस्तकों में निम्नलिखित पुस्तके प्रमुख हैं :-

  • Races and Cultures of India
  • An Introduction to Social Anthropology
  • A Tribe in Transition
  • Caste and Communication in an Indian Village

इस विचारधारा से सम्बन्धित अन्य विद्वानों में वे लोग आते हैं जिन्होंने धार्मिक विश्वासों तथा नैतिक विचारों के तुलनात्मक अध्ययन पर जोर दिया है। उदाहरण के रूप में, डॉ. एम. एन. श्रीनिवास ने दक्षिण के कुर्ग प्रदेश में कुर्ग लोगों का इस दृष्टि से अध्ययन किया और अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'Religion and Society among the Coorgs of South India' लिखी। अन्य समाजशास्त्रियों ने इस प्रकार के अध्ययनों में कोई विशेष रुचि नहीं दिखायी; यद्यपि भारत में ऐसे अध्ययनों की काफी महत्ता एवं उपयोगिता है। आपने भारत में जाति के सन्दर्भ में होने वाले परिवर्तनों को समझाने हेतु संस्कृतीकरण (Sankritization) नामक अवधारणा प्रस्तुत की।

आपकी उपयुक्त पुस्तक के अलावा अन्य प्रमुख पुस्तकें निम्नलिखित हैं।

  • Marriage and Family in Mysore
  • Caste in Modern India and other Essays
  • Social Change in Modern India
  • Indian Villages


यहाँ अनेक विद्वानों ने 'ग्रामीण अध्ययन' (Village Studies) भी किये हैं। ये अध्ययन अमेरिका की समाजशास्त्रीय परम्परा से काफी प्रभावित हैं। भारत में डॉ. एस. सी. दुबे, डॉ. मजूमदार, डॉ. ए. आर. देसाई आदि प्रमुख समाजशास्त्रियों ने ग्रामीण समाज के अध्ययन में विशेष रुचि दिखायी है।

डॉ. दुबे की निम्नलिखित पुस्तकें काफी लोकप्रिय हैं :-

  • An Indian Village
  • India's Changing Villages
  • The Kamar

प्रथम दो पुस्तकों में शोधकार्यों के आधार पर ग्रामीण समुदायों पर बहुत कुछ लिखा गया और साथ ही वहाँ चल रहे विकास कार्यों की धीमी गति के कारणों का विश्लेषण किया गया है। डॉ. मजूमदार ने अपनी पुस्तक 'Rural Profile' में ग्रामीण समाज का समाजशास्त्रीय दृष्टि से चित्रण किया है।

डॉ. ए. आर. देसाई ने भारतीय ग्रामीण समाज पर काफी कुछ सामग्री उपलब्ध करायी है। आपकी पुस्तकें (i) Rural Sociology in India तथा (ii) Rural India in Transition काफी लोकप्रिय हैं।


समाजशास्त्र की इस परम्परा से सम्बन्धित एवं अन्य प्रवृत्ति सामाजिक और आर्थिक कारकों के एक-दूसरे पर पड़ने वाले प्रभावों के अध्ययन से सम्बन्धित हैं। इस प्रवृत्ति को 'समाजिक अर्थशास्त्र' के नाम से जाना जाता है। इस प्रवृत्ति के विकास में डॉ. राधाकमल मुकर्जी और प्रो. डी. पी. मुकर्जी का विशेष योगदान है। डॉ. राध कमल मुकर्जी ने 'अर्थशास्त्र का संस्थात्मक सिद्धान्त' (Institutional Theory of Economics) प्रतिपादित किया। इसमें आपने बताया है कि समाजिक मूल्य और परम्पराएं आर्थिक जीवन को काफी मात्रा में प्रभावित करती हैं। डॉ. डी. पी. मुकर्जी ने अर्थशास्त्र से सम्बन्धित प्राचीन ज्ञान को इतिहास एवं समाजशास्त्र से जोड़ने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कार्य किया। यद्यपि ये दोनों विद्वान प्रमुखतः अर्थशास्त्री थे, परन्तु इन्होंने अपने मौलिक चिन्तन और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के कारण समाजशास्त्र के विकास में काफी योग दिया।

भारत में समाजशास्त्रीय चिन्तन पर पश्चिम का काफी प्रभाव होने के कारण यहाँ समाजशास्त्र का स्वतन्त्र रूप से विकास नहीं हो सका। यहाँ समाजशास्त्र में आत्म-निर्भरता (Self-Sufficiency) का अभाव पाया जाता है। डॉ. एस. सी. दुबे की मान्यता है कि भारतीय समाजशास्त्रीय चिन्तन और लेखन में उपनिवेशवाद का स्पष्ट प्रभाव अब भी देखने को मिलता है। यहाँ के बुद्धिजीवी अब भी पाश्चात्य देशों के समाजशास्त्रियों से समाजशास्त्रीय चिन्तन की दृष्टि से प्रेरणा प्राप्त करते हैं, परन्तु वर्तमान में विश्वासपूर्वक यह कहा जा सकता है कि अब समाजशास्त्र उपनिवेशवाद के प्रभाव से छुटकारा प्राप्त करता और स्वतन्त्र रूप से विकसित होता जा रहा है।


परम्परागत भारतीय चिन्तन से प्रभावित

भारत में समाजशास्त्र के विकास की द्वितीय प्रवृत्ति के समर्थकों के अनुसार भारतीय समाजशास्त्रीय चिन्तन की धारा का आधार पाश्चात्य समाजशास्त्रीय सिद्धान्त नहीं होकर भारतीय परम्परागत सिद्धान्त होने चाहिए। भारतीय समाज और संस्कृति में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जिन्हें पाश्चात्य समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का अन्धानुकरण करके ठीक से नहीं समझा जा सकता। ऐसी स्थिति में भारत में समाशास्त्र का विकास परम्परागत भारतीय समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के आधार पर ही किया जाना चाहिए। ऐसा करने पर ही हम भारतीय समाज को सही परिप्रेक्ष्य में समझ सकेंगे। इस प्रवृत्ति के समर्थकों में श्री आनन्द कुमार स्वामी, डॉ. भगवानदास, प्रो. ए. के. सरन, डॉ. नगेन्द्र, नर्मदेश्वर प्रसाद आदि हैं। श्री आनन्द कुमार स्वामी एवं डॉ. भगवानदास ने भारतीय संस्कृति का काफी गहनता के साथ अध्ययन किया है। इन विद्वानों की मान्यता है कि पश्चिम से लिये गये सिद्धान्तों एवं अवधारणाओं के आधार पर हम भारत को ठीक से नहीं समझ पायेंगे। भारतीय समाज और पाश्चात्य समाजों के सामाजिक मूल्य, जीवन-दर्शन एवं संस्कृति में कुछ ऐसे मौलिक अन्तर हैं कि पाश्चात्य सिद्धान्त यहाँ लोगों को भारतीय समाज को वास्तविक रूप में समझने में मदद नहीं दे पाएंगे। इन दोनों विद्वानों के अनुसार परम्परागत भारतीय विचारों का अध्ययन तार्किक दृष्टि से किया जाना चाहिए। प्रो. सरन ने भारतीय समाज की संरचना के अध्ययन के लिए सामाजिक मूल्यों को भली-भाँति समझने पर जोर दिया है। प्रो. नर्मदेश्वर प्रसाद ने जाति-व्यवस्था के अध्ययन के आधार पर भारतीय समाज और सम्पूर्ण जीवन-व्यवस्था को समझाने का प्रयत्न किया है। इन सभी विद्वानों की मान्यता है कि भारतीय समाज, सामाजिक संस्थाएँ और संस्कृति इतने व्यापक एवं जटिल हैं कि इनके अध्ययन से हम सम्पूर्ण भारतीय समाज-व्यवस्था को ठीक से समझ सकते हैं। 

आज अधिकतर समाजशास्त्री यह मानने को तैयार नहीं हैं कि केवल परम्परागत भारतीय सिद्धान्तों के आधार पर ही भारत में समाजशास्त्र का विकास किया जाना चाहिए। आजकल लोग बौद्धिक समन्वय में विश्वास करते हैं। पाश्चात्य देशों में समाजशास्त्र के क्षेत्र में जो कुछ कार्य हुआ है, उस पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाना चाहिए। यहाँ दृष्टिकोण यह नहीं होना चाहिए कि जो कुछ परम्परागत भारतीय चिन्तन या सिद्धान्त हैं, उन्हें हमें छोड़ना ही है तथा जो कुछ पाश्चात्य है, उसे ग्रहण करना ही है। भारत की समाज-व्यवस्था को ठीक से समझने और यहाँ समाजशास्त्र के एक विज्ञान के रूप में विकास में न केवल परम्परागत भारतीय सिद्धान्तों का बल्कि जहाँ आवश्यक और लाभदायक हो, पाश्चात्य समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों एवं अवधारणाओं का भी सहारा लिया जाना चाहिए।


पाश्चात्य एवं भारतीय समाजशास्त्रीय परम्पराओं के समन्वित चिन्तन से प्रभावित

इस प्रवृत्ति के समर्थकों में डॉ. राधाकमल मुकर्जी, प्रो. डी. पी. मुकर्जी, डॉ. जी. एस. घुरिये एवं डॉ. आर. एन. सक्सेना के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं। इन विद्वानों ने समाजशास्त्र के विकास की दृष्टि से परम्परागत एवं आधुनिक विचारों के समन्वय पर जोर दिया है। डॉ. राधाकमल मुकर्जी ने बताया है कि समाजशास्त्रीय विचारों को भली-भांति समझने के लिए ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। आपकी मान्यता है कि समाज के सामान्य सिद्धान्त को समझने हेतु समाज की संस्तरणात्मक प्रणाली (Hierarchial System) और साथ ही उस समाज में मौजूद अलौकिक विश्वासों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है। पाश्चात्य सामाजशास्त्रीय परम्पराओं से प्रभावित होकर आपने भारत में परिस्थितीय समाजशास्त्र (Ecological Sociology) के विकास की काफी कोशिश की। आपकी एक प्रमुख देन 'प्रवासिता का सिद्धान्त' है।

आपने अपने विचारों का प्रतिपादन अपनी निम्नलिखित प्रमुख पुस्तकों में विशेषतः किया है :-

  • Dynamics of Morals
  • Social Ecology
  • Social Structure of Values

डॉ. डी. पी. मुकर्जी ने भारत में समाजशास्त्र के विकास में काफी योग दिया है। आपका दृढ़ विश्वास है कि भारतीय समाज का अपना स्वयं का कोई चिन्तन है, स्वयं की कुछ मान्यताएँ हैं जिनका अध्ययन किया जाना चाहिए। आप भारतीय समाज को समझने के लिए भारतीय परम्पराओं के अध्ययन को अत्यन्त आवश्यक मानते हैं। आपने तो यहां तक कहा है कि इन परम्पराओं का अध्ययन भारतीय समाजशास्त्रियों के लिए प्रमुख कर्तव्य होना चाहिए। आपकी मान्यता है कि भारत में अनुसन्धान कार्य केवल पश्चिम से आयातित सिद्धान्तों, अवधारणाओं एवं अध्ययन-पद्धतियों के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए। यहाँ अनुसंधान के लिए भारतीय परंपराओं, प्रथाओं, संस्कारों, जनरीतियों आदि को ठीक से समझा जाना चाहिए। यहां भारतीय संस्कृति पर समय-समय पर अन्य संस्कृतियों का और विशेषतः पश्चिमी संस्कृतियों का प्रभाव भी पड़ा और इसके परिणामस्वरूप संस्कृतीकरण एवं सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया भी प्रारम्भ हुई। संस्कृति के इस समन्वय को समझने के लिए ऐतिहासिक पद्धति का सहारा लिया जाना चाहिए। आपका दृढ़ विश्वास रहा है कि भारत में पाश्चात्य और भारतीय परम्पराओं के समन्वित चिन्तन के आधार पर ही समाजशास्त्र का उपयोगी ढंग से विकास हो सकता है।

आपने अपने विचार प्रमुखतः निम्नलिखित पुस्तकों में व्यक्त किये हैं :-

  • Basic Concepts in Sociology
  • Modern Indian Culture
  • Diversities
  • Personality and Social Sciencel

डॉ जी. एस. घुरिये की मान्यता है कि केवल पश्चिमी सिद्धान्तों के अन्धानुकरण के आधार पर भारतीय समाज और संस्कृति को नहीं समझा जा सकता। इसके लिए पाश्चात्य और भारतीय परम्पराओं के समन्वित चिन्तन की आवश्यकता है। पश्चिम में समाजशास्त्र का जो कुछ विकास हुआ है, जो कुछ सिद्धान्त एवं अवधारणाएँ विकसित हुई हैं, जो पद्धतियाँ अपनायी गयी हैं, उन्हें भारतीय परिस्थितियों एवं समाज-व्यवस्था की विशेषताओं को ध्यान में रखे बिना उसी रूप में अपनाना किसी भी दृष्टि से हितकर नहीं होगा। अतः उनमें आवश्यकतानुसार संशोधन करके भारतीय परम्पराओं को ध्यान में रखकर समन्वित चिन्तन के आधार पर ही भारत में समाजशास्त्र का विकास किया जाना चाहिए। आपकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख पहले किया जा चुका है। डॉ. आर एन. सक्सेना भी उपयुक्त प्रवृत्ति के ही समर्थक हैं। आपकी मान्यता है कि परम्परागत भारतीय सिद्धान्तों को समझने के लिए ऐतिहासिक दृष्टिकोण को अपनाया जाना चाहिए। आपने बताया है कि पुरुषार्थ सिद्धान्त-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष व्यक्ति के सभी प्रकार के समाजिक सम्बन्धों का आधार है और समाजशास्त्र में इसके अध्ययन पर विशेष जोर दिया जाना चाहिए। आपके अनुसार प्राचीन भारतीय विचारों पर गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए।

भारत में समाजशास्त्र के विकास की अन्य प्रवृत्ति मार्क्सवादी चिन्तन से प्रभावित हैं। प्रो. डी. पी. मुकर्जी इसी प्रवृत्ति से प्रभावित रहे हैं, यद्यपि आपने सांस्कृतिक परम्पराओं के अध्ययन के आधार पर समाज-व्यवस्था को समझने पर जोर दिया है।

भारत में समाजशास्त्र के विकास में उपयुक्त विद्वानों के अतिरिक्त डॉ. पी. एन. प्रभु., प्रो. सच्चिदानन्द, डॉ. योगेश अटल, डॉ. योगेन्द्र सिंह, प्रो. एल. पी. विद्यार्थी, प्रो. राजाराम शास्त्री, प्रो. एम. एस. ए. राव, प्रो. वाई बी. दामले, डॉ. श्रमती इरावती कार्वे, डॉ. टी. के. एन. यून्निनाथ, डॉ. बृजराज चौहान, प्रो. एस. पी. नागेन्द्र आदि विद्वानों का योगदान भी काफी महत्त्वपूर्ण हैं।


समाजशास्त्र का क्षेत्र

इंकल्स कहते हैं कि “समाजशास्त्र परिवर्तनशील समाज का अध्ययन करता है, इसलिए समाजशास्त्र के अध्ययन की न तो कोई सीमा निर्धारित की जा सकती है और न ही इसके अध्ययन क्षेत्र को बिल्कुल स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जा सकता है।" क्षेत्र का तात्पर्य यह है कि यह विज्ञान कहाँ तक फैला हुआ है। अन्य शब्दों में क्षेत्र का अर्थ उन सम्भावित सीमाओं से है जिनके अन्तर्गत किसी विषय या विज्ञान का अध्ययन किया जा सकता है।

समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के सम्बन्ध में विद्वानों के मतों को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है

  1. स्वरूपात्मक अथवा विशिष्टात्मक सम्प्रदाय (Formal or Specialistic or Particularistic School)
  2. समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School)।
प्रथम मत या विचारधारा के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है और द्वितीय विचारधारा के अनुसार समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है। इनमें से प्रत्येक विचारधारा को हम यहाँ स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे।


स्वरूपात्मक सम्प्रदाय (Formal School)

इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक जर्मन समाजशास्त्री जार्ज सिमैल हैं। इस सम्प्रदाय से सम्बन्धित अन्य विद्वानों में वीरकान्त, वान विज, मैक्स वेबर तथा टानीज आदि प्रमुख हैं। इस विचारधारा से सम्बन्धित समाजशास्त्रियों की मान्यता है कि अन्य विज्ञानों जैसे राजनीतिशास्त्र, भूगोल, अर्थशास्त्र, इतिहास, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र आदि के समान समाजशास्त्र भी एक स्वतन्त्र एवं विशेष विज्ञान है। जैसे प्रत्येक विज्ञान की अपनी कोई प्रमुख समस्या या सामग्री

होती है जिसका अध्ययन उसी शास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है, उसी प्रकार समाजशास्त्र के अन्तर्गत अध्ययन की जाने वाली भी कोई मुख्य सामग्री या समस्या होनी चाहिए। ऐसा होने पर ही समाजशास्त्र एक विशिष्ट एवं स्वतन्त्र विज्ञान बन सकेगा और इसका क्षेत्र निश्चित हो सकेगा। इस सम्प्रदाय के मानने वालों का कहना है कि यदि समाजशास्त्र को सम्पूर्ण समाज का एक सामान्य अध्ययन बनाने का प्रयत्न किया गया तो वैज्ञानिक आधार पर ऐसा करना सम्भव नहीं होगा। ऐसी दशा में समाजशास्त्र एक खिचड़ी-शास्त्र बन जायेगा। अतः समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान बनाने के लिए यह आवश्यक है कि इसके अन्तर्गत सभी प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन नहीं करके इन सम्बन्धों के विशिष्ट स्वरूपों का अध्ययन किया जाए। सामाजिक सम्बन्धों के 'स्वरूपात्मक पक्ष' पर जोर देने के कारण ही इस सम्प्रदाय को 'स्वरूपात्मक सम्प्रदाय' कहा जाता है।

इस सम्प्रदाय या विचारधारा से सम्बन्धित प्रमुख विद्वानों के विचार इस प्रकार हैं


1. जार्ज सिमैल के विचार (Views of George Simmel)

जार्ज सिमेल समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान बनाना चाहते थे। आपने समाजशास्त्र को सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन माना है। आपकी मान्यता है कि यदि अन्य विज्ञानों के समान समाजशास्त्र भी सामाजिक सम्बन्धों की अन्तर्वस्तु का अध्ययन करने लगा तो यह एक विशिष्ट विज्ञान नहीं बन सकेगा। अतः समाजशास्त्र को सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करना चाहिए। आपके अनुसार सभी भौतिक एवं अभौतिक वस्तुओं का अपना एक स्वरूप (Form) और एक अन्तर्वस्तु (Content) होती है जो एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। स्वरूप और अन्तर्वस्तु का एक-दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उदाहरण के रूप में तीन एक-से स्वरूप वाली बोतलों में से एक में पानी, दूसरी में दूध और तीसरी में शराब भरी जा सकती है। पानी, दूध और शराब का बोतलों के स्वरूप पर और इनके स्वरूप का बोतलों की अन्तर्वस्तु (पानी, दूध, शराब) पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। बोतल की विशेष आकृति या बनावट उसका स्वरूप है और उसमें भरा हुआ पानी, दूध या शराब उसकी अन्तर्वस्तु है। इसी प्रकार सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूप और अन्तर्वस्तु में भी अन्तर पाया जाता है और ये भी एक-दूसरे को प्रभावित नहीं करते। अनुकरण (Imitation), सहयोग (Cooperation), प्रतिस्पर्धा (Competition), प्रभुत्व (Domination), अधीनता (Subordination), श्रम-विभाजन (Division of Labour) आदि सामाजिक सम्बन्धों के प्रमुख स्परूप हैं। समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के इन्हीं स्वरूपों का अध्ययन करने वाला विज्ञान है। सामाजिक सम्बन्धों के ये स्वरूप जब विभिन्न अन्तर्वस्तुओं जैसे आर्थिक संघ, धार्मिक संघ, राजनीतिक दल आदि में पाये जाते हैं तो इनका अध्ययन समाजशास्त्र के अन्तर्गत नहीं किया जाकर अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है। अतः समाजशास्त्र को तो केवल सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का ही अध्ययन करना चाहिए न कि अन्तर्वस्तुओं का। सिमैल के अनुसार, अन्य सामाजिक विज्ञानों में सामाजिक सम्बन्धों की अन्तर्वस्तु का और एक विशेष विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र में सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन किया जाता है।


2. वीर कान्त के विचार (Views of Vier Kant)

वीर कान्त भी समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान बनाने के समर्थक थे। आपने बताया है कि यदि समाजशास्त्र को अस्पष्टता एवं अनिश्चितता के आरोपों से बचाना है तो उसे किसी मूर्त समाज का ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन नहीं करना चाहिए। समाजशास्त्र को तो एक विशिष्ट विज्ञान के रूप में मानसिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करना चाहिए जो व्यक्तियों को एक-दूसरे से अथवा समूह से बांधते हैं। समाजशास्त्र इस पर विचार नहीं करता कि पिता और पुत्र में अथवा माता और पुत्री में क्या सम्बन्ध हैं? वह तो यश, सम्मान, प्रेम, लज्जा, स्नेह, समर्पण, घृणा, सहयोग, संघर्ष आदि भावनात्मक या मानसिक पहलुओं का अध्ययन करता है। इन्हीं के आधार पर विभिन्न सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं और इन्हीं सामाजिक सम्बन्धों से समाज का निर्माण होता है। अतः समाजशास्त्र को इन्हीं मानसिक अथवा भावनात्मक तत्वों या सम्बन्धों के स्वरूपों तक अपने को सीमित रखना चाहिए। स्वयं वीर कान्त ने लिखा है, "समाजशास्त्र उन मानसिक सम्बन्धों के अन्तिम स्वरूपों का अध्ययन है जो कि मनुष्यों को एक-दूसरे से बांधते हैं।"


3. वान विज के विचार (Views of Von Wiese)

वान विज भी सिमैल के समान समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान बनाने के पक्ष में थे। आपने लिखा है कि समाजशास्त्र एक विशिष्ट सामाजिक विज्ञान है जो कि मानवीय सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन है और यही उसका विशिष्ट क्षेत्र है। आपने सामाजिक सम्बन्धों के 650 स्वरूपों का उल्लेख करते हुए बताया है कि समाजशास्त्र को इन्हीं स्वरूपों के अध्ययन में अपने आपको लगाना चाहिए।


4. मैक्स बेवर के विचार (Views of Max Weber)

मैक्स वेबर समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान मानते हैं। आपके अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन है। सामाजिक क्रियाओं को आपने उन व्यवहारों के रूप में स्पष्ट किया है जो कि अर्थपूर्ण हैं और साथ ही जो अन्य व्यक्तियों के व्यवहारों से प्रभावित होते हैं। मैक्स वेबर की मान्यता है कि सामाजिक क्रियाओं का आधार व्यवहार है। अतः समाजशास्त्र का कार्य सामाजिक व्यवहार को समझना और उसकी व्याख्या करना है। आपके अनुसार, सामाजिक क्रियाओं की विस्तृत व्याख्या एवं विश्लेषण से ही समाजशास्त्र में अनुभव और तर्क पर आधारित नियमों का निर्माण किया जा सकता है। आपने बताया है कि यदि समाजशास्त्र के अन्तर्गत सभी प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन किया जायेगा, तो इसका क्षेत्र अस्पष्ट और असीमित हो जायेगा। अतः यह आवश्यक है कि सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन निश्चित सीमा में ही किया जाये। इस दृष्टि से मैक्स वेबर मानते हैं कि समाजशास्त्र में सामाजिक क्रिया (Social Action) का ही अध्ययन किया जाना चाहिए।


स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के अन्य समर्थकों में टानीज, बोगल, रॉस, पार्क एवं बर्गेस आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इस सम्प्रदाय से सम्बन्धित सभी विद्वान समाजशास्त्र के क्षेत्र को सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों के अध्ययन तक सीमित मानते हैं। उपर्युक्त सभी विद्वानों का समाजशास्त्र को अन्य सामाजिक विज्ञानों से स्वतन्त्र एक विशिष्ट विज्ञान बनाने का प्रयत्न रहा है।


स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की आलोचना (Criticism of Formal School)

स्वरूपात्मक सम्प्रदाय पर अनिश्चितता और अस्पष्टता का आरोप है। इस सम्प्रदाय के समर्थकों के सम्बन्ध में फिचर (Fichter) का कहना है कि इन्हें समाजशास्त्री नहीं कहकर सामाजिक दार्शनिक कहना ठीक होगा क्योंकि इन्होंने सामाजिक जीवन की व्यावहारिक प्रकृति को समझने का प्रयत्न नहीं किया।

इस सम्प्रदाय की प्रमुख कमियां निम्न हैं :

  1. स्वरूपात्मक सम्प्रदाय से सम्बन्धित विद्वानों का यह कहना गलत है कि सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन किसी अन्य विज्ञान के द्वारा नहीं किया जाता, अतः समाजशास्त्र को एक नवीन विज्ञान के रूप में इनका अध्ययन करना चाहिए। ऐसा कहना निराधार है। सामाजिक सम्बन्धों के बहुत-से स्वरूप जैसे-प्रभुत्व, सत्ता, शक्ति, स्वामित्व, आज्ञा-पालन, दासता, संघर्ष आदि का अध्ययन कानूनशास्त्र में काफी व्यवस्थित रूप में किया जाता है। सोरोकिन ने लिखा है, "स्वरूपों का अध्ययन अन्य विज्ञानों द्वारा भी किया जाता है, अतः समाजशास्त्र के लिए मानवीय सम्बन्धों के स्वरूपों के विज्ञान के रूप में कोई स्थान नहीं है।"
  2. इस सम्प्रदाय के समर्थकों ने स्वरूप तथा अन्तर्वस्तु में भेद किया है और इन्हें एक-दूसरे से पृथक् माना है, लेकिन सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूप तथा अन्तर्वस्तु को एक-दूसरे से पृथक् करना सम्भव नहीं है। इस सम्बन्ध में सोराकिन ने लिखा है, "हम एक गिलास को शराब, पानी या शक्कर से बिना उसके स्वरूप को परिवर्तित किये हुए भर सकते हैं, परन्तु मैं एक सामाजिक संस्था के विषय में कल्पना भी नहीं कर सकता कि उसका स्वरूप उसके सदस्यों के बदल जाने के बाद भी परिवर्तित नहीं होगा।" स्पष्ट है कि जब सामाजिक सम्बन्धों के क्षेत्र में स्वरूप और अन्तर्वस्तु को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता है तो समाजशास्त्र के अन्तर्गत केवल सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करना भी सम्भव नहीं है।
  3. इस सम्प्रदाय के समर्थक समाजशास्त्र को अन्य सभी सामाजिक विज्ञानों से पृथक् एक स्वतन्त्र और परिशुद्ध विज्ञान (Pure Science) बनाना चाहते हैं, परन्तु ऐसा होना सम्भव नहीं है। इसका कारण यह है कि विभिन्न सामाजिक विज्ञानों में पारस्परिक निर्भरता पायी जाती है। सभी सामाजिक विज्ञान थोड़ी-बहुत मात्रा में एक-दूसरे से कुछ ग्रहण करते हैं। सोरोकिन ने इस सम्बन्ध में लिखा है, "शायद ही ऐसा कोई विज्ञान हो जो अन्य विज्ञानों से किसी न किसी रूप में सम्बन्ध न रखता हो।"
  4. इस सम्प्रदाय के समर्थक समाजशास्त्र को एक नवीन विज्ञान मानते हुए इसके अध्ययन-क्षेत्र को सीमित रखने पर जोर देते हैं। उनके अनुसार, समाजशास्त्र का अध्ययन-क्षेत्र सामाजिक सम्बन्धों के कुछ विशिष्ट स्वरूपों तक ही सीमित है, परन्तु उनकी इस प्रकार की मान्यता ठीक नहीं है। यदि इस सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार समाजशास्त्र में केवल सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन किया जाए तो सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्ष समाजशास्त्र के अन्तर्गत नहीं आयेंगे। ऐसी दशा में इसका क्षेत्र बहुत ही सीमित हो जायेगा जो कि विषय के विकास की दृष्टि से उचित नहीं है।
  5. समाजशास्त्र समग्र रूप में समाज का विज्ञान है। आज यह प्रमाणित हो चुका है कि सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्ष एक-दूसरे के साथ घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। यदि सामाजिक जीवन के किसी एक भाग या पक्ष में कोई परिवर्तन आता है तो उसका प्रभाव अन्य भागों या पक्षों पर भी पड़ता है। अतः इस सम्प्रदाय के समर्थकों के अनुसार, समाजशास्त्र के अन्तर्गत केवल सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों के अध्ययन पर ज़ोर देना सामाजिक जीवन के अन्य पक्षों की अवहेलना करना है जो कि किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।
  6. इस सम्प्रदाय के समर्थकों ने समाजीकरण के स्वरूपों और सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों में कोई अन्तर नहीं किया है तथा दोनों को एक-दूसरे का पर्यायवाची मान लिया है, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है। सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों में केवल समाजीकरण के ही नहीं बल्कि असमाजीकरण के स्वरूप भी मौजूद हैं।

स्पष्ट है कि इस सम्प्रदाय की मान्यताएं सही नहीं हैं। इसके समर्थक समाजशास्त्र के अध्ययन-क्षेत्र को ठीक से स्पष्ट करने में असमर्थ रहे हैं।


समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School)

इस सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थकों में सोरोकिन, दुर्थीम, हॉबहाउस तथा गिन्सबर्ग आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं जो समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान बनाने के बजाय एक सामान्य विज्ञान बनाने के पक्ष में हैं। इन विद्वानों के अनुसार समाज के सम्बन्ध में सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए समाजशास्त्र के क्षेत्र को केवल सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों तक सीमित नहीं रखा जा सकता।

इसे तो सम्पूर्ण समाज का सामान्य अध्ययन करना है और इस सम्बन्ध में इस सम्प्रदाय के समर्थकों ने दो तर्क दिये हैं-

  1. समाज की प्रकृति जीवधारी शरीर के समान है जिसके विभिन्न अंग एक-दूसरे के साथ घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं और एक अंग में होने वाला कोई भी परिवर्तन दूसरे अंगों को प्रभावित किए बिना नहीं रह सकता है। अतः समाज को समझने के लिए उसकी विभिन्न इकाइयों या अंगों के पारस्परिक सम्बन्ध को समझना अत्यन्त आवश्यक है। यह कार्य उसी समय हो सकता है जब समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान बनाया जाए और इसके क्षेत्र को काफी व्यापक रखा जाए।
  2. समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान बनाने के पक्ष में एक अन्य तर्क यह दिया गया है कि प्रत्येक सामाजिक विज्ञान के द्वारा समाज के किसी एक भाग या पक्ष का ही अध्ययन किया जाता है। उदाहरण के रूप में, राजनीतिशास्त्र द्वारा समाज के एक पक्ष-राजनीतिक जीवन का ही अध्ययन किया जाता है। इसी प्रकार अर्थशास्त्र के द्वारा आर्थिक जीवन का अध्ययन किया जाता है। ऐसा कोई भी सामाजिक विज्ञान नहीं है जो सामाजिक जीवन के सभी पक्षों का या सम्पूर्ण समाज का समग्र रूप में अध्ययन करता हो। अतः समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान के रूप में यह कार्य करना है। ऐसा होने पर ही समाज की वास्तविक प्रकृति को समझा जा सकता है। इसके अभाव में समाज के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान काफ़ी संकुचित और एकाकी हो जायेगा। वास्तव में समाजशास्त्र को लोगों को सामाजिक जीवन की सामान्य अवस्थाओं से परिचित कराने की दृष्टि से महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है और यह उसी समय सम्भव है जब इसके क्षेत्र को एक सामान्य विज्ञान के रूप में विस्तृत किया जाए।

इस सम्प्रदाय के दृष्टिकोण को ठीक से समझने के उद्देश्य से इसके कुछ प्रमुख समर्थकों के विचार यहाँ दिये जा रहे हैं:


हॉबहाउस के विचार (Views of Hobhouse)

इंग्लैण्ड के समाजशास्त्री हॉबहाउस समन्वयात्मक सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक हैं। आपके अनुसार समाजशास्त्र को अन्य सभी सामाजिक विज्ञानों के प्रमुख सिद्धान्तों एवं सार तत्वों के बीच पाये जाने वाले सामान्य तत्वों का पता लगाना और उनका सामान्यीकरण (Generalization) करना है। समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान के रूप में विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के बीच समन्वय स्थापित करना है। समाजशास्त्र यह कार्य निम्नलिखित प्रकार से कर सकता है

  1. सभी सामाजिक विज्ञानों की प्रमुख धारणाओं के सामान्य स्वरूपों (तत्वों) की जानकारी प्राप्त करके,
  2. समाज को स्थायी रखने तथा बदलने वाले कारकों को ज्ञात करके,
  3. सामाजिक विकास की प्रवृत्ति एवं दशाओं का पता लगा करके।

यह सब कुछ उसी समय सम्भव है जब समाजशास्त्र को एक सामान्य सामाजिक विज्ञान के रूप में मान्यता दी जाए।


दुर्खीम के विचार (Views of Durkheim)

फ्रेंच समाजशास्त्री दुर्खीम ने भी समन्वयात्मक विचारधारा का समर्थन किया है। आपने बताया कि एक सामान्य समाजशास्त्र का निर्माण करना सम्भव है जो विशिष्ट विज्ञानों के विशेष क्षेत्रों के नियमों पर आधारित अधिक सामान्य नियमों से मिलकर बना हो। ये ही सामूहिक रूप में सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हीं के अध्ययन से समाज को ठीक से समझा जा सकता है। दुर्खीम ने लिखा है, "हमारा विश्वास है कि समाजशास्त्रियों को विशिष्ट विज्ञानों, जैसे कानून का इतिहास, प्रथाएँ एवं धर्म, सामाजिक अंकशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि में किये गये अन्वेषणों से नियमित रूप से परिचित रहने की बहुत अधिक आवश्यकता है क्योंकि इनमें उपलब्ध सामग्रियों से ही समाजशास्त्र का निर्माण होना चाहिए।" यद्यपि दुर्खीम समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान बनाने के पक्षधर हैं, परन्तु आपने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि पहले समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान बनाना है ताकि यह अन्य सामाजिक विज्ञानों के समान अपने स्वतन्त्र नियमों का विकास कर सके। इसके बाद इसे एक सामान्य विज्ञान के रूप में अन्य सामाजिक विज्ञानों के साथ समन्वय स्थापित करना है। अतः आपने समाजशास्त्र में सर्वप्रथम उन सामाजिक तथ्यों (Social Facts) के अध्ययन पर जोर दिया जिनसे सामाजिक प्रतिनिधान का निर्माण होता है। आपके अनुसार, "समाजशास्त्र सामूहिक प्रतिनिधानों का विज्ञान है" (Sociology is the science of collective representation)। सामूहिक प्रतिनिधानों से दुर्थीम का तात्पर्य प्रत्येक समूह या समाज में पाये जाने वाले विचारों, भावनाओं एवं धारणओं के एक कुलक (Set) से है जिन पर व्यक्ति अचेतन रूप से अपने विचारों, मनोवृत्तियों एवं व्यवहार के लिए निर्भर रहता है। इन्हें समाज के अधिकतर लोग अपना लेते हैं। दुर्खीम के अनुसार ये विचार, भावनाएँ एवं धारणाएँ ही एक सामूहिक शक्ति का रूप ग्रहण कर लेते हैं। इसी को आपने सामूहिक प्रतिनिधान नाम दिया। ये सामूहिक रूप में सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हीं के अध्ययन से समाज को ठीक से समझा जा सकता है।


सामूहिक प्रतिनिधान की दो विशेषताएँ बतायी गयी हैं

  1. ये सारे समाज में फैले होते हैं तथा व्यक्ति की शक्ति से ऊपर होते हैं।
  2. ये समाज के सभी लोगों को अनविार्य रूप से प्रभावित करते हैं।

समाजशास्त्र को इन्हीं सामूहिक प्रतिनिधानों का अध्ययन करना चाहिए ताकि विभिन्न सामाजिक समस्याओं एवं परिस्थितियों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त की जा सके।


सोरोकिन के विचार (Views of Sorokin)

आप भी समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान बनाने के पक्षधर हैं। आपने लिखा है, मान लीजिए यदि सामाजिक घटनाओं को वर्गीकृत कर दिया जाए और प्रत्येक वर्ग का अध्ययन एक विशेष सामाजिक विज्ञान करे, तो इन विशेष सामाजिक विज्ञानों के अतिरिक्त एक ऐसे विज्ञान की आवश्यकता होगी जो सामान्य एवं विशेष विज्ञानों के सम्बन्धों का अध्ययन करे।" कोई भी सामाजिक विज्ञान पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं है। प्रत्येक को किसी न किसी रूप में अन्य पर निर्भर रहना पड़ता है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक विज्ञान द्वारा समाजिक जीवन के एक पक्ष या एक विशिष्ट प्रकार की घटनाओं का अध्ययन ही किया जाता है जबकि विभिन्न घटनाएँ पारस्परिक रूप से एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। अतः एक ऐसे सामान्य विज्ञान की आवश्यकता है जो विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के निष्कर्षों में समन्वय स्थापित कर सके ताकि समाज को समग्र रूप से समझा जा सके। समाजशास्त्र का कार्य विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के पारस्परिक सम्बन्धों या उनके सामान्य तत्वों का अध्ययन करना है। सोरोकिन ने इस बात को निम्न प्रकार से समझाने का प्रयत्न किया है :

  • आर्थिक सम्बन्ध a, b, c, d, e, f
  • राजनीतिक सम्बन्ध a, b, c, g, h,i
  • धार्मिक सम्बन्ध a, b, c, j, k,l
  • वैधानिक सम्बन्ध a, b, c, m, n, o
  • मनोरंजनात्मक सम्बन्ध a, b, c, p, q, r

स्पष्ट है कि हम चाहे किसी भी प्रकार के सम्बन्ध-आर्थिक, राजनीतिक या धार्मिक स्थापित करें अथवा कोई भी क्रिया करें, उनमें कुछ सामान्य तत्व अवश्य होते हैं। इनमें a, b, c कुछ ऐसे ही सामान्य तत्व हैं। इन्हीं सामान्य तत्वों या अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन समाजशास्त्र में किया जाता है। मैकाइवर व पेज के अनुसार, "समाजशास्त्री होने के नाते हमारी रुचि सामाजिक सम्बन्धों में है, इस कारण नहीं कि वे सम्बन्ध आर्थिक, राजनीतिक अथवा धार्मिक हैं, बल्कि इस कारण कि वे साथ ही सामाजिक भी होते हैं।" सोरोकिन के अनुसार, समाजशास्त्र का अध्ययन क्षेत्र सामान्य होना चाहिए और इसे सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहलू का अध्ययन करना चाहिए।

उपर्युक्त विद्वानों के अतिरिक्त वार्ड, मोतवानी, गिन्सबर्ग आदि ने भी समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया है।


समन्वयात्मक सम्प्रदाय की आलोचना (Criticism of Synthetic School)

इस सम्प्रदाय के विरुद्ध कुछ प्रमुख आरोप इस प्रकार हैं

यदि समाजशास्त्र में सभी प्रकार के सामाजिक तथ्यों एवं प्रघटनाओं का अध्ययन किया जायेगा तो यह अन्य सामाजिक विज्ञानों की एक खिचड़ी मात्र या एक 'हरफनमौला' (Jack of all trades) विज्ञान बन जायेगा।

यदि समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान होगा तो इसका अपना कोई स्वतन्त्र क्षेत्र नहीं होगा। ऐसी दशा में इसे अन्य विज्ञानों पर आश्रित रहना पड़ेगा।

यदि समाजशास्त्र में सभी प्रकार के सामाजिक तथ्यों एवं घटनाओं का अध्ययन किया जाने लगा तो ऐसी स्थिति में यह किसी भी तथ्य या प्रघटना का पूर्णता के साथ अध्ययन नहीं कर पायेगा।

यदि समाजशास्त्र विभिन्न सामाजिक विज्ञानों का योग या संकलन मात्र होगा तो इसकी अपनी कोई निश्चित पद्धति विकसित नहीं हो पायेगी।


समाजशास्त्र विशेष एवं सामान्य विज्ञान : दोनों ही रूपों में

निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के सम्बन्ध में स्वरूपात्मक एवं समन्वयात्मक दोनों ही सम्प्रदायों के दृष्टिकोण एकाकी हैं। समाजशास्त्र न तो पूरी तरह से विशिष्ट विज्ञान है जो केवल सामाजिक सम्बन्धों के कुछ विशिष्ट स्वरूपों के अध्ययन तक अपने को सीमित रखता है और न ही सामान्य विज्ञान है जो समस्त सामाजिक प्रघटनाओं का अध्ययन करता है। वास्तविकता यह है कि समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र में दोनों दृष्टिकोण सम्मिलित हैं। जहाँ समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के अन्तर्गत एक ओर सामाजिक प्रघटनाओं के अध्ययन में विशिष्ट दृष्टिकोण पर बल दिया जाता है, वहाँ दूसरी ओर सामाजिक घटनाओं के सामान्य पक्षों का समन्वयात्मक दृष्टिकोण से भी अध्ययन किया जाता है। समाजशास्त्र में जहाँ सामान्य सामाजिक सम्बन्धों का महत्त्व है, वहाँ साथ ही विशिष्ट प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों का भी। अतः समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के अन्तर्गत 'सामान्य' एवं 'विशिष्ट' दोनों का ही अध्ययन किया जाता है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए प्रो. गिन्सबर्ग ने लिखा है, "उदाहरण के रूप में, यह सभी जानते हैं कि प्राणिशास्त्र एक अर्थ में अनेक विद्वानों का संकलन है जिसमें प्रत्येक विज्ञान स्पष्टतः एक विशिष्ट विज्ञान है, परन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इस विशिष्ट विज्ञान के अतिरिक्त एक सामान्य प्राणिशास्त्र भी होता है जो जीवन की सामान्य दशाओं का एक उन्नत ज्ञान-भण्डार है। इसी प्रकार समाजशास्त्र में भी सामाजिक जीवन के विभिन्न भागों से सम्बन्धित अनेक विशिष्ट विज्ञान हैं और इस रूप में समाजशास्त्र समस्त सामाजिक विज्ञानों के एक समग्र समूह के समान है। एक अन्य अर्थ में वह (समाजशास्त्र) स्वयं ही एक विशिष्ट विज्ञान है जिसका उद्देश्य अन्य विज्ञानों के बीच पाए जाने वाले पारस्परिक सम्बन्धों को खोजना और सामाजिक सम्बन्धों की सामान्य विशेषताओं का विवरण देना है।" स्पष्ट है कि समाजशास्त्र में ऐसे विशिष्ट विज्ञान सम्मिलित हैं जिनके द्वारा सामाजिक जीवन के विभिन्न अंगों का अध्ययन किया जाता है। साथ ही समाजशास्त्र स्वयं भी एक विशिष्ट विज्ञान है जिसका लक्ष्य सामान्य सम्बन्धों की सामान्य प्रकृति या विशेषताओं का पता लगाना है।


समाजशास्त्र के बारे में बीरस्टीड के विचार

बीरस्टीड ने समाजशास्त्र की कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया है जो इसे अन्य विज्ञानों से भिन्न बनाती हैं। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-


1. समाजशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है न कि प्राकृतिक विज्ञान

समाजशास्त्र की विषय-वस्तु अन्य विज्ञानों से भिन्न है, किन्तु अध्ययन विधि नहीं। इस आधार पर हम समाजशास्त्र को उन विज्ञानों से भिन्न कर सकते हैं जो भौतिक जगत का अध्ययन करते हैं। इस प्रकार समाजशास्त्र ज्योतिष विज्ञान, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, भूगर्भशास्त्र एवं जीवशास्त्र से भिन्न है।


2. समाजशास्त्र वास्तविकता का अध्ययन करने वाला विज्ञान है, यह एक आदर्शात्मक विज्ञान नहीं है

समाजशास्त्र 'क्या है' का अध्ययन करता है न कि 'क्या होना चाहिए' का। विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र मूल्यों की चर्चा नहीं करता, वह यह नहीं बताता कि समाज को किस दिशा में जाना चाहिए, यह सामाजिक नीति निर्धारण के लिए भी कोई सुझाव नहीं देता। इसका यह अर्थ नहीं है कि सामाजिक एवं राजनीतिक निर्णयों की दृष्टि से समाजशास्त्री ज्ञान व्यर्थ है वरन् इसका तात्पर्य यह है कि अकेला समाजशास्त्र ही अच्छाई और बुराई, सही एवं गलत, श्रेष्ठतम एवं निम्नतम आदि मानवीय मूल्यों की समस्या का अध्ययन नहीं करता। यद्यपि समाजशास्त्र यह कार्य कर सकता है और करता भी है, लेकिन केवल एक विज्ञान के रूप में। समाजशास्त्र एक निश्चित समय और स्थान में निश्चित मानव समूह के मूल्यों का उल्लेख करता है, लेकिन वह यह नहीं बताता कि उस समूह को इन मूल्यों को अपनाना चाहिए। इसी आधार पर समाजशास्त्र सामाजिक एवं राजनीतिक दर्शन, नीतिशास्त्र एवं धर्म से भिन्न है।


3. समाजशास्त्र एक विशुद्ध विज्ञान है न कि व्यावहारिक विज्ञान

समाजशास्त्र का उद्देश्य मानव समाज के बारे में ज्ञान प्राप्त करना है न कि उस ज्ञान का उपयोग करना। जिस प्रकार से भौतिकशास्त्र पुल का निर्माण नहीं करता, रसायनशास्त्र बीमार को दवाएं नहीं लिखता, उसी प्रकार से समाजशास्त्र भी लोकनीति तय नहीं करता, विधायकों को यह नहीं कहता कि कौन से कानूनों का निर्माण करना चाहिए और कौन से का नहीं, बीमार, अपंग-अपाहिज, बाल अपराधी व गरीब को किसी प्रकार की सहायता देनी चाहिए अथवा नहीं। विशुद्ध विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र तो केवल ज्ञान का ही संचय करता है जो प्रशासक, विधायक, कूटनीतिज्ञ, अध्यापक, फोरमेन, सुपरवाइजर, सामाजिक कार्यकर्ता और साधारण नागरिक के लिए लाभदायक हो सकता है, किन्तु समाजशास्त्रियों का यह कार्य नहीं है कि वे यह बताएँ कि समाजशास्त्रीय ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग कैसे किया जाए।

समाजशास्त्र का मूल विषय तो समाज के बारे में ज्ञान अर्जन करने से है जिसका उपयोग कुछ समस्याओं को हल करने के लिए किया जा सकता है, लेकिन यह अपने आप में एक व्यावहारिक विज्ञान नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए कि समाजशास्त्रीय ज्ञान व्यर्थ है या इसका व्यावहारिक उपयोग सम्भव नहीं है। इसका अर्थ यह है कि जो लोग समाजशास्त्रीय ज्ञान के संकलन में लगे हुए हैं वे सदैव से ही इस ज्ञान का उपयोग करने वाले नहीं होते और जो लोग इस ज्ञान का प्रयोग करते हैं, उनके पास इस ज्ञान को अर्जित करने के लिए साधारणत: समय, शक्ति एवं प्रशिक्षण का अभाव होता है। यही कारण है कि सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक ज्ञान को पृथक्-पृथक् किया गया है।


4. समाजशास्त्र एक अमूर्त विज्ञान है न कि मूर्त विज्ञान

समाजशास्त्र एक अमूर्त विज्ञान है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि यह अनावश्यक रूप से जटिल एवं कठिन है। इसका अर्थ तो केवल यह है कि समाजशास्त्र मानवीय घटनाओं के स्वरूपों एवं प्रतिमानों में रुचि रखता है, न कि उनके मूर्त प्रदर्शन में। समाजशास्त्र इतिहास की तरह किसी विशिष्ट युद्ध एवं क्रान्ति का अध्ययन नहीं करता वरन् युद्ध एवं क्रान्ति का सामाजिक प्रघटना के रूप में सामान्य अध्ययन करता है। यह इसका अध्ययन एक प्रक्रिया एवं सामाजिक संघर्ष के रूप में करता है। समाजशास्त्र किसी विशिष्ट सामाजिक संगठन जैसे रोटरी इण्टरनेशनल, संयुक्त राष्ट्र संघ, अहमदाबाद कपड़ा मिल मजदूर संघ आदि में रुचि नहीं रखता वरन् इसमें रुचि रखता है कि मानव अपने हितों की पूर्ति के लिए किस प्रकार का संगठन बनाता है तथा इन संगठनों एवं अन्य प्रकार के सामाजिक समूहों में क्या सम्बन्ध है? समाजशास्त्र रूसी, अंग्रेज, स्पेनवासी, इटलीवासी या अरबवासी में इसलिए रुचि नहीं रखता कि वे इन स्थानों के रहने वाले हैं वरन् इसलिए कि सभी मानव हैं, चाहे उनकी उत्पत्ति, विश्वासों, अभिवृत्तियों, कार्य करने के तरीकों, सामाजिक संगठनों में कितनी ही भिन्नता क्यों न हो। इसी अर्थ में समाजशास्त्र

एक अमूर्त विज्ञान है।


5. यह सामान्यीकरण करने वाला विज्ञान है

यह किसी विशिष्ट कानून, समाज, व्यक्ति व घटना का अध्ययन न कर सामान्य घटनाओं का अध्ययन करता है। यह मानवीय अन्तःक्रियाओं, समितियों, समूहों एवं समाजों की प्रकृति, संरचना, स्वरूप एवं अन्तर्वस्तु के सामान्य नियमों एवं सिद्धान्तों में रुचि रखता है। इतिहास की तरह यह किसी विशिष्ट समाज या घटना के विस्तृत एवं पूर्ण । वर्णन में रुचि नहीं रखता। यह इस बात का अध्ययन नहीं करता कि हिटलर, मुसोलिनी या नेपोलियन ने क्यों, कहाँ और कब युद्ध किया वरन् इसकी रुचि इस बात में है कि जब किसी समूह पर बाह्य आक्रमण होता है तो उसकी आन्तरिक दृढ़ता कैसे कायम होती है?


6. समाजशास्त्र एक तार्किक एवं अनुभवसिद्ध दोनों ही विज्ञान है

समाजशास्त्र में वैज्ञानिक पद्धति द्वारा ज्ञान का अर्जन किया जाता है। मानवीय अनुभव एवं तर्क दोनों का ही इस विज्ञान में उपयोग होता है।


7. समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है न कि विशिष्ट

समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है न कि विशिष्ट, यद्यपि यह बात समाजशास्त्रियों में आज भी विवादास्पद है। सामान्य विज्ञान होने के नाते समाजशास्त्र सभी समाजों में पाए जाने वाले सामाजिक सम्बन्धों एवं सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन करता है। मानव के धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, वैधानिक आदि सभी व्यवहारों में सामाजिक सम्बन्ध एवं सामाजिक क्रियाएँ विद्यमान होती हैं, अतः समाजशास्त्र उनका अध्ययन करता है। दूसरे शब्दों में, समाजशास्त्र उन प्रघटनाओं एवं तथ्यों का अध्ययन करता है जो सभी मानवीय अन्त:क्रियाओं में पाए जाते हैं


समाजशास्त्र की विषय-वस्तु या विषय-सामग्री

कुछ विद्वानों ने समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र (Scope) और विषय-वस्तु (Subject-matter) में किसी प्रकार का कोई अन्तर नहीं किया है तथा दोनों को एक ही मान लिया है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। इन दोनों में काफी अन्तर है। विषय-क्षेत्र का तात्पर्य उन सम्भावित सीमाओं से है जहाँ तक किसी भी विषय का अध्ययन अधिक से अधिक किया जा सकता है। विषय-वस्तु का तात्पर्य उन निश्चित बातों या विषयों से है जिनका अध्ययन एक शास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है। किसी विषय का क्षेत्र अनुमानित परिधि को और विषय-वस्तु अध्ययन के वास्तविक विषयों को व्यक्त करते हैं। समाजशास्त्र की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में यद्यपि विद्वानों में मत-भिन्नता है, परन्तु अधिकांश समाजशास्त्री सामाजिक प्रक्रियाओं, सामाजिक संस्थाओं, सामाजिक नियन्त्रण एवं सामाजिक परिवर्तन को इनके अन्तर्गत सम्मिलित करते हैं। यहाँ समाजशास्त्र की विषय-वस्तु को समझने की दृष्टि से कुछ प्रमुख विद्वानों के विचारों का उल्लेख किया जा रहा है।


सोरोकिन के विचार (Views of Sorokin)

सोरोकिन के अनुसार समाशास्त्र की विषय-वस्तु में निम्नलिखित बातें सम्मिलित की जानी चाहिए

  1. विभिन्न सामाजिक घटनाओं के पारस्परिक सम्बन्धों और सह-सम्बन्धों का अध्ययन किया जाना चाहिए। उदाहरण के रूप में, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, पारिवारिक एवं आचार-सम्बन्धी घटनाओं के परस्पर सम्बन्धों का। 
  2. सामाजिक और असामाजिक तथ्यों एवं घटनाओं के बीच पारस्परिक सम्बन्धों तथा सह-सम्बन्धों का अध्ययन किया जाना चाहिए, उदाहरण के रूप में, भौगोलिक एवं प्राणिशास्त्रीय दशाओं के सामाजिक जीवन एवं घटनाओं पर पड़ने वाले प्रभावों का।
  3. समाज की सभी सामाजिक घटनाओं की सामान्य विशेषताओं का अध्ययन किया जाना चाहिए।

समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान मानते हुए इसकी विषय-वस्तु के सम्बन्ध में सोरोकिन ने बताया है कि "समाजशास्त्र सभी प्रकार की सामाजिक घटनाओं की सामान्य विशेषताओं, उनके पारस्परिक सम्बन्धों एवं सह-सम्बन्धों का विज्ञान रहा है और या तो वैसा ही रहेगा या फिर समाजशास्त्र का अस्तिव ही नहीं रहेगा।" सोरोकिन के विचारों को सविस्तार जानने के लिए समाजशास्त्र की परिभाषा एवं विषय-क्षेत्र देखिए।


इंकल्स के विचार (Views of Inkeles)

इंकल्स ने समाजशास्त्र की विषय-वस्तु के निर्धारण के तीन पथ बताए हैं जो इस प्रकार हैं :

  1. ऐतिहासिक पथ,
  2. आनुभविक पथ,
  3. विश्लेषणात्मक पथ।

इन तीन में से प्रत्येक पथ समाशास्त्र की विषय-वस्तु को जानने में कुछ न कुछ योग देता है। इस प्रकार इंकल्स समाजशास्त्र की विषय-वस्तु ज्ञात करने के लिए आगमनात्मक पद्धति (Inductive method) का सहारा लेते हैं। हम यहाँ उपर्युक्त तीनों ही पथ या दृष्टिकोणों का उल्लेख करेंगे।


1. ऐतिहासिक पथ (Historical Path)

इसके अन्तर्गत समाजशास्त्र की विषय-वस्तु को ज्ञात करने के लिए हम उन समाजशास्त्रियों के लेखों का अध्ययन करेंगे जिन्हें समाजशास्त्र का प्रवर्तक माना जाता है। हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि इन प्रवर्तकों ने अपनी रचनाओं में किन विषयों को केन्द्र-बिन्दु माना है।

सोरोकिन ने अपनी प्रसिद्ध कृति 'Contemporary Sociological Theories' में लगभग 1,000 उन लोगों के महत्त्वपूर्ण कार्यों का उल्लेख किया है जिन्होंने आधुनिक समाजशास्त्र के विकास में योग दिया है। हॉवर्ड बेकर तथा हैरी एल्मर बारनेस ने अपनी कृति 'Social Thought from Lore to Science' के दो ग्रन्थों में लगभग 1,178 पृष्ठों में समाजशास्त्रीय इतिहास का उल्लेख किया है। आधुनिक समाजशास्त्र के विकास में चार समाजशास्त्रियों-ऑगस्ट कॉम्ट, हरबर्ट स्पेन्सर, दुर्थीम तथा मैक्स वेबर के नाम उल्लेखनीय हैं। इनका समय 19वीं सदी से लेकर 20वीं सदी के प्रारम्भ तक है। समाजशास्त्र का प्रारम्भिक विकास फ्रांस, इंग्लैण्ड एवं जर्मनी में हुआ जहाँ इन विद्वानों ने कार्य किया। इनमें से प्रत्येक विद्वान का समाजशास्त्र पर व्यक्तिगत बौद्धिक प्रभाव है।

समाजशास्त्र की वास्तविक विषय-वस्तु के निर्धारण में इन विद्वानों के विचारों से अवगत होना आवश्यक है : ऑगस्त कॉम्ट (1798-1857) समाजशास्त्र के पिता कहे जाते हैं। उन्होंने अपना अधिकांश समय समाजशास्त्र को एक विषय के रूप में स्थापित करने में लगाया न कि उसकी विषय-वस्तु को परिभाषित करने में। उनका विश्वास था कि वर्तमान में समाजशास्त्र का उप-विभाजन सम्भव नहीं है, दूर भविष्य में चाहे यह वांछित एवं सम्भव हो। अतः ऑगस्त कॉम्ट से हमें समाजशास्त्र से सम्बन्धित विषयों की कोई सूची या उप-क्षेत्र प्राप्त नहीं होते।

यद्यपि ऑगस्ट कॉम्ट समाजशास्त्र का उपक्षेत्र निर्धारण करने के प्रति उदासीन थे फिर भी उन्होंने समाजशास्त्र को प्रमुखतः दो भागों में विभक्त किया :

  • (i) सामाजिक स्थैतिकी (Social Statics)
  • (ii) सामाजिक गतिकी (Social Dynamics)

इसी आधार पर हम समाजशास्त्र की विषय-वस्तु को दो प्रमुख भागों में बांट सकते हैं और यह वर्गीकरण किसी न किसी रूप में अन्य विज्ञानों में भी देखने को मिलता है।


(i) सामाजिक स्थैतिकी के अन्तर्गत कॉम्ट समाज की संस्थाओं जैसे आर्थिक संस्था, परिवार एवं राज्य आदि के अध्ययन को सम्मिलित करते हैं। इस दृष्टि से समाजशास्त्र में विभिन्न संस्थाओं के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। स्वयं कॉम्ट लिखते हैं, "समाजशास्त्र में स्थैतिकी के अध्ययन के अन्तर्गत समाज व्यवस्था के विभिन्न अंगों की क्रिया एवं प्रतिक्रिया के नियमों का अध्ययन किया जाता है।"

आपका मत था कि समाज के अंगों को पृथक् से नहीं समझा जा सकता क्योंकि उनका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता। उन्हें एक-दूसरे के सम्बन्ध में ही देखा जाना चाहिए। इस सिद्धान्त को वे सार्वभौमिक सामाजिक अन्तर्सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Universal Social Inter-connection) कहते हैं और यह उनकी पद्धति का प्रमुख विचार कहा जाता है।


(ii) सामाजिक गतिकी (Social Dynamics)

यदि स्थैतिकी में समाज के विभिन्न अंगों के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है तो गतिकी में समाज को एक सम्पूर्ण इकाई के रूप में देखा जाता है और यह ज्ञात किया जाता है कि समय के साथ उसका विकास एवं परिवर्तन कैसे हुआ। कॉम्ट का विश्वास था कि उसने यह समस्या हल कर दी है। उनका मत था कि समाज का विकास कुछ निश्चित स्तरों से हुआ है। विभिन्न स्तरों से गुजरते समय समाज पूर्णता एवं प्रगति की ओर अग्रसर होता है।


हरबर्ट स्पेन्सर (1820-1903)

स्पेन्सर की पुस्तक 'Principles of Sociology' तीन जिल्दों में 1877 में प्रकाशित हुई जिसमें उसने समाजशास्त्र का व्यवस्थित ढंग से विश्लेषण किया है। उसने समाजशास्त्र की विषय-वस्तु एवं क्षेत्र का निर्धारण कॉम्ट की अपेक्षा व्यवस्थित ढंग से किया है। स्पेन्सर के अनुसार, समाजशास्त्र की विषय-वस्तु के अन्तर्गत परिवार, राजनीति, धर्म, सामाजिक नियन्त्रण तथा उद्योग या कार्य आदि विषय आते हैं। इनके अतिरिक्त स्पेन्सर ने समितियों, समुदायों, श्रम-विभाजन, सामाजिक विभेदीकरण एवं स्तरीकरण, ज्ञान का समाजशास्त्र तथा कला और सौन्दर्यशास्त्र के अध्ययन को भी समाजशास्त्र की विषय-वस्तु में सम्मिलित किया है। वे समाज के विभिन्न तत्वों के पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन पर भी जोर देते हैं जिससे यह ज्ञात हो सके कि इकाइयाँ किस प्रकार से सम्पूर्ण को प्रभावित एवं परिवर्तित करती हैं और सम्पूर्ण की उनके प्रति क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की जाती है। इनके पारस्परिक प्रभावों को स्पष्ट करने के लिए स्पेन्सर ने यौन सम्बन्धी मानदण्डों एवं परिवार और राजनीतिक संस्थाओं एवं धर्म के पारस्परिक सम्बन्धों का उल्लेख किया है। उसने पुरोहित व्यवस्था और अन्य संस्तरण व्यवस्थाओं के अध्ययन का भी सुझाव दिया है जिससे यह ज्ञात हो सके कि इनकी संरचना में होने वाला परिवर्तन अन्य संरचनाओं में परिवर्तन को कैसे प्रभावित करता है।


स्पेन्सर ने सम्पूर्ण समाज को समाजशास्त्रीय विश्लेषण की एक इकाई मानने का भी सुझाव दिया है। उसने विभिन्न प्रकार एवं स्तर के समाजों का तुलनात्मक अध्ययन करने का भी सुझाव दिया है। उनका मत है कि समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों को प्राप्त करने के लिए विभिन्न समाजों की संरचना एवं प्रकार्यों के तथ्यों का अध्ययन करना होगा। इस प्रकार कॉम्ट ने समाजशास्त्र का जिस प्रकार से विभाजन किया, उसकी झलक हम स्पेन्सर के विचारों में देख सकते हैं।


दुर्खीम (Durkheim, 1858-1917)

दुर्खीम ने समाजशास्त्र की विषय-वस्तु का कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं किया, किन्तु उसकी पुस्तक 'Rules of Sociological Method' तथा अन्य रचनाओं के आधार पर हम इस सन्दर्भ में उसके विचारों को ज्ञात कर सकते हैं। दुर्थीम ने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया है कि समाजशास्त्र का सम्बन्ध सामाजिक संस्थाओं एवं सामाजिक प्रक्रियाओं के अध्ययन से है। दुर्शीम ने 'Annee Sociologique' नामक प्रथम समाजशास्त्रीय पत्रिका को सात खण्डों एवं कई उपखण्डों में विभाजित किया जो कि समाजशास्त्र की विषय-वस्तु के बारे में उसके विचारों को व्यक्त करते हैं। उनके प्रमुख खण्ड इस प्रकार से हैं-

  1. सामान्य समाजशास्त्र,
  2. धर्म का समाजशास्त्र,
  3. कानून एवं नैतिकता का समाजशास्त्र जिसमें राजनीतिक संगठन, सामाजिक संगठन तथा परिवार और विवाह आदि उपखण्ड आते हैं,
  4. अपराध का समाजशास्त्र,
  5. आर्थिक समाजशास्त्र जिसमें मूल्यों का माप, व्यावहारिक समूह आदि उपखण्ड आते हैं,
  6. जनांकिकी, इसके उपखण्ड में नगरीय एवं ग्रामीण समुदाय आते हैं,

सौन्दर्य का समाजशास्त्र। दुर्खीम ने 1896 में समाजशास्त्र की विषय-वस्तु की यह रूपरेखा प्रस्तुत की जिसका उपयोग समकालीन समाजशास्त्र के पुनरावलोकन के लिए भी किया जा सकता है। दुर्खीम ने भी कॉम्ट एवं स्पेन्सर की भांति संस्थाओं के पारस्परिक सम्बन्धों एवं उनके अपने पर्यावरण के साथ सम्बन्धों के अध्ययन पर भी जोर दिया। उसने कहा कि समाजशास्त्र को सामाजिक तथ्यों (Social Facts) का अध्ययन करना चाहिए तथा आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, कानून एवं नैतिकता आदि के सामाजिक तथ्यों के पारस्परिक सम्बन्धों का भी अध्ययन किया जाना चाहिए। इसके अभाव में उन्हें स्पष्ट रूप से नहीं समझा जा सकता। दुर्खीम ने भी स्पेन्सर की तरह समाजों को समाजशास्त्रीय विश्लेषण की इकाई मानने की बात कही और विभिन्न समाजों के तुलनात्मक अध्ययन पर जोर दिया।


मैक्स वेबर (Max Weber, 1864-1920)

मैक्स वेबर ने अपना अधिकांश समय एक विशेष अध्ययन पद्धति 'वस्टेंहेन' (Verstehen) की विवेचना करने में लगाया। वर्टेहेन सामाजिक अध्ययन की एक पद्धति है, इस पद्धति से अध्ययन करने वाला व्यक्ति स्वयं को उस परिस्थिति में रखकर अध्ययन करता है जिसका वह अध्ययन करता चाहता है। वेबर सामाजिक क्रिया एवं सामाजिक सम्बन्धों को समाजशास्त्र की विषय-वस्तु मानता है। वेबर ने धर्म, आर्थिक जीवन के विभिन्न पक्षों, मुद्रा, श्रम-विभाजन, राजनीतिक दल, राजनीतिक संगठन, वर्ग, जाति, शहर एवं संगीत आदि विषयों पर विस्तृत कार्य किया। उसने धर्म के आर्थिक प्रभावों का भी अध्ययन किया।

यद्यपि इन सभी समाजशास्त्रियों ने समाजशास्त्र की विषय-वस्तु की अलग-अलग व्याख्या की है फिर भी उसमें कुछ समानताएँ पायी जाती हैं

जैसे-

  • सभी समाजशास्त्री सामाजिक संस्थाओं के अध्ययन को समाजशास्त्र में सम्मिलित करते हैं। ये संस्थाएँ परिवार से लेकर राज्य तक की संस्थाएँ हैं।
  • सभी समाजशास्त्री विभिन्न प्रकार की संस्थाओं के पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन पर जोर देते हैं।
  • सभी समाजशास्त्री यह स्वीकार करते हैं कि सम्पूर्ण समाज को समाजशास्त्रीय विश्लेषण की इकाई माना जाना चाहिए। समाजशास्त्र यह भी देखे कि सभी समाजों में कुछ समानताएँ एवं भिन्नताएँ क्यों हैं?
  • सभी समाजशास्त्री सामाजिक क्रिया या सामाजिक सम्बन्धों को समाजशास्त्र के अध्ययन के अन्तर्गत सम्मिलित करते हैं। यह विचार मुख्य रूप से वेबर द्वारा प्रतिपादित किया गया जिसे अन्य विद्वानों ने भी स्वीकार किया। 

समाजशास्त्र की पाठ्य पुस्तकों, 'अमरीकन समाजशास्त्रीय संगठन' के सदस्यों एवं प्रतिष्ठित समाजशास्त्रियों के लेखों आदि के अध्ययन से समाजशास्त्र की विषय-वस्तु के कुछ सामान्य विषय प्रकट होते हैं जिन्हें इंकल्स ने इस प्रकार प्रकट किया है-


आनुभविक पथ (Empirical Path)

इसके अन्तर्गत हम यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि आजकल के समाजशास्त्रीय किस प्रकार की समस्या का अध्ययन कर रहे हैं, उनकी अध्ययन पद्धति क्या है और वे किन विषयों से सम्बन्धित हैं। इसे जानने के लिए हमारे पास तीन स्रोत हैं:

  1. समाजशास्त्र की विभिन्न पुस्तकों में दी गई विषय सूची को ज्ञात करें।
  2. समाजशास्त्री समाजशास्त्र की किस उपशाखा से अपना सम्बन्ध जोड़ते हैं?
  3. उनके द्वारा किया शोध कार्य तथा समाजशास्त्रीय बैठकों, पत्र-पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए लेख एवं प्रतिवेदन।

इन तीनों स्रोतों के अध्ययन से जो विषय उभर कर आए हैं, उनमें प्रमुख हैं-वैज्ञानिक विधि, व्यक्तित्व और समाज, सांस्कृतिक मानव समूह, जनसंख्या, जाति एवं वर्ग, प्रजाति, सामाजिक परिवर्तन, आर्थिक संस्थाएँ, परिवार, शिक्षा एवं धर्म, सामुदायिक जीवन (ग्रामीण एवं नगरीय), सामाजिक समस्याएँ, सरकार एवं राजनीति, आदि।


विश्लेषणात्मक पथ (Analytical Path)

हम यह तर्क दे सकते हैं कि न तो समाजशास्त्र की नींव डालने वालों ने और न ही वर्तमान में समाजशास्त्री जो कर रहे हैं, वह समाजशास्त्र की विषय-वस्तु निर्धारण का उचित तरीका है। इसका निर्धारण तो तार्किक विश्लेषण के आधार पर किया जाना चाहिए। प्रत्येक मानवीय विज्ञान की शाखा की अपनी विषय-वस्तु है।

समाजशास्त्र की भी कुछ मूर्त एवं विशिष्ट विषय-वस्तु होनी चाहिए जिसका अध्ययन अन्य विज्ञानों में नहीं किया जाता हो। प्रमुख संस्थाएँ सामाजिक उत्पादन तथा सामाजिक क्रियाएँ वे क्षेत्र हैं जिन पर कोई अन्य विज्ञान दावा नहीं कर सकता है। इनमें से प्रत्येक विषय पर समाजशास्त्र में शोध कार्य एवं सिद्धान्त निर्माण का कार्य हुआ है। इस प्रकार से समाजशास्त्र को सामाजिक विज्ञानों से बचे हुए विषयों का अध्ययन करना चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं कि तब तो समाजशास्त्र कोई विशिष्ट विषय नहीं होगा और यह कई विषयों का एक झमेला हो जाएगा जिसमें वे सभी विषय आ जाएंगे जो पृथक् विज्ञान की शाखा बनने में असमर्थ रहे हैं।

यह बात सही भी है कि कभी भी विश्वविद्यालय में इनकी पृथक् शाखा की स्थापना हो सकती है, जैसे जनसंख्या

एवं जनांकिक, अपराध एवं दण्ड शास्त्र, औद्योगिक समाजशास्त्र एवं पारिवारिक समाजशास्त्र की हुई है। प्रश्न उठता है कि यदि समाजशास्त्र की इसी प्रकार से उपशाखाओं की स्थापना होती रही तो क्या समाजशास्त्र का एक पृथक् विज्ञान के रूप में अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है? इसका उत्तर इंकल्स 'नहीं' में देते हैं क्योंकि फिर भी कई ऐसे विषय बचे रहेंगे जिस पर समाजशास्त्र का ही दावा बना रहेगा, वे हैं : समाज, संस्था एवं सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन। इस प्रकार इंकल्स समाजशास्त्र की विषय-वस्तु को समाज, संस्था एवं सामाजिक सम्बन्धों के अध्ययन के रूप में देखते हैं।


इंकल्स के अनुसार समाजशास्त्र की विषय-वस्तु

इंकल्स समाजशास्त्र की विषय-वस्तु में समाज, संस्था एवं सामाजिक सम्बन्धों के अध्ययन को सम्मिलित करते हैं।


समाजशास्त्र समाज के अध्ययन के रूप में (Sociology as the Study of Society)

इंकल्स का मत है कि समाजशास्त्र को समाज के किसी एक अंग का अध्ययन न कर सम्पूर्ण समाज का अध्ययन करना चाहिए अर्थात् इसके विश्लेषण की इकाई सम्पूर्ण समाज होना चाहिए। इस अर्थ में समाजशास्त्र को समाज का निर्माण करने वाली विभिन्न संस्थाओं एवं विभिन्न समाजिक व्यवस्थाओं के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन करना चाहिए। समाज का यह अध्ययन दो प्रकार से किया जा सकता है, एक, विशिष्ट समाज के आन्तरिक विभेदीकरण के अध्ययन के रूप में, और दूसरा, सभी समाजों को एक जनसंख्या मानकर उनकी पहचान योग्य विशिष्ट विशेषताओं के अध्ययन के रूप में। इसमें यह भी ज्ञात करें कि क्या समाज का विकास कुछ निश्चित स्तरों से हुआ है? समाज की आन्तरिक समस्याएँ, समाज के निर्मायक तत्व एवं समाज में कार्यों का विभाजन किस प्रकार से किया जाता है आदि का अध्ययन भी इसमें किया जाना चाहिए। यदि विभिन्न प्रकार की संस्थाओं को संयुक्त कर दिया जाये तो उसके क्या परिणाम होंगे? उदाहरणार्थ, औद्योगिक संस्थाएं संयुक्त परिवार को किस प्रकार से प्रभावित करती हैं। यह सभी समाजशास्त्र की अध्ययन-वस्तु होनी चाहिए।

ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक समाजशास्त्र इसी प्रकार का अध्ययन करता है। मैक्स वेबर ने भी इसी प्रकार का अध्ययन किया। उसने ऐसे प्रश्न किये जैसे धार्मिक मूल्यों का मानव की आर्थिक क्रियाओं पर क्या प्रभाव पड़ता है? उसने यह भी बताया कि कुछ धार्मिक मूल्यों दूसरों की तुलना में समाज में अधिक क्रियाशील एवं प्रभावी होते हैं। वेबर ने धर्म के आर्थिक जीवन पर प्रभाव को ज्ञात करने के लिए चीन, भारत एवं प्रोटेस्टैण्ट यूरोप का अध्ययन किया और 'The Protestant. Ethic and the Spirit of Capitalism' नामक पुस्तक की रचना की जो बहुत ही विवादास्पद है। वेबर की धर्म के अध्ययन में रुचि नहीं थी वरन् वह तो धार्मिक संगठनों का सामाजिक जीवन के अन्य पक्षों, विशेष रूप से आर्थिक जीवन पर प्रभाव जानना चाहता था।


समाजशास्त्र संस्थाओं के अध्ययन के रूप में (Sociology as the Study of Institutions)

समाजशास्त्र की अध्ययन वस्तु सामाजिक सम्बन्ध ही है, यह बात प्राचीन समय से एवं सर्वमान्य रूप से स्वीकार की गई है, क्योंकि सामाजिक सम्बन्ध ही समाज की निर्मायक इकाइयाँ हैं। यह तर्क भी दिया जा सकता है कि परिवार, चर्च, स्कूल एवं राजनीतिक दल जैसी संस्थाएँ समाजशास्त्र की विशिष्ट विषय-वस्तु हैं, क्योंकि इतिहास एवं मानवशास्त्र में सम्पूर्ण समाज को ही अध्ययन की इकाई माना गया है। सामाजिक संस्थाओं के अध्ययन के सन्दर्भ में समाजशास्त्र सभी संस्थाओं की विशेषताओं को ज्ञात करेगा, उनके विभिन्न पक्षों में क्या भेद है, को ज्ञात करेगा, संस्थाओं के आकार, विशेषीकरण की मात्रा एवं स्वायत्तता में क्या समाताएँ हैं, आदि का भी अध्ययन समाजशास्त्र करता है। 1901 में दुर्खीम ने समाजशास्त्र को संस्थाओं का अध्ययन करने वाले विज्ञान के रूप में माना था। वर्तमान समय में बड़े संगठनों के महत्त्व में वृद्धि होने से संस्थाओं की सामान्य विशेषताओं के अध्ययन में भी रुचि बढ़ी है। 


समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के अध्ययन के रूप में (Sociology as the Study of Social  Relationships)

जिस प्रकार समाज को संस्थाओं की जटिल व्यवस्था माना जाता है उसी प्रकार से संस्थाएं सामाजिक सम्बन्धों की जटिल व्यवस्था मानी जाती हैं। उदाहरण के लिए, परिवार रूपी संस्था का निर्माण अनेक प्रकार के सम्बन्धों, जैसे स्त्री-पुरुष, भाई-बहन, माता-पिता एवं बच्चों, बहन-बहन आदि के सम्बन्धों से मिलकर होता है। इन सम्बन्धों का अध्ययन समाजशास्त्र में किया जाता है।

विश्लेषणात्मक आधार पर हम कह सकते हैं कि सम्बन्ध एक विशिष्ट प्रकार की विषय-वस्तु है। सामाजिक संस्थाओं की तरह ही समाजशास्त्र में सामाजिक सम्बन्धों की समानता एवं भिन्नता का अध्ययन किया जाना चाहिए। सामाजिक सम्बन्ध सामाजिक जीवन के अणु हैं तथा सामाजिक क्रिया सामाजिक जीवन का ‘परमाणु' जो कि समाजशास्त्र की विशिष्ट विषय-वस्तु हो सकती है। मैक्स वेबर ने भी समाजशास्त्र को सामाजिक क्रिया एवं सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करने वाला विज्ञान माना है। अन्य जर्मन समाजशास्त्रियों ने भी वेबर का अनुगमन

किया। वानवीजे, जार्ज सीमेल जैसे जर्मन समाजशास्त्री एवं पारसन्स जैसे अमरीकन समाजशास्त्रियों ने सामाजिक क्रिया एवं सामाजिक सम्बन्धों के अध्ययन को समाजशास्त्र की विषय-वस्तु माना है। लघु समूहों एवं औद्योगिक अनुसन्धानों में तो इनका अध्ययन और भी महत्त्वपूर्ण है।

इस प्रकार इंकल्स समाजशास्त्र की विषय-वस्तु में उन संस्थाओं एवं सामाजिक प्रक्रियाओं के अध्ययन को सम्मिलित करते हैं जिनके अध्ययन का अन्य विज्ञान दावा नहीं करते। वे इसे परिभाषित करते हुए कहते हैं, "समाजशास्त्र सामाजिक क्रियाओं की व्यवस्थाओं एवं उनके अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन है।"


दुर्खीम के विचार (Views of Durkheim)

दुर्खीम  ने समाजशास्त्र की विषय-वस्तु में सामाजिक तथ्यों (Social Facts) के अध्ययन पर विशेष जोर दिया है। आपने इस दृष्टि से समाजशास्त्र की विषय-वस्तु में निम्न विषयों को सम्मिलित किया है


सामाजिक स्वरूपशास्त्र (Social Morphology)

इसके अन्तर्गत जीवन पर भौगोलिक कारकों के प्रभावों तथा सामाजिक संगठन के साथ उनके सम्बन्धों का अध्ययन आता है। यहां जनसंख्या सम्बन्धी समस्याओं जैसे जनसंख्या का आकार, घनत्व एवं स्थानीय वितरण आदि का भी अध्ययन किया जाता है।


सामाजिक शरीरशास्त्र (Social Physiology)

इसमें समाज रूपी शरीर का निर्माण करने वाले विभिन्न अंगों जैसे-धर्म, नीति, भाषा, कानून, परिवार आदि का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाता है। ये सभी विषय समाजशास्त्र की विभिन्न शाखाओं के रूप में विकसित हो चुके हैं। उदाहरण के रूप में, धर्म का समाजशास्त्र, भाषा का समाजशास्त्र, कानून का समाजशास्त्र, परिवार का समाजशास्त्र आदि।


सामान्य समाजशास्त्र (General Sociology)

इसमें सामाजिक तथ्यों के सामान्य रूप का पता लगाने एवं उन सामान्य सामाजिक नियमों को ज्ञात करने पर जोर दिया जाता है जो सामाजिक जीवन की स्थिरता एवं निरन्तरता की दृष्टि से आवश्यक हैं तथा जिनका अन्य सामाजिक विज्ञानों के लिए भी विशेष महत्त्व है। दुर्खीम ने इस शाखा को समाजशास्त्र का दार्शनिक अंग कहा है।


सोरोकिन के विचार (Views of Sorokin)

सोरोकिन के अनुसार समाजशास्त्र की विषय-वस्तु में निम्नलिखित बातें सम्मिलित की जानी चाहिए :

  1. विभिन्न सामाजिक घटनाओं के पारस्परिक सम्बन्धों और सह-सम्बन्धों का अध्ययन किया जाना चाहिए, उदाहरण के रूप में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, पारिवारिक एवं आचार-सम्बन्धी घटनाओं के पारस्परिक सम्बन्धों का।
  2. सामाजिक और असामाजिक तथ्यों एवं घटनाओं के बीच पारस्परिक सम्बन्धों तथा सह-सम्बन्धों का अध्ययन किया जाना चाहिए। उदाहरण के रूप में, भौगोलिक एवं प्राणिशास्त्रीय दशाओं के सामाजिक जीवन एवं घटनाओं पर पड़ने वाले प्रभावों का।
  3. समाज की सभी सामाजिक घटनाओं की सामान्य विशेषताओं का अध्ययन किया जाना चाहिए। समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान मानते हुए इसकी विषय-वस्तु के सम्बन्ध में सोरोकिन ने बताया है कि "समाजशास्त्र सभी प्रकार की सामाजिक घटनाओं की सामान्य विशेषताओं, उनके पारस्परिक सम्बन्धों एवं सह-सम्बन्धों का विज्ञान रहा है और या तो वैसा ही रहेगा या फिर समाजशास्त्र का अस्तित्व ही नहीं रहेगा।"


डेविस के विचार (Views of Davis)

किंग्सले डेविस ने समाजशास्त्र की विषय-वस्तु के अन्तर्गत निम्नांकित विषयों को सम्मिलित किया है :

सामाजिक संरचना-इसके अन्तर्गत समाज व्यवस्था, उसके विभिन्न भाग एवं तत्वों का विश्लेषण किया जाता है। इसमें यह भी ज्ञात किया जाता है कि वे कौन से तत्व हैं जो सभी समाज व्यवस्था में पाये जाते हैं? परिवर्तनशील तत्व क्या होते हैं, इन परिवर्तनों का कारण तथा इनकी सीमाएँ क्या हैं?


सामाजिक कार्य

सामाजिक व्यवस्था की मूलभूत आवश्यकताएँ कौन-कौन सी होती हैं तथा सामाजिक संरचना इन्हें किस प्रकार से पूरी करती हैं? समाज के संगठन एवं उसके कार्य के बीच कोई आन्तरिक सम्बन्ध होता है, इस दृष्टिकोण से कि यदि एक में परिवर्तन आ जाए तो दूसरे में भी परिवर्तन उपस्थित हो जायेगा? सामाजिक कार्य का समाज के सदस्यों के उन उद्देश्यों से क्या सम्बन्ध होता है जो उनके मस्तिष्क में होते हैं? सामाजिक कार्यकुशलता या सामाजिक अकार्यकुशलता का यदि कोई अर्थ है तो क्या हैं?


सामाजिक अन्तःक्रिया

इसके अन्तर्गत सहयोग एवं संघर्ष का मानव जीवन में क्या स्थान है, का अध्ययन किया जाता है। पारस्परिक उद्दीपन, सामूहिक प्रतीक, समारोह एवं अनुष्ठानों का समूह-व्यवहार में क्या स्थान है, का भी अध्ययन किया जाता है।


व्यक्ति और उसका समाज

इसके अन्तर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है कि किस प्रकार से मानव व्यक्तित्व समाज की उपज है। समाज किस प्रकार विभिन्न प्रकार के व्यक्तित्वों को जन्म देता है एवं उपयोग करता है? विभिन्न प्रकार की सामाजिक परिस्थितियों में व्यक्ति की क्या प्रतिक्रियाएँ होती हैं आदि।


सामाजिक परिवर्तन

सामाजिक परिवर्तन चक्रीय होता है या किसी रेखा में? परिवर्तन लाने वाले कारक कौन-कौन से हैं तथा कौन से कारक उसमें बाधक हैं? सामाजिक परिवर्तन की गति को कैसे मापते हैं और कितनी गति से समाज के विभिन्न भाग एक-दूसरे के सम्बन्ध में परिवर्तित होते हैं।

ऊपर वर्णित सम्पूर्ण विषय-सामग्री पर ध्यानपूर्वक विचार करने पर हम पाते हैं कि समाजशास्त्र की विषय-सामग्री में मूल बात सामाजिक सम्बन्ध है। इसका कारण यह है कि समाजशास्त्र के अन्तर्गत अध्ययन किये जाने वाले सभी विषयों का प्रमुख आधार सामाजिक सम्बन्ध ही है। मैकाइवर व पेज ने स्पष्ट लिखा है कि "समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्ध के विषय में है।" आगे इसी बात को और स्पष्ट किया गया है।


समाजशास्त्र की विषय-सामग्री सामाजिक सम्बन्ध ही है।

कई विद्वान सामाजिक सम्बन्धों को ही समाजशास्त्र की विषय-सामग्री मानते हैं। यह बात कुछ विद्वानों के कथनों से स्वतः ही स्पष्ट हो जाती है। मैकाइवर एवं पेज कहते हैं, “समाजशास्त्र की विषय-वस्तु सामाजिक सम्बन्ध ही है।" चाहे समाजशास्त्र की विषय-वस्तु की सूची में कितने ही विषयों को सम्मिलित क्यों न किया जाए, परन्तु यह सत्य है कि मूल रूप में समाजशास्त्र में सामाजिक सम्बन्धों का ही अध्ययन किया जाता है। मैक्स वेबर के अनुसार, समाजशास्त्र एक ऐसा विज्ञान है जो सामाजिक सम्बन्धों एवं सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन करता है। यद्यपि आपने समाजशास्त्र के अन्तर्गत सामाजिक क्रिया (Social Action) के अध्ययन पर विशेष जोर दिया है, परन्तु यहाँ इस बात पर भी ध्यान देना आवश्यक है कि सामाजिक क्रिया भी सामाजिक सम्बन्धों के सन्दर्भ में ही हो सकती है। अन्य शब्दों में, सामाजिक क्रिया के सम्पन्न होने के लिए भी सामाजिक सम्बन्ध अत्यन्त आवश्यक हैं। यही कारण है कि समाजशास्त्र के प्रारम्भिक काल से लेकर अब तक के सभी प्रमुख समाजशास्त्री सामाजिक सम्बन्धों को ही समाजशास्त्र की विषय-वस्तु मानते हैं। वॉन विज ने सामाजिक सम्बन्धों को समाजशास्त्र की विषय-वस्तु का आधार माना है। आपके अनुसार, "सामाजिक सम्बन्ध ही समाजशास्त्र की विषय-वस्तु का वास्तविक आधार है।"


क्यूबर ने सामाजिक सम्बन्धों के इसी महत्त्व को स्वीकार करते हुए लिखा है, "समाजशास्त्र को सामाजिक सम्बन्धों के बारे में वैज्ञानिक ज्ञान के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।" सच तो यह है कि समाजशास्त्र व्यक्ति का सामाजिक प्राणी के रूप में अध्ययन करता है और व्यक्ति सामाजिक सम्बन्धों के मध्य ही सामाजिक प्राणी बनता है। वास्तव में, सामाजिक सम्बन्धों के अभाव में व्यक्ति का सामाजिक विकास सम्भव नहीं है, वह अन्य के साथ सम्बन्धित रहता हुआ ही उनसे बहुत कुछ सीखता है। इस प्रकार सामाजिक सम्बन्धों के मध्य ही उसका समाजीकरण एवं उसके व्यक्तित्व का विकास होता है।

व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के साथ विभिन्न प्रकार के सम्बन्ध स्थापित करता है, जैसे पारिवारिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि, परन्तु इन सभी प्रकार के सम्बन्धों के मूल में सामाजिक सम्बन्ध ही हैं। अन्य शब्दों में,

ये सभी प्रकार के सम्बन्ध सामाजिक सम्बन्धों की ही विभिन्न रूपों में अभिव्यक्ति है। समाजशास्त्र इन्हीं मानवीय अन्तर्सम्बन्धों की विवेचना करता है, सामाजिक सम्बन्धों के एक अंग के रूप में व्यक्ति का अध्ययन करता है।


मैकाइवर एवं पेज ने ठीक ही कहा है कि "समाजशास्त्री होने के नाते हमारा सम्बन्ध सामाजिक सम्बन्धों से है, इस कारण नहीं कि वे आर्थिक या राजनीतिक या धार्मिक हैं बल्कि इस कारण कि वे साथ ही 'सामाजिक' भी हैं।"


प्रो. मैकी ने समाजशास्त्र की विषय-सामग्री के रूप में सामाजिक सम्बन्धों के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि "ऊपरी तौर पर ऐसा मालूम पड़ता है कि सामाजिक प्रक्रियाएँ, सामाजिक संस्थाएँ तथा समाज आदि समाजशास्त्र की वास्तविक अध्ययन सामग्री हैं और अधिकतर समाजशास्त्रीय साहित्य इन्हीं सब विषयों से सम्बन्धित अध्ययनों से भरा पड़ा है, परन्तु यदि ध्यान से विचार किया जाए तो यह स्पष्टतः पता चलता है कि इन सभी तथ्यों एवं सामाजिक प्रक्रियाओं का निर्माण सामाजिक सम्बन्धों के द्वारा ही होता है। अतः चाहे हम स्थिर सामाजिक तथ्यों का अथवा परिवर्तनशील तथ्यों का अध्ययन कर रहे हों, हमारा वास्तविक लक्ष्य तो सामाजिक सम्बन्धों के एक विशेष स्वरूप का अध्ययन करना ही होता है।" स्पष्ट है कि समाजशास्त्र की विषय-सामग्री के अन्तर्गत चाहे विभिन्न विषयों का अध्ययन ही क्यों न किया जाए, परन्तु वास्तव में उन सबका आधार सामाजिक सम्बन्ध ही हैं और समाजशास्त्र में इन्हीं का अध्ययन किया जाता है।


मैकाइवर तथा पेज ने लिखा है, "समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के विषय में है, सम्बन्धों के इसी जाल को हम समाज कहते हैं।" अन्य शब्दों में, यह भी कहा जा सकता है कि समाजशास्त्र समाज का ही व्यवस्थित अध्ययन है। जब इस शास्त्र में सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है और सामाजिक सम्बन्धों के ताने-बाने या जाल को ही समाज कहा जाता है, तो यह अपने आप ही स्पष्ट हो जाता है कि समाजशास्त्र समाज का ही अध्ययन करने वाला विज्ञान है। वास्तव में, मनुष्य सर्वप्रथम सामाजिक प्राणी है और उसके बाद ही आर्थिक, राजनीतिक या धार्मिक प्राणी है। सामाजिक सम्बन्धों के बीच ही व्यक्ति का सामाजिक जीवन निर्मित होता है। इसके अभाव में एकाकी व्यक्ति की कल्पना की जा सकती है, सामाजिक प्राणी की नहीं। सामाजिक प्राणी के रूप में ही व्यक्ति अन्य के साथ आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्ध स्थापित करता है। सहयोगपूर्ण या संघर्षमय सम्बन्धों का आधार भी सामाजिक सम्बन्ध ही है। कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति सामाजिक सम्बन्धों के बीच ही पलता है तथा जीवन की विभिन्न गतिविधियों में भाग लेता है। विभिन्न सामाजिक सम्बन्धों के इस जाल अर्थात् समाज का व्यक्ति के जीवन में सर्वाधिक महत्त्व है और समाजशास्त्र इसी समाज का व्यवस्थित अध्ययन है। समाजशास्त्र किस प्रकार सामाजिक सम्बन्धों के विषय में है, इसकी विवेचना मैकाइवर एवं पेज ने इस प्रकार भी की है। आपने सामाजिक सम्बन्धों को समाज कहा है। साथ ही आपने समाज को रीति-रिवाजों और कार्य-प्रण गालियों की, अधिकार और पारस्परिक सहायता की, अनेक समूहों और उनके विभाजनों की, मानव व्यवहार के नियन्त्रणों एवं स्वाधीनताओं की व्यवस्था माना है। स्पष्ट है कि समाज के अन्तर्गत रीति-रिवाज, अधिकार, सहयोग, नियन्त्रण एवं स्वाधीनता, आदि तत्व आते हैं। समाज रूपी व्यवस्था के निर्मायक इन सभी तत्वों का आधार सामाजिक सम्बन्ध ही हैं। रीति-रिवाज, अधिकार, सहयोग, नियन्त्रण तथा स्वाधीनता विभिन्न प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों को ही व्यक्त करते हैं। इन सबसे मिलकर ही समाज बनता है। जिसे सामाजिक सम्बन्धों का जाल कहा गया है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के विषय में है, क्योंकि सामाजिक सम्बन्धों के इसी जाल को समाज कहा गया है, अतः अन्य शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि समाजशास्त्र समाज का व्यवस्थित अध्ययन है।

विभिन्न विद्वानों के विचारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि समाजशास्त्र की विषय-वस्तु सामाजिक सम्बन्ध ही है।

अतः यहाँ यह जानना आवश्यक है कि सामाजिक सम्बन्ध किसे कहते हैं, उनकी क्या विशेषताएँ हैं और उनका निर्माण किन परिस्थितियों में होता है।

सभी प्रकार के सम्बन्धों को प्रमुख रूप से हम दो भागों में बांट सकते हैं

  1. भौतिक सम्बन्ध तथा
  2. सामाजिक सम्बन्ध।


भौतिक सम्बन्ध (Physical Relationship)

दो बेजानदार वस्तुओं अथवा एक तरफ जीवित प्राणी व दूसरी तरफ बेजानदार वस्तु के बीच पाये जाने वाले सम्बन्धों को भौतिक सम्बन्ध कहते हैं। पेन तथा कागज, टेबिल व कुर्सी, चुम्बक व लोहा, सूर्य व पृथ्वी तथा आग और धुएं का सम्बन्ध भौतिक सम्बन्ध है। इसी प्रकार से लेखक व पेन, वक्ता एवं माइक तथा श्रोता एवं रेडियो के बीच भी भौतिक सम्बन्ध ही पाया जाता है। भौतिक सम्बन्धों में पारस्परिक जागरूकता (Mutual awareness) नहीं होती है, उनमें मानसिक पक्ष का अभाव होता है। भौतिक सम्बन्धों में एक के अस्तित्व का दूसरे पर प्रभाव पड़ सकता है, किन्तु उनके सम्बन्धों को सामाजिक नहीं कहा जा सकता। भौतिक सम्बन्ध रखने वाली दो वस्तुएँ एक-दूसरे से अर्थपूर्ण रूप से परिचित नहीं होती हैं। पारस्परिक जागरूकता या सहानुभूति से उनके सम्बन्ध निश्चित नहीं होते हैं। पेन कागज के बारे में व टेबिल कुर्सी के बारे में जागरूक नहीं है। लेखक, वक्ता और श्रोता क्रमशः पेन, माइक व रेडियो के बारे में जागरूक हैं, किन्तु पेन, माइक व रेडियो उनके बारे में जागरूक नहीं हैं। इस प्रकार इन सभी की जागरूकता एकतरफा है, पारस्परिक नहीं है। जब दो वस्तुओं में जागरूकता का अभाव हो या यह जागरूकता एकतरफा हो तो उनके बीच पाये जाने वाले सम्बन्धों को हम भौतिक सम्बन्ध कहेंगे।


सामाजिक सम्बन्ध (Social Relationship)

दूसरे प्रकार के सम्बन्ध सामाजिक सम्बन्ध हैं। ये सम्बन्ध केवल जीवित प्राणियों में ही पनपते हैं, क्योंकि उनमें ही पारस्परिक जागरूकता पायी जाती है और वे ही परस्पर एक-दूसरे से अर्थपूर्ण रूप से परिचित हो सकते हैं। मित्र-मित्र के, छात्र-छात्र के, पति-पत्नी के तथा मालिक व नौकर के बीच पाये जाने वाले सम्बन्ध सामाजिक सम्बन्ध हैं, क्योंकि वे जीवित, चेतन एवं मानसिक दृष्टि से जागरूक प्राणी हैं। जीवित प्राणियों में ही चेतना व मानसिक स्थिति पायी जाती है। अतः वे ही सामाजिक सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं। सामाजिक सम्बन्धों की यह विशेषता है कि वे अमूर्त होते हैं। उन्हें न तो माप-तोल सकते हैं और न ही उनका मूर्त आकार या रूप ही होता है। वे अच्छे या बुरे, सहयोगी एवं संघर्षकारी किसी भी प्रकार के हो सकते हैं। सामाजिक सम्बन्धों का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, शैक्षणिक, पारिवारिक, मनोरंजनात्मक, सांस्कृतिक आदि सभी प्रकार के सम्बन्ध सामाजिक सम्बन्धों के ही भाग हैं। सामाजिक सम्बन्धों की अन्तर्वस्तु कई प्रकार की हो सकती है जैसे–सहयोग, संघर्ष, यौन आकर्षण, विभिन्नता, कर्तव्यपरायणता अथवा आर्थिक विनिमय आदि। सामाजिक सम्बन्ध व्यक्ति के अनुकूल अथवा प्रतिकल हो सकते हैं।


समाजशास्त्र के अध्ययन-क्षेत्र एवं विषय-सामग्री की सीमाएँ

समाजशास्त्र के अध्ययन-क्षेत्र एवं विषय-वस्तु की कुछ प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं :

  1. समाजशास्त्र मानव समाज की आधारभूत विशेषताओं का अध्ययन करता है न कि पशु समाज की विशेषताओं का।
  2. समाजशास्त्र व्यक्ति के सामाजिक व्यवहारों का अध्ययन करता है न कि सभी प्रकार के व्यवहारों का।
  3. समाजशास्त्र समाज में व्याप्त सामान्य विशेषताओं एवं सामान्य नियमों का अध्ययन करता है न कि किसी विशेष समाज की विशिष्ट विशेषताओं या दशाओं का।
  4. समाजशास्त्र का अपना एक पृथक् दृष्टिकोण एवं अध्ययन क्षेत्र है यद्यपि इसके द्वारा किसी भी घटना को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों, जैसे आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि का अध्ययन किया जाता है। 
  5. समाजशास्त्र में यथार्थ तथ्यों का अध्ययन किया जाता है। यह वास्तविकता पर जोर देता है, 'क्या है' का अध्ययन करता है, न कि 'क्या होना चाहिए' का। अन्य शब्दों में, समाजशास्त्र का कल्पना, दर्शन या आदर्श से कोई सम्बन्ध नहीं है।

यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना है कि समाजशास्त्र अन्य विज्ञानों की खिचड़ी मात्र नहीं है। यह एक स्वतन्त्र सामाजिक विज्ञान है जिसका अपना एक अध्ययन-क्षेत्र और विषय-सामग्री है।


समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य

मनुष्य के चारों ओर समय-समय पर अनेक घटनाएँ घटित होती रहती हैं। इन घटनाओं से प्रभावित होकर उसने इनका अध्ययन प्रारम्भ किया। परिणामस्वरूप कई विज्ञानों का विकास किया गया जिनके द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार की घटनाओं का अध्ययन किया जाने लगा। साथ ही यह भी अनुभव किया गया कि विभिन्न विषयों से सम्बन्धित विज्ञान एक ही घटना या समान घटनाओं का अध्ययन भी करते हैं। प्रश्न यह उठा कि जब समान या एक ही घटना, तथ्य, आंकड़ों एवं सामाजिक वास्तविकताओं का अध्ययन अलग-अलग विज्ञान करते हैं तो ऐसी कौन-सी विशेषताएँ हैं जो विभिन्न विज्ञानों की पृथकता को बनाये रखने में योग देती हैं। इसका स्पष्ट उत्तर यह है कि प्रत्येक विज्ञान या घटनाओं एवं तथ्यों को देखने समझने का एक अपना नजरिया होता है, एक दृष्टिकोण होता है, एक सन्दर्भ परिधि होती है, उसे ही उस विज्ञान का परिप्रेक्ष्य (Prespective) कहा जाता है। उदाहरण के रूप में, अपराधी व्यवहार का अध्ययन समाजशास्त्री सामाजिक दृष्टिकोण (नज़रिया) से, अर्थशास्त्री आर्थिक दृष्टिकोण से, राजनीतिशास्त्री राजनीतिक दृष्टिकोण से, तो मनोवैज्ञानिक मानसिक दृष्टिकोण से या मानसिक कारकों के सन्दर्भ में करने का प्रयत्न करते हैं। स्पष्ट है कि एक ही घटना या तथ्य को विभिन्न विज्ञान पृथक-पृथक दृष्टिकोण, नज़रिये या परिप्रेक्ष्य से देखते एवं अध्ययन करते हैं। इन विज्ञानों का परिप्रेक्ष्य एवं सन्दर्भ-परिधि (Frame of Reference) अलग-अलग होते हैं जो उन्हें विशिष्टता या भिन्नता प्रदान करते हैं। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य को सविस्तार समझने के पूर्व यहाँ परिप्रेक्ष्य का अर्थ जान लेना आवश्यक है।


परिप्रेक्ष्य का अर्थ (Meaning of Perspective)

'पर्सपेक्टिव' (Perspective) जो अंग्रेजी भाषा का शब्द है, का अर्थ 'परिप्रेक्ष्य' है, पर्सपेक्टिव (परिप्रेक्ष्य) लैटिन भाषा के 'पर्सपैक्ट' (Perspect) से बना है जिसका अर्थ 'सीन थ्रू' (Seen Through) यानि ऊपर से नीचे तक देखना है। अन्य शब्दों में परिप्रेक्ष्य का अर्थ एक सिरे से दूसरे सिरे तक देखना या निरीक्षण करना है। सामाजिक विज्ञानों में इसका अर्थ प्रारम्भ से अन्त तक परीक्षण या अन्वेषण करना है। जब कोई वैज्ञानिक अपने विषय के , विशिष्ट उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए किसी तथ्य, घटना या सामाजिक वास्तविकता का अध्ययन विशेष नज़रिये या दृष्टिकोण से करता है तो वह उस विषय का परिप्रेक्ष्य कहलाता है।

सभी विषयों का घटना के अध्ययन का अपना विशेष ढंग, तरीका या दृष्टिकोण होता है। इस ढंग, तरीका या दृष्टिकोण को परिप्रेक्ष्य के नाम से पुकारते हैं। परिप्रेक्ष्य का तात्पर्य अध्ययन के क्रमबद्ध, व्यवस्थित एवं विशिष्ट दृष्टिकोण से है जो एक विषय को अन्य विषयों से विशिष्ट बनाता है। किसी भी घटना या तथ्य के अध्ययन के अनेक आयाम या पहलू होते हैं, अतः उसके व्यवस्थित विश्लेषण के लिए उसे निश्चित सीमा या परिधि में बांधना आवश्यक है। इस हेतु एक घटना के भिन्न-भिन्न सन्दर्भो को अलग-अलग किया जाता है एवं एक सन्दर्भ अथवा अध्ययन का दृष्टिकोण एक विज्ञान या विषय के अन्तर्गत आता है। इससे उसके अध्ययन की सीमा निर्धारित हो जाती है। इसे ही परिप्रेक्ष्य (Perspective) या सन्दर्भ परिधि (Frame of Reference) नाम दिया गया है। यहाँ यह जान लेना भी आवश्यक है कि किसी भी विषय को समझने के लिए उसके परिप्रेक्ष्य, दृष्टिकोण एवं सन्दर्भ परिधि को समझ लेना जरूरी है।


समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य की परिभाषा एवं अर्थ

कुछ विद्वानों ने समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य या दृष्टिकोण को इस प्रकार से परिभाषित किया है :-

थियोडोरसन एवं थियोडोरसन ने बताया है, "मूल्य, विश्वास, अभिवृत्ति एवं अर्थ व्यक्ति को सन्दर्भ एवं दृष्टिकोण उपलब्ध कराते हैं जिनके अनुसार वह परिस्थिति का निरीक्षण या अवलोकन करता है, परिप्रेक्ष्य कहलाता है।" थियोडोरसन एवं थियोडोरसन के अनुसार परिप्रेक्ष्य एवं सन्दर्भ परिधि एक-दूसरे से निकट रूप से सम्बन्धित हैं और परिप्रेक्ष्य को ठीक से समझने के लिए सन्दर्भ-परिधि को जान लेना भी आवश्यक है। आपने लिखा है, "किसी बिन्दु के दृष्टिकोण, मानदण्ड या अवधारणाओं की व्यवस्था को लेकर कोई व्यक्ति या समूह अपने अनुभव, ज्ञान तथा व्याख्याओं को संगठित करता है, उसे ही सन्दर्भ-परिधि कहा जाता है।" व्यक्ति के मूल्य तथा सामाजिक प्रतिमान (जनरीतियाँ, प्रथाएँ, रूढ़ियाँ, परम्पराएँ, संस्थाएँ) सामाजिक परिस्थिति में उसके अवलोकनों एवं निर्णयों को प्रभावित करते हैं, इन्हें ही सन्दर्भ-परिधि कहते हैं।

जी. ए. लुण्डबर्ग ने बताया है कि हमारी स्थापित आदतों की व्यवस्था ही सन्दर्भ-परिधि के निर्माण में योग देती हैं। आदतों की व्यवस्थाओं को स्पष्ट करते हुए आपने बताया है कि ये लोक-भाषा में होती हैं तथा इन्हें विश्वास, सिद्धान्त या जीवन-दर्शन के नाम से पुकारा जाता है। स्पष्ट है कि परिप्रेक्ष्य मानव द्वारा अपने अध्ययन के उद्देश्यों, सीमाओं एवं सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए निर्मित किया गया दृष्टिकोण है।

इलोय चिनोय का मानना है कि किसी भी विषय का परिप्रेक्ष्य उसमें प्रयुक्त होने वाली अवधारणाओं से ज्ञात किया जा सकता है। आपका कहना है कि किसी भी विषय या विज्ञान को समझने के लिए यह जान लेना आवश्यक है कि उसमें किन-किन मौलिक अवधारणाओं का प्रयोग किया जाता है। यदि हम इन अवधारणाओं को समझ लें तो उस विज्ञान की प्रकृति एवं परिप्रेक्ष्य का जानना हमारे लिए आसान हो जायेगा।

गुडे एवं हॉट का मानना है कि किसी भी घटना, स्थिति या वस्तु का अलग-अलग प्रकार से अध्ययन किया जा सकता है। आपने बताया है कि किसी भी विषय या विज्ञान की परिभाषा, अध्ययन का क्षेत्र, इसकी प्रकृति, सिद्धान्त, अवधारणाएँ आदि उसके परिप्रेक्ष्य को तय करती हैं। प्रत्येक विज्ञान में घटना के सभी पक्षों पर ध्यान केन्द्रित नहीं करके केवल एक पक्ष पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। सभी वैज्ञानिक अपने-अपने विषय के विशिष्ट परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए किसी एक ही घटना या तथ्य का अध्ययन करते हैं और ज्ञान की वृद्धि में योग देते हैं। 

समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य को प्रमुखतः दो भागों में बांटा गया है : प्रथम, समाजशास्त्रीय समाज, समूह, सामाजिक अन्त:क्रियाओं, सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक व्यवहार, सामाजिक संरचना, सामाजिक व्यवस्था और इनमें होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन करते हैं। वे यह पता लगाने का प्रयास करते हैं कि इन परिवर्तनों से सामाजिक व्यवस्था, सहयोग, एकीकरण, संगठन, आदि घटते हैं या बढ़ते हैं। वे इस दृष्टि से भी अध्ययन करते हैं कि इनसे कहीं अव्यवस्था, विघटन, असन्तोष, तनाव, संघर्ष आदि तो नहीं बढ़ रहे हैं।

द्वितीय, समाजशास्त्री सामाजिक प्रघटनाओं के अलावा अन्य सभी घटनाओं, तथ्यों या वस्तुओं का अध्ययन समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से करते हैं। वे यह पता लगाने का प्रयत्न करते हैं कि ये अन्य घटनाएँ, तथ्य या वस्तुएँ मानव समाज, समूह, सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक संगठन तथा सामाजिक व्यवहार को किस प्रकार प्रभावित करते हैं। अध्ययन के इस पक्ष पर अनेक समाजशास्त्रियों विशेषतः इलोय, चिनोय, लुण्डबर्ग, गुडे एवं हॉट, आदि ने जोर दिया है।

अब हम यहाँ समाजशास्त्र से घनिष्ठ सम्बन्ध रखने वाले सामाजिक विज्ञानों जैसे राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, इतिहास, मनोविज्ञान और मानवशास्त्र के दृष्टिकोण या परिप्रेक्ष्य को समझने का प्रयत्न करेंगे और साथ ही यह जानने का प्रयास करेंगे कि वे समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य से किस प्रकार भिन्नता रखते हैं।

राजनीतिशास्त्र की मुख्य रुचि सत्ता के अध्ययन में है। इस शास्त्र के द्वारा राज्य तथा राजकीय प्रशासन के अध्ययन पर विशेष जोर दिया जाता है। राजनीतिशास्त्र संगठित मानव सम्बन्धों का अध्ययन करता है और ये सामाजिक सम्बन्धों का ही एक अंग हैं। राजनीतिशास्त्री वस्तु या घटना का अध्ययन इस दृष्टिकोण से करेगा कि उसका शक्ति-सम्बन्धों, सरकार एवं विभिन्न राजनीतिक दलों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। जहाँ राजनीतिशास्त्री शक्ति-सम्बन्धों और सरकार को अपने अध्ययन के लिए विशेषतः चुनता है, वहाँ समाजशास्त्री राजनीतिक व्यवहार में रुचि लेता है, जैसे वोट देने सम्बन्धी व्यवहार में, विभिन्न राजनीतिक मामलों के बारे में सामान्य अभिवृत्तियों और मूल्यों में, राजनीतिक आन्दोलनों एवं ऐच्छिक संगठनों की सदस्यता तथा निर्णय लेने की प्रक्रिया आदि में। समाजशास्त्र में सभी प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। समाजशास्त्र सरकार सहित विभिन्न संस्थाओं के अन्तर्सम्बन्धों के अध्ययन पर जोर देता है जबकि राजनीतिशास्त्र सरकार के अन्तर्गत चलने वाली प्रक्रिया के अध्ययन से सम्बन्धित है। कई ऐसे विषय हैं जिनका राजनीतिशास्त्रियों एवं समाजशास्त्रियों दोनों ने अध्ययन किया है, किन्तु उनके परिप्रेक्ष्य में भिन्नता रही है।

अर्थशास्त्र के अन्तर्गत मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं या व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। अर्थशास्त्र को वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन एवं वितरण का अध्ययन भी कहा जाता है। इस शास्र के द्वारा व्यक्ति के धन के उत्पादन व वितरण और उपभोग से सम्बन्धित व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। धन से सम्बन्धित मानवीय क्रियाओं या गतिविधियों को प्रमुखता देने का कारण यह है कि धन आवश्यकताओं एवं इच्छाओं की पूर्ति का प्रमुख साधन है। अर्थशास्त्री किसी वस्तु का अध्ययन आर्थिक दृष्टिकोण से करेगा, वह यह पता लगाने की कोशिश करेगा कि वह वस्तु कितने में खरीदी और कितने में बेची गयी तथा उससे बेचने वाले को क्या लाभ या हानि हुई। अर्थशास्त्रियों की आर्थिक घटनाओं के सम्बन्ध में भविष्यवाणी करने की क्षमता अपूर्ण होती है और इसका कारण यह है कि वे व्यक्तिगत प्रेरणाओं या प्रयोजनों तथा संस्थात्मक बाधाओं जैसे कारकों को आवश्यक महत्त्व नहीं दे पाते हैं। समाजशास्त्री अपने विशिष्ट ज्ञान के आधार पर इनका अध्ययन करने में विशेषतः सक्षम हैं। समाजशास्त्री यह भी देखते हैं कि वस्तुओं की मांग, पूर्ति और कीमत पर प्रतिष्ठा, परम्परा और मूल्यों का क्या प्रभाव पड़ता है, उत्पादन और प्रोत्साहन का क्या सम्बन्ध है आदि।

इतिहास घटनाओं के क्रम को बताता है, भूतकाल की विशिष्ट घटनाओं का वर्णन करता है, उन घटनाओं के कार्य-कारण सम्बन्धों की विवेचना करता है। दूसरे शब्दों में, इतिहास उस समय-क्रम का पता लगाने का प्रयत्न करता है जिसमें विभिन्न घटनाएँ घटित हुईं। व्यवहार का समय क्रमानुसार व्यवस्थित अध्ययन ही इतिहास है। इतिहासकार उस क्रम का पता लगाने का प्रयत्न करता है जिसमें विभिन्न घटनाएँ घटित हुईं। दूसरी ओर, समाजशास्त्री एक ही समय में घटित होने वाली घटनाओं के मध्य पाये जाने वाले सम्बन्ध को प्रकट करने में रुचि लेता है। जहाँ इतिहासकार अपने को भूतकाल के अध्ययन तक सीमित रखते हैं, वहाँ समाजशास्त्री समकालीन घटनाओं के अध्ययन को महत्त्व देते हैं। इतिहासकार विभिन्न कालों में संस्थात्मक स्वरूपों जैसे भूस्वामित्व या परिवार में स्री-पुरुषों के सामाजिक सम्बन्धों में होने वाले परिवर्तनों में रुचि नहीं रखते। इस प्रकार के संस्थात्मक स्वरूपों में होने वाले परिवर्तनों और सम्बन्धों पर समाजशास्त्री अपना ध्यान विशेषतः केन्द्रित करते हैं।

मनोविज्ञान को मस्तिष्क या मानसिक क्रियाओं का विज्ञान माना गया है। जिस प्रकार से समाजशास्त्र का केन्द्रीय विषय समाज और सामाजिक व्यवस्था है, उसी प्रकार से मनोविज्ञान का केन्द्रीय विषय व्यक्तित्व (Personality) है। मनोविज्ञान की रुचि व्यक्ति में है न कि उसकी सामाजिक परिस्थिति में। मनोविज्ञान में संवेगों, प्रेरकों, चालकों, प्रत्यक्ष बोध (Perception), सीखना आदि का अध्ययन किया जाता है जो व्यक्ति को एक निश्चित प्रकार से व्यवहार करने को प्रेरित करते हैं। ये मानसिक प्रक्रियाएँ ही व्यक्तित्व व्यवस्था का निर्माण करती हैं। मनोवैज्ञानिक व्यक्तित्व के अध्ययन पर विशेष जोर देते हैं और समाजशास्त्री समाज की सामाजिक व्यवस्था (Social System) के अध्ययन पर। समाजशास्त्र यह जानने का विशेषतः प्रयत्न करता है कि एक समाज में लोग किस प्रकार व्यवहार करते हैं, वह व्यवहार उन लोगों की संस्कृति, उनके सामाजिक संगठन और उनकी परिस्थिति आदि कारकों से कितना प्रभावित होता है तथा साथ ही उस समाज में उस व्यवहार को किस रूप में संगठित किया जाता है। जनमत, भीड़-व्यवहार जैसे दंगे, राजनीति या धर्म के क्षेत्र में जन-आन्दोलन आदि के अध्ययन में समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के बीच का अन्तर समाप्त हो जाता है।

मानवशास्त्र विश्व के किसी भी भाग में निवास करने वाले आदिम मानव के जीवन के सभी पक्षों का अध्ययन करता है। जब हम मानवशास्त्र पर संस्कृति के विज्ञान के रूप में विचार करते हैं तो उस समय मानवशास्त्र और समाजशास्त्र एक-दूसरे के काफी निकट आ जाते हैं। जहाँ मानवशास्त्र आदिम मानव का अध्ययन करता है, वहाँ समाजशास्त्र अधिक उन्नत सभ्यताओं का। मानवशास्त्री समाजों का अध्ययन उनके समग्र रूप में या उनके विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखते हुए करते हैं, परन्तु समाजशास्त्री किसी समाज के भागों का अध्ययन करते हैं। वे साधारणतः कुछ संस्थाओं जैसे परिवार या किसी प्रक्रिया जैसे सामाजिक गतिशीलता आदि का अध्ययन करते हैं। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि विभिन्न विज्ञानों का अपना-अपना परिप्रेक्ष्य, दृष्टिकोण और अध्ययन का क्षेत्र एवं विषय-वस्तु है। समाजशास्त्र का भी अपना परिप्रेक्ष्य, दृष्टिकोण और अध्ययन-क्षेत्र है। अब हम यहाँ उसी पर चर्चा करेंगे।


समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य (Sociological Perspective)

समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत समाजशास्त्री सामाजिक क्रियाओं, सामाजिक समूहों सामाजिक सम्बन्धों, समूहों, संस्थाओं, व्यवहारों, सामाजिक व्यवस्था, अव्यवस्था, परिवर्तन, आदि सभी के अध्ययन को सम्मिलित करते हैं। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में सामाजिक घटनाओं का वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया जाता है, उन्हें कार्य-कारण के सन्दर्भ में देखा जाता है। इस प्रकार से समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य की प्रकृति वैज्ञानिक है। समाजशास्त्री किसी भी ऐसी संस्था को अपने अध्ययन के अन्तर्गत सम्मिलित कर लेते हैं जो किसी अन्य विषय के अध्ययन-क्षेत्र में नहीं आती हो। यदि कोई विषय-वस्तु या संस्था महत्त्वपूर्ण है तथा उसका अध्ययन किसी अन्य शास्त्र के अन्तर्गत नहीं किया जाता है तो समाजशास्त्र उसके अध्ययन का दायित्व अपने पर ले लेता है। समाजशास्त्र द्वारा नये-नये विषयों या क्षेत्रों को अपने अध्ययन में सम्मिलित करने का मुख्य कारण यह है कि समाजशास्त्री सामाजिक क्रिया की व्यवस्थाओं और उनके अन्त:सम्बन्धों के अध्ययन से सामान्यतः सम्बन्धित होता है। इसी के फलस्वरूप वह मानव के सामाजिक जीवन के सभी पहलुओं के अध्ययन में रुचि रखता है, चाहे उनका अध्ययन किसी शास्त्र विशेष के अन्तर्गत आता हो या नहीं आता हो।


समाजशास्त्र अन्य सभी वैज्ञानिक दृष्टिकोणों या परिप्रेक्ष्य के समान इस मान्यता को लेकर चलता है कि प्रकृति में सभी जगह व्यवस्था (Order) है जिसका पता लगाया, वर्णन किया और समझा जा सकता है। इसी प्रकार समाजशास्त्र मनुष्य के सामाजिक जीवन में व्याप्त व्यवस्था को खोजने तथा वर्णन और व्याख्या करने का प्रयत्न करता है। इंकल्स ने लिखा है कि समाज में व्यक्ति सैकड़ों-हजारों प्रकार की क्रियाएँ प्रतिदिन करते हैं, लेकिन उनसे कोई व्यवस्था उत्पन्न नहीं होती, बल्कि उन क्रियाओं में एक व्यवस्था पायी जाती है। इस व्यवस्था का ही परिणाम है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्रियाएँ इस प्रकार करता है कि दूसरों के क्रियाएँ करने और लक्ष्यों को प्राप्त करने में बाधा उपस्थित नहीं होती है, यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति दूसरे के उद्देश्यों की पूर्ति को सरल बनाता है। समाजशास्त्र का मुख्य ध्यान यह स्पष्ट करने पर रहता है कि ऐसा क्यों होता है, विभिन्न व्यक्तियों की अगणित व्यक्तिगत क्रियाओं में समन्वय से सामाजिक जीवन का प्रवाह कैसे चलता रहता है?


समाजों में समय-समय पर अव्यवस्था (Disorder) भी देखने को मिलती है। प्रत्येक समाज के जीवन में कोई न कोई ऐसा समय मिल जाता है जब वहाँ लड़ाई-झगड़े दंगे, गृह-युद्ध, हिंसा, अपराध आदि की घटनाएँ काफी बढ़ गयीं। ये घटनाएँ सामाजिक जीवन में व्यवस्था के बजाय अव्यवस्था की स्थिति को व्यक्त करती हैं। व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों ही प्रकार के जीवन में कुछ ऐसी शक्तियाँ कार्य करती रहती हैं जो व्यवस्था बनाये रखने और उसको स्थायित्व प्रदान करने में योग देती हैं। साथ ही कुछ ऐसी शक्तियाँ भी मौजूद रहती हैं जो अव्यवस्था, संघर्ष या विघटन में योग देती हैं। इनमें मौलिक दशा के रूप में व्यवस्था को माना गया है। बिना किसी न किसी प्रकार की व्यवस्था के मनुष्य का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। समाजशास्त्र सामाजिक जीवन में व्याप्त व्यवस्था के साथ-साथ अव्यवस्था का अध्ययन भी करता है। समाजशास्त्र में व्यवस्था, अव्यवस्था तथा व्यवस्थित और अव्यवस्थित परिवर्तन का अध्ययन सम्मिलित है। समाजशास्त्र सामाजिक व्यवस्थाओं में होने वाले परिवर्तनों का वर्णन और विश्लेषण भी करता है। साथ ही यह उन मौलिक प्रक्रियाओं को भी स्पष्ट करता है जिनसे एक सामाजिक व्यवस्था एक स्थिति से दूसरी में, संगठन की स्थिति में पहुँचती है। किंग्सले डेविस ने बताया है कि मौलिक रूप में समाजशास्त्री की रुचि समाजों की व्यवस्थाओं (Systems) के रूप में है और बिना प्रकारों पर ध्यान दिये सामाजिक सम्बन्धों में है। समाजशास्त्र अपना ध्यान उस तरीके पर केन्द्रित रखता है जिससे समाज अपनी एकता और निरन्तरता प्राप्त करते हैं तथा साथ ही उस तरीके पर भी जिससे वे बदलते हैं। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य को समझाने की दृष्टि से अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं, जैसे फुटबाल का अध्ययन। इसका अध्ययन अलग-अलग विज्ञानवेत्ता अपने-अपने विज्ञान के दृष्टिकोण से करेंगे। भौतिकशास्त्री, प्राणिशास्त्री, वनस्पतिशास्त्री, अर्थशास्त्री, आदि का दृष्टिकोण एक-दूसरे से भिन्न होगा। समाजशास्त्र खेल के मैदान  में सामाजिक सम्बन्धों की दृष्टि से, प्राथमिक समूह, सहयोग, संघर्ष, प्रतिस्पर्धा के दृष्टिकोण से, विभिन्न खिलाड़ियों की प्रस्थिति और भूमिका के रूप में और समग्र रूप में अलग-अलग खिलाड़ियों की क्रियाओं के आधार पर पायी जाने वाली व्यवस्था के रूप में फुटबाल पर विचार करेगा। यही समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य है। यह एक विशेष दृष्टिकोण है जो अन्य विज्ञानों के दृष्टिकोण से भिन्न है। समाजशास्त्री इसी दृष्टिकोण को लेकर विभिन्न वस्तुओं या घटनाओं का अध्ययन करता है यही कारण है कि आज कला का समाजशास्त्र, संगीत का समाजशास्त्र, धर्म का समाजशास्त्र, ज्ञान का समाजशास्त्र, परिवार का समाजशास्त्र, आदि पाये जाते हैं। समाजशास्त्री विशेष दृष्टिकोण से सामाजिक प्रघटना को देखता और उसका अध्ययन तथा विश्लेषण करता है। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में एक ओर ध्यान सामाजिक सम्बन्धों पर केन्द्रित किया जाता है और दूसरी ओर यह देखने का प्रयास किया जाता है कि किसी वस्तु या प्रघटना का हमारे सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है। यहाँ पता लगाने का प्रयत्न किया जाता है कि सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक संस्थाओं, सामाजिक समूहों, सामाजिक मूल्यों, सामाजिक प्रस्थिति और भूमिका, सामाजिक प्रक्रिया, सामाजिक नियन्त्रण, समग्र रूप में समाज में व्याप्त व्यवस्था और अव्यवस्था तथा इनमें होने वाले परिवर्तनों को विभिन्न प्रघटनाएँ किस प्रकार से प्रभावित करती हैं। यही समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य है। अन्य सामाजिक विज्ञानों के परिप्रेक्ष्य के सन्दर्भ में उपर्युक्त विवेचन से समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य स्वतः ही स्पष्ट है।

यह परिप्रेक्ष्य राजनीतिशास्त्री, अर्थशास्त्री, इतिहासकार, मनोवैज्ञानिक, मानवशास्त्री आदि के परिप्रेक्ष्य से भिन्न है। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य को प्रमुखतः दो भागों में बांटा जा सकता है

  1. वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य,
  2. मानवतावादी परिप्रेक्ष्य।


समाजशास्त्र का वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य (Scientific Perspective of Sociology)

समाजशास्त्र के जन्मदाता फ्रांस के ऑगस्त कॉम्ट ने समाजशास्त्रीय विश्लेषण में वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य का सहारा लिया। स्पेन्सर, इस्माइल दुर्थीम, मैक्स वेबर, परेटो एवं पारसन्स आदि समाजशास्त्रियों ने भी वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य को ही अपनाया। इन विद्वानों का मानना था कि मानवीय व्यवहार कुछ वैज्ञानिक नियमों तथा प्रविधियों के अनुसार सम्पन्न होता है। लोग समान परिस्थितियों में समान रूप से ही व्यवहार करते हैं। उनका यह भी मानना था कि मानवीय आचरण में कार्य-कारण का सम्बन्ध पाया जाता है तथा इसके सम्बन्ध में पूर्वानुमान या भविष्यवाणी की जा सकती है। दुर्थीम द्वारा अपनाया गया अध्ययन का तरीका वैज्ञानिक था जिसके प्रमुख कारण थे-समस्या को परिभाषित करना, यह परिकल्पना करना या उपकल्पना बनाना कि समस्या को कैसे हल किया जाए, इस

उपकल्पना की जांच करना एवं परिणामों तथा निकाले गये निष्कर्षों का विश्लेषण करना। दुखीम ने अपने अध्ययन में कारण तथा कार्य पर विशेष जोर दिया जो उसके द्वारा अपनाये गये वैज्ञानिक दृष्टिकोण का स्पष्ट प्रमाण है। मैक्स वेबर के अनुसार, सामाजिक विज्ञान मानव के ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कार्यों का अध्ययन करने के लिए वैज्ञानिक विधि का सहारा लेते हैं।

रॉबर्ट के. मर्टन (Robert K. Merton) ने बताया है कि समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य को वैज्ञानिक स्वरूप प्राप्त करने हेतु विज्ञान की प्रमुख विशेषताओं को मान्यता देनी होगी। टॉलकॉट पारसन्स (Talcott Parsons) ने अपनी वैज्ञानिक पृष्ठभूमि के कारण अपने समाजशास्त्रीय अध्ययनों में वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य को ही अपनाया। आपने प्राकृतिक विज्ञानों एवं सामाजिक विज्ञानों में अन्तर करते हुए बताया कि विषय-वस्तु की दृष्टि से ये एक-दूसरे से भिन्न हैं, परन्तु आपने सामाजिक विज्ञानों में प्राकृतिक विज्ञानों में प्रयुक्त सामान्य पद्धतियों को कार्य में लेने पर जोर दिया।

पारसन्स की मान्यता थी की अवधारणाओं तथा सैद्धन्तिक व्यवस्थाओं को आनुभविक रूप से प्रमाणित किया जाना चाहिए और उनकी इसी मान्यता ने उन्हें, प्रत्यक्षवादी (Positivist) बना दिया।

वर्तमान काल के भी कुछ ऐसे समाजशास्त्री हुए हैं जिन्होंने समाजशास्त्र में वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य को अपनाया। उदाहरण के रूप में, जैटरवर्ग ने बताया है कि समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के प्रतिपादन में नियमों को उसी प्रकार कठोरता से | लागू किया जाना चाहिए जिस प्रकार गणितज्ञ अपने गणना सम्बन्धी सिद्धान्तों की खोज करने में करते हैं। अनेक समाजशास्त्री यह मानते हैं कि समस्त सामाजिक घटनाएँ एवं मानवीय व्यवहार वैज्ञानिक रूप में संचालित होते हैं। इनमें कार्य-कारण का सम्बन्ध पाया जाता है, इनके पीछे कुछ नियम होते हैं। इन नियमों को ध्यान में रखकर ही समाज में इच्छित परिवर्तन लाये जा सकते हैं। वैज्ञानिक पद्धतियों को काम में लेते हुए आनुभविक आधार पर प्राप्त तथ्यों से सामान्यीकरण किये जा सकते हैं, मानवीय व्यवहार के सम्बन्ध में भविष्यवाणी की जा सकती है। समाजशास्त्र के विकास पर ध्यान देने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इसमें वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य को अपनाते हुए अनेक आनुभविक अध्ययन किये गये तथा कई सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये। सोरोकिन ने बताया है कि 1952 से 1965 के बीच समाजशास्त्र के क्षेत्र में असंख्य अनुसन्धान कार्य हुए तथा तथ्य विश्लेषण व आनुभविक अनुसन्धान हेतु नवीन पद्धतियों का विकास हुआ। कहने का तात्पर्य यह है कि इस समय समाजशास्त्र में पद्धतिशास्त्र पर आवश्यकता से अधिक जोर दिया गया जिसकी बर्जर ने आलोचना की और बताया कि समाजशास्त्री अपने विषय से दूर चले गये और वे मानव समाज के अध्ययन पर पूरी तरह ध्यान देने के बजाय पद्धतिशास्त्र की बारीकियों में उलझ गये। धीरे-धीरे विज्ञानवाद तथा वैज्ञानिक समाजशास्त्र के विरुद्ध आवाज उठने लगी। यह सोचा जाने लगा कि समाजशास्त्र के अध्ययन के लिए वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जाना चाहिए या सहानुभूति तथा 'वर्सटेहन' नामक नई व्यक्तिपरक पद्धतियों का। क्या समाजशास्त्र में विशुद्ध सिद्धान्त निर्माण पर ही जोर देना चाहिए या समाज की समस्याओं के प्रति भी जागरूक एवं चिन्तित होना चाहिए। इसी समय समाजशास्त्र में एक नवीन परिप्रेक्ष्य का विकास हुआ जिसे मानवतावादी या मानवीय परिप्रेक्ष्य कहते हैं।


समाजशास्त्र का मानवीय या मानवतावादी परिप्रेक्ष्य

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में परिपक्व औद्योगिक व्यवस्था की नवीन परिस्थितिों एवं समस्याओं के फलस्वरूप समाजशास्त्र का रूप परिवर्तित हुआ। अमेरिकी समाजशास्त्र में मनोवैज्ञानिक तत्व को प्रधानता देते हुए मनुष्य को इच्छा, भावना, उद्देश्य एवं बुद्धि के रूप में परिभाषित किया गया। वहाँ लोगों को नयी व्यावसायिक संरचना के लिए तैयार रहने की प्रेरणा दी गयी और उन सामाजिक समस्याओं की ओर लोगों का ध्यान खींचा गया जो औद्योगीकरण, नगरीकरण तथा प्रवास के कारण उत्पन्न हुईं। इस बदलते हुए सामाजिक परिवेश ने समाजशास्त्र में मानवीय परिप्रेक्ष्य के विकास में योग दिया। यह मानवीय परिप्रेक्ष्य समाजशास्त्र में उन उपागमों की ओर संकेत करता है जो समाज को इसमें रहने वाले लोगों के दृष्टिकोण में समझना चाहते हैं। यह परिप्रेक्ष्य समाजशास्त्र के परम्परागत प्रत्यक्षवादी या वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य के विपरीत है। समाजशास्त्र में वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य को सर्वप्रथम चुनौती यूरोप में पिछली शताब्दी के अन्त में डिल्थे (Dilthey) द्वारा आनुभविक परम्परा के विरोध में दी गई। यह चुनौती सामाजिक विज्ञानों में आनुभविक तथा प्रत्यक्षवादी परम्पराओं को दी गयी जिसमें समाजशास्त्र में कॉम्ट तथा दुर्खीम भी शामिल हैं।

वास्तव में, पिछले कुछ दशकों में विज्ञानवादिता पर आवश्यकता से अधिक जोर दिया गया। उसी की प्रतिक्रिया के रूप में मानवीय परिप्रेक्ष्य उभर कर सामने आया। मानवीय परिप्रेक्ष्य को लेकर चलने वाले समाजशास्त्रियों ने उन वर्गों, व्यक्तियों एवं समूहों के अध्ययन पर जोर दिया जो काफी समय से उपेक्षित रहे हैं तथा जिन्हें व्यवस्था द्वारा कोई संरक्षण नहीं मिल पाया है। ऐसे उपेक्षित लोगों के अध्ययन के बिना समाजशास्त्रीय ज्ञान अधूरा ही रहेगा। यहाँ लोगों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया गया है कि जहाँ समाजशास्त्र में अधिकांश लोगों का अध्ययन महत्त्वपूर्ण है, वहीं उपेक्षित लोगों, वर्गों एवं समूहों आदि का अध्ययन भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। अतः इस परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ने वाले समाजशास्त्रियों का कहना है कि वैयक्तिक पक्षों का अध्ययन किया जाना चाहिए।

मानविकी परिप्रेक्ष्य में वस्तुपरक (Objective) अध्ययन की बजाय विषयपरक (Subjective) अध्ययन पर जोर दिया गया। समाज के बजाय वैयक्तिक अध्ययन को अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया। मानविकी परिप्रेक्ष्य विज्ञानों में प्रयुक्त पद्धतियों, आंकड़ों के गणनात्मक पक्ष तथा वस्तुपरकता को सामाजिक यथार्थ (Social Reality) को ठीक से समझने में बाधक मानता है। कई बार सामाजिक यथार्थ वस्तुपरक (Objective) नहीं होकर विषयपरक (Subjective) होता है जिसे वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य को अपनाकर समझना सम्भव नहीं है, उसे तो मानविकी परिप्रेक्ष्य में ही सही रूप से समझा जा सकता है। जड़-पदार्थों का अध्ययन तो वस्तुपरकता के साथ किया जा सकता है, किन्तु सामाजिक प्रघटनाओं का अध्ययन पूर्ण वस्तुपरकता के साथ करना सम्भव नहीं है क्योंकि मनुष्य एक संवेदनशील प्राणी है, उसकी भावनाओं, विचारों आदि का प्रभाव तो सामाजिक घटनाओं पर किसी-न-किसी रूप में पड़ता ही है। वह किसी तथ्य या घटना को क्या अर्थ देता है, उसे किस रूप में समझता है, इसका अध्ययन में बहुत महत्त्व है। अतः यहाँ सामाजिक यथार्थ को समझने हेतु बोध या समझ (Understanding) पर विशेष बल दिया जाता है। 

समाजशास्त्र का मानविकी परिप्रेक्ष्य ऐसे अध्ययनों का पक्षधर नहीं है जो व्यवस्था (Establishment) के पोषक हैं। चूंकि व्यवस्था उपेक्षित लोगों के अध्ययन में बाधक है, अतः इस परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत व्यवस्था का विरोध किया जाता है। इसका लक्ष्य समाज में उन मिथ्याओं को सामने लाना या उजागर करना है जिनका आशय लेकर व्यवस्था, मूल्य, संस्था आदि अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। इस परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत तो विशेष समाज, विशेष समूह, विशेष वर्ग अथवा विशेष व्यक्ति के अध्ययन को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। मैक्स वेबर की वर्सटेहेन (Verstehen) पद्धति मानविकी समाजशास्त्र की ही एक पद्धति है जिसमें बोध या समझ पर विशेष जोर दिया जाता है।

मानववादी समाजशास्त्रियों में वे लोग आते हैं जो स्वयं को काफी संवेदनशील मानव, अवलोकनकर्ता, भागीदार तथा पूर्णतः बुद्धिजीवी मानते हैं। इसके अनुसार समाजशास्त्रियों का प्रमुख दायित्व अपने आपको दिन-प्रतिदिन के मामलों समस्याओं में लगाना है, चाहे वे मामले (समस्याएँ) नैतिक राजनीतिक या सौन्दर्यबोध से सम्बन्धित हों। ये

लोग समाजशास्त्र के लिए ऐसे ही मामलों-समस्याओं की प्रासंगिता पर जोर देते हैं। मानववादी प्रमुख जोर दैनिक घटनाओं में सम्मिलित होने पर देते हैं, जैसे विद्यार्थियों के जीवन में भागीदार बनने पर, अपनी गन्दी बस्तियों को संगठित करने के गरीबों के प्रयत्नों में, या किसी उभरते हुए सामाजिक आन्दोलन में या सैन्य बल पर अधिक खर्च करने के विरोध-स्वरूप प्रदर्शन में भाग लेने पर। मानविकी परिप्रेक्ष्य में नैतिक तटस्थता को ठीक नहीं माना जाता। 

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मानवीय परिप्रेक्ष्य वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य के विपरीत परिप्रेक्ष्य है। इसमें वैज्ञानिक पद्धति के अति संयम और नैतिक निष्पक्षता को मान्यता नहीं दी गयी है। इसमें दिन-प्रतिदिन की छोटी-छोटी घटनाओं पर ध्यान दिया जाता है। इसमें उपेक्षित एवं शोषित लोगों तथा कमजोर वर्गों के अध्ययन पर जोर दिया जाता हैं इन लोगों के अध्ययन के बिना समाजशास्त्रीय ज्ञान अधूरा ही रहेगा। इस परिप्रेक्ष्य की सहायता से ही सामाजिक यथार्थ (Social Reality) को सही रूप में समझा जा सकता है। इसमें सहभागिक अवलोकन पद्धति अर्थात् घटनाओं में अध्ययनकर्ताओं की भागीदारी को विशेषतः उपयुक्त माना जाता है।


समाजशास्त्र की प्रकृति एवं महत्त्व

कुछ विद्वान समाजशास्त्र को विज्ञान मानते हैं, जबकि कुछ इसे अध्ययन की मानवीय शाखा समझते हैं। आज भी समाजशास्त्रियों में इस सम्बन्ध में मत-भिन्नता पायी जाती है कि समाजशास्त्र विज्ञान है या नहीं अथवा क्या यह कभी विज्ञान भी बन सकता है। ऑगस्त कॉम्ट (Auguste Comte) समाजशास्त्र को सदैव एक विज्ञान मानते रहे हैं और आपने तो इसे 'विज्ञानों की रानी' की संज्ञा दी। वास्तव में किसी विषय का विज्ञान होना या विज्ञान माना जाना प्रतिष्ठा-सूचक था। अतः कुछ समाजशास्त्री समाजशास्त्र को विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते थे। ऐसा प्रयत्न करने वाले विद्वानों में दुर्थीम, मैक्स वेबर तथा परेटो आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

समाजशास्त्र को विज्ञान नहीं मानने वाले विद्वानों का कहना है कि यह विज्ञान कैसे हो सकता है, जबकि इसके पास कोई प्रयोगशाला नहीं है, जब यह अपनी विषय-सामग्री मापने में समर्थ नहीं है और जब यह भविष्यवाणी भी नहीं कर सकता है। साथ ही उनका यह भी कहना है कि सामाजिक प्रघटनाओं की स्वयं की कुछ ऐसी आन्तरिक सीमाएँ हैं जो समाजशास्त्र को एक विज्ञान का दर्जा दिलाने में बाधक हैं। यही बात अन्य सामाजिक विज्ञानों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। इस सम्बन्ध में बॉटोमोर ने लिखा है, “सामाजिक विज्ञानों की वैज्ञानिक प्रकृति के विरुद्ध एक सबल तर्क यह दिया गया है कि ये विज्ञान प्राकृतिक नियम से मिलती-जुलती कोई चीज पैदा नहीं कर पाये हैं।" समाजशास्त्र के सम्बन्ध में कुछ थोड़े से समाजशास्त्रियों का कहना है कि इसे एक पृथक् अनुशासन या विषय मानने के बजाय इतिहास या राजनीतिशास्त्र की शाखा मानना ज्यादा उपयुक्त है। सी. डब्ल्यू. मिल्स ने समाजशास्त्र को विज्ञान मानने की अपेक्षा एक क्राफ्ट (Craft) मानने का तर्क दिया है। राबर्ट बीरस्टीड का कहना है, "समाजशास्त्र का उचित स्थान केवल विज्ञानों में ही नहीं है, वरन् मानवीय मस्तिष्क को स्वतन्त्र बनाने वाले कला के विषयों में भी है।" स्पष्ट है कि समाजशास्त्र की प्रकृति के सम्बन्ध में विवाद पाया जाता है। कुछ लोग इसे विज्ञान मानते हैं, जबकि कुछ अन्य ऐसा नहीं मानते। ऐसी दशा में समाजशास्त्र की वास्तविक प्रकृति को समझने के लिए अर्थात् यह कहने के लिए कि यह विज्ञान है अथवा नहीं, सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि 'विज्ञान' शब्द के अर्थ को भली-भांति समझ लिया जाय। तत्पश्चात् यह निर्णय करना सरल हो जायेगा कि विज्ञान की कसौटी पर समाजशास्त्र खरा उतरता है अथवा नहीं।


क्या समाजशास्त्र एक विज्ञान है?

समाजशास्त्र एक विज्ञान है क्योंकि इसमें वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जाता है, अवलोकन विधि की सहायता से तथ्य एकत्रित किये जाते हैं, उन्हें व्यवस्थित और क्रमबद्ध किया जाता है, पक्षपात रहित होकर निष्कर्ष निकाले जाते हैं तथा सिद्धान्तों का निर्माण किया जाता है। समाजशास्त्र को विज्ञान मानने के प्रमुख आधार या कसौटियां निम्नलिखित हैं-


1. समाजशास्त्रीय ज्ञान का आधार वैज्ञानिक पद्धति है - समाजशास्त्र तथ्यों के संकलन के लिए वैज्ञानिक पद्धति को काम में लेता है। मूर्त और अमूर्त सामाजिक तथ्यों के अध्ययन के लिए समाजशास्त्र विभिन्न वैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग करता है। उदाहरण के रूप में, समाजशास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करने या तथ्य एकत्रित करने हेतु समाजमिति (Sociometry), अवलोकन पद्धति, अनुसूची अथवा प्रश्नावली पद्धति, सामाजिक सर्वेक्षण पद्धति, वैयक्ति जीवन अध्ययन पद्धति, सांख्यिकीय पद्धति, साक्षात्कार पद्धति, ऐतिहासिक पद्धति आदि का प्रयोग किया जाता है। इनमें से एकाधिक पद्धतियों को काम में लेते हुए सामाजिक घटनाओं का अध्ययन किया जाता है। वैज्ञानिक पद्धति के विभिन्न चरणों का उल्लेख इसी अध्याय के पहले किया जा चुका है। उन्हीं चरणों से गुजरकर समाजशास्त्रीय ज्ञान/सामाजिक तथ्य प्राप्त किये जाते हैं।


2. समाजशास्त्र में अवलोकन द्वारा तथ्यों को एकत्रित किया जाता है समाजशास्त्र को विज्ञान मानने का एक अन्य आधाार अनुसन्धानकर्ता द्वारा तथ्यों के संकलन हेतु प्रत्यक्ष निरीक्षण और अवलोकन करना है। समाजशास्त्र में काल्पनिक या दार्शनिक विचारों को कोई स्थान नहीं दिया जाता। इसमें तो अध्ययनकर्ता स्वयं घटना स्थल पर पहुँचकर घटनाओं का निरीक्षण और तथ्यों का संकलन करता है। यदि समाजशास्त्री को बाल-अपराध अथवा वेश्यावृत्ति की समस्या का अध्ययन करना है या भीड़ व्यवहार के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करनी है तो वह इनसे सम्बन्धित तथ्यों को स्वयं घटनाओं का अवलोकन करते हुए एकत्रित करेगा। 


3. समाजशास्त्र में तथ्यों का वर्गीकरण एवं विश्लेषण किया जाता है असम्बद्ध या बिखरे हुए आंकड़ों या तथ्यों के आधार पर कोई वैज्ञानिक निष्कर्ष निकालना सम्भव नहीं है। सही निष्कर्ष निकालने के लिए यह आवश्यक है कि प्राप्त तथ्यों को व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध किया जाय। इनके लिए तथ्यों को समानता के आधार पर विभिन्न वर्गों में बांटा जाता है। यह कार्य वर्गीकरण के अन्तर्गत आता है। इसके पश्चात् तथ्यों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण किया जाता है। समाजशास्त्र को विज्ञान मानने का एक प्रमुख कारण यह है कि इसमें सही निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए तथ्यों का वर्गीकरण एवं विश्लेषण किया जाता है।


4. समाजशास्त्र में ‘क्या है' का उल्लेख किया जाता है अन्य शब्दों में समाजशास्त्र में वास्तविक घटनाओं की विवेचना की जाती है। यह शास्त्र इस बात पर विचार नहीं करता कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है अथवा क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए। यह तो घटनाओं या तथ्यों का यथार्थ चित्रण करता है, वे जिस रूप में हैं, उनका ठीक वैसा ही चित्रण करता है। यह शास्त्र तो 'क्या है' का ही उल्लेख करता है। उदाहरण के रूप में, यह संयुक्त परिवार प्रथा या जाति-व्यवस्था का प्राप्त तथ्यों के आधार पर ठीक उसी रूप में उल्लेख करता है जिस रूप में वे हैं न कि यह बताने का प्रयत्न कि वे अच्छी हैं या बुरी।


5. समाजशास्त्र में कार्य-कारण सम्बन्धों की विवेचना की जाती है समाजशास्त्र 'क्या है' का वर्णन करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता है। इसमें तो घटनाओं, तथ्यों और विभिन्न समस्याओं के कार्य-कारण सम्बन्ध रों को जानने का प्रयत्न किया जाता है। यह शास्त्र तो किसी घटना या समस्या के पीछे कारणों की खोज करता है। यह तो यह मानकर चलता है कि कोई भी घटना जादुई चमत्कार से घटित नहीं होकर कुछ विशिष्ट कारणों से घटित होती है जिनका पता लगाना समाजशास्त्री का दायित्व है। कार्ल मार्क्स का वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त एवं दुर्थीम का आत्महत्या का सिद्धान्त कार्य-कारण के सह-सम्बन्ध को स्पष्ट करते है।


6. समाजशास्त्र में सिद्धान्तों की स्थापना की जाती है समाजशास्त्र में कार्य-कारण सम्बन्धों की विवेचना की जाती है। तथ्यों या घटनाओं के पारस्परिक सम्बन्ध ज्ञात किये जाते हैं, वर्गीकरण तथा विश्लेषण किया जाता है और तत्पश्चात् सामान्य निष्कर्ष निकाले जाते हैं। इन निष्कर्षों के आधार पर ही समाजशास्त्रीय सिद्धान्त या वैज्ञानिक नियम बनाये जाते हैं।


7. समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों की पुनर्परीक्षा सम्भव है समाजशास्त्र भी भौतिकशास्त्र या रसायनशास्त्र के समान अपने सिद्धान्त या नियमों की परीक्षा एवं पुनर्परीक्षा करने में सक्षम है। इस शास्त्र में वैज्ञानिक पद्धति की सहायता से तथ्य एकत्रित किये जाते हैं और इस पद्धति से प्राप्त तथ्यों की प्रमुख विशेषता यही है कि इनकी प्रामाणिकता की जांच की जा सकती है। समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों की जांच करना वास्तव में सम्भव है। उदाहरण के रूप में, तथ्यों के आधार पर प्राप्त इस निष्कर्ष की कि टूटे परिवार बाल-अपराध के लिए काफी सीमा तक उत्तरदायी हैं, अलग-अलग स्थानों पर परीक्षा और पुनर्परीक्षा की जा सकती है।


8. समाजशास्त्र के सिद्धान्त सार्वभौमिक (Universal) हैं समाजशास्त्र वैज्ञानिक पद्धति को काम में लेता हुआ जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है, वे सार्वभौमिक प्रकृति के होते है। इसका तात्पर्य यह है कि यदि परिस्थितियाँ समान रहें तो समाजशास्त्रीय सिद्धान्त विभिन्न समाजों और कालों में खरे उतरते हैं। उदाहरण के रूप में, यह सिद्धान्त सार्वभौमिक रूप से ठीक पाया गया है कि पारिवारिक विघटन सामाजिक विघटन पर आधारित है।


9. समाजशास्त्र में भविष्यवाणी (Prediction) करने की क्षमता है समाजशास्त्र इस कारण भी विज्ञान माना जाता है कि यह 'क्या है' के आधार पर 'क्या होगा' बताने में अर्थात् भविष्यवाणी करने में समर्थ है। अन्य शब्दों में, इस शास्त्र में अपने वर्तमान ज्ञान-भण्डार के आधार पर भविष्य की ओर संकेत करने की क्षमता है। समाज में वर्तमान में होने वाले परिवर्तन को ध्यान में रखकर समाजशास्त्र यह बता सकता है कि भविष्य में समाजिक व्यवस्था का रूप क्या होगा, जाति-व्यवस्था किस रूप में रहेगी तथा परिवारों के कौन से प्रकार विशेष रूप से पाये जायेंगे। समाजशास्त्र के मौजूदा ज्ञान के आधार पर कहा जा सकता है कि प्राकतिक विज्ञानों के समान यह भी भविष्यवाणी करने में काफी सीमा तक समर्थ है।


उपर्युक्त सभी आधारों पर यह कहा जा सकता है कि समाजशास्त्र एक विज्ञान है, इसमें विज्ञान के सभी आवश्यक तत्व मौजूद हैं। इसकी प्रकृति वैज्ञानिक है।


समाजशास्त्र की वास्तविक प्रकृति

सामाजशास्त्र कैसा विज्ञान है, इसकी वास्तविक प्रकृति क्या है आदि प्रश्नों का उत्तर राबर्ट बीरस्टीड ने इस प्रकार दिया है :

  • समाजशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है न कि प्राकृतिक विज्ञान।
  • समाजशास्त्र एक निरपेक्ष या वास्तविक विज्ञान है, न कि आदर्शात्मक विज्ञान।
  • समाजशास्त्र एक विशुद्ध विज्ञान है न कि व्यावहारिक विज्ञान।
  • समाजशास्त्र एक अमूर्त विज्ञान है न कि मूर्त विज्ञान।
  • समाजशास्त्र एक सामान्यीकरण विज्ञान है न कि विशेषीकरण विज्ञान।
  • समाजशास्त्र एक तार्किक और साथ ही अनुभवात्मक विज्ञान है।
  • समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है, न कि विशेष विज्ञान।

इन दोनों ही सम्प्रदायों से सम्बन्धित विद्वानों ने समाजशास्त्र को अपने-अपने दृष्टिकोण से परिभाषित किया है, परन्तु आज अधिकांश समाजशास्त्री समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान मानते हैं। इनके अनुसार, समाजशास्त्र में उन घटनाओं के अध्ययन पर जो दिया जाता है जो सभी मानवीय अन्तःक्रियाओं में सामान्य हैं। ऐसी सभी घटनाओं का अध्ययन करने के कारण ही समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान माना गया है।


समाजशास्त्र का महत्त्व / विशेषताएं

भारत जैसे विकासशील देश में समाजशास्त्र के अध्ययन का विशेष महत्त्व है ; जहाँ एक ओर अनेक सामाजिक समस्याएँ पायी जाती हैं और दूसरी ओर जहाँ देश को विभिन्न विकास योजनाओं के माध्यम से प्रगति की ओर आगे बढ़ाना है। यहाँ एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि जब समाजशास्त्र एक विशुद्ध विज्ञान है, एक सैद्धान्तिक विज्ञान है, तब इसके ज्ञान की व्यावहारिक उपयोगिता क्या है। इसका उत्तर यही है कि किसी भी विषय या विज्ञान की सैद्धान्तिक उपलब्धियों या बौद्धिक परिणामों का लाभ समाज को अवश्य मिलता है। यही बात समाजशास्त्र के सम्बन्ध में भी सही है। समाजशास्त्र के महत्त्व को विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत हम इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं


1. सम्पूर्ण मानव समाज के बारे में वैज्ञानिक ज्ञान प्रदान करने में सहायक

समाजशास्त्र एक सामान्य सामाजिक विज्ञान है जो अपने को किसी एक विशिष्ट समाज के अध्ययन तक ही सीमित नहीं रखता। इसके द्वारा तो विभिन्न समाजों के अध्ययन के आधार पर व्यवस्थित ज्ञान संकलित किया जाता है। यह ज्ञान सम्पूर्ण मानव समाज को समझने में योग देता है। साथ ही समाजशास्त्र तेजी से बदलते हुए जटिल समाजों की गतिविधियों एवं सामाजिक संरचनाओं के सम्बन्ध में भी वैज्ञानिक ज्ञान प्रदान करता है। समाजशास्त्रीय ज्ञान के आधार पर व्यक्ति का दृष्टिकोण व्यापक बनता है। वह समाजशास्त्र के अध्ययन से अपने रीति-रिवाजों, परम्पराओं, संस्थाओं एवं व्यवहार के तरीकों को ही सर्वश्रेष्ठ नहीं मानकर अन्य समाजों के तौर-तरीकों या जीवन की विधि को भी समान रूप से महत्त्व देता है। इससे विश्व-शान्ति और अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने में भी सहायता मिलती है। विभिन्न समाजों के सम्बन्ध में प्राप्त ज्ञान, व्यक्ति को सामाजिक प्राणी बनाने में सहायता करता है, व्यक्तित्व के समुचित विकास में योग देता है। समाजशास्त्र के अध्ययन से व्यक्ति को समाज के उद्देश्यों व आदर्शों को समझने में मदद मिलती है और वह उनकी प्राप्ति में योग भी दे पाता है। इसके अलावा जटिल समाजों को समझने और सामाजिक नीतियों को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए भी समाज के सम्बन्ध में वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है। समाज जितना बड़ा होगा और उसमें जितने अधिक विभेद होंगे-जाति, प्रजाति, धर्म, भाषा, प्रान्तीयता आदि के आधार पर जितने ज्यादा अन्तर होंगे, उतनी ही समाज के सम्बन्ध में वैज्ञानिक जानकारी की अधिक आवश्यकता रहेगी। यह जानकारी विभिन्न प्रकार की समस्याओं को समझने, उन्हें हल करने तथा समाज-सुधार में मदद देगी। इस प्रकार समाजशास्त्र के अध्ययन का इस दृष्टि से विशेष महत्त्व है कि यह सम्पूर्ण मानव समाज को समझने में योग देता है।


2. नवीन सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूलन करने में सहायक

समाजशास्त्र बदलती हुई परिस्थितियों में व्यक्ति के अनुकूलन को सरल बनाता है। समाजशास्त्रीय ज्ञान व्यक्ति को अपने को और दूसरों को उत्तमता के साथ समझने में योग देता है। व्यक्ति विभिन्न समूह एवं समाजों के तुलनात्मक अध्ययन से प्राप्त ज्ञान की सहायता से बदलती हुई परिस्थितियों में आसानी से समायोजन कर पाता है। समाजशास्त्र व्यक्ति को विभिन्न समूहों, संघों, संस्थाओं और समुदायों के सम्बन्ध में ज्ञान प्रदान करता है और साथ ही सामाजिक जीवन को प्रभावित करने वाली विभिन्न दशाओं से उसे परिचित कराता है। इसके अलावा समाजशास्त्र बदलते हुए सामाजिक मूल्यों, आदर्शों, विश्वासों तथा व्यवहार के नये-नये तरीकों के सम्बन्ध में भी ज्ञान प्रदान करता है। इसी समाजशास्त्रीय ज्ञान की सहायता से व्यक्ति समझ पाता है कि समाज में परिवर्तन किस प्रकार से और क्यों होते हैं ? यह सब जानकारी व्यक्ति के नवीन परिस्थितियों के साथ अनुकूलन में सहायक है जिसके अभाव में व्यक्ति का जीवन विघटित हो सकता है।


3. समाज में सह-अस्तित्व की भावना का प्रसार करने में सहायक

समाजशास्त्रीय ज्ञान सह-अस्तित्व की भावना के प्रसार में सहायक है। यह शास्त्र विभिन्न व्यक्तियों, समूहों, समुदायों, समाजों और संस्कृतियों के सम्बन्ध में वैज्ञानिक आधार पर ज्ञान प्रदान करता है। साथ ही यह भी बतलाता है कि मूलरूप में संसार के सभी मानव मेधावी मानव (Homo Sapiens) की सन्तान हैं। अतः किसी एक प्रजाति को अन्य प्रजातियों से श्रेष्ठ या हीन नहीं माना जा सकता। मानव-मानव के बीच पाये जाने वाले अन्तर मूलतः पर्यावरण सम्बन्धी और व्यक्तित्व के विकास सम्बन्धी अन्तरों का परिणाम है। समाजशास्त्रीय ज्ञान के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि प्रजातीय श्रेष्ठता का सिद्धान्त अवैज्ञानिक और भ्रामक है। प्रत्येक व्यक्ति और समूह को इस संसार में रहने और अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं के अनुरूप अपना जीवन बिताने का पूरा-पूरा अधिकार है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में अनेक धर्मों, जातियों, प्रजातियों, सम्प्रदायों तथा प्रान्तों के लोग साथ-साथ रहते हैं जिनमें कई बार संघर्ष भी होते हुए दिखाई देते हैं। समाजशास्त्र इन अन्तरों के बावजूद भी व्यवहार के ऐसे सामान्य ढंग खोज निकालने में प्रयत्नशील रहा है जो सबको समान रूप से मान्य हों। साथ ही इन सबके सम्बन्ध में वैज्ञानिक जानकारी उपलब्ध कराके समाजशास्त्र ने सहिष्णुता एवं सह-अस्तित्व की भावना के विकास में योग दिया है।


4. परम्पराओं के अध्ययन में योग

किसी भी समय की सामाजिक संरचना और व्यवस्था विभिन्न प्रकार के नियमों एवं परम्पराओं पर आधारित होती है। ये नियम और परम्पराएँ व्यक्तियों के व्यवहारों को निर्देशित करती और आचरणों को दिशा देती हैं। समाज विशेष के सामाजिक संगठन को समझने की दृष्टि से वहाँ प्रचलित जनरीतियों, रूढ़ियों और अन्य विविध प्रकार की परम्पराओं को ठीक प्रकार से जानना आवश्यक है। समाजशास्त्र का इस दृष्टि से विशेष महत्त्व है कि इसके द्वारा सामाजिक परम्पराओं का अध्ययन किया जाता है। प्रसिद्ध भारतीय समाजशास्त्री प्रो. धुर्जटी प्रसाद मुखर्जी ने तो यहाँ तक माना है कि समाजशास्त्र परम्पराओं का अध्ययन है। इसी आधार पर आपने बताया है कि हम उन सामाजिक परम्पराओं का अध्ययन करें जिनसे हमने जन्म लिया है और जिनमें हमारा जीवन व्यतीत होता है। भारतवर्ष में, जो कि एक अति प्राचीन देश है, जिसकी अपनी काफी पुरानी संस्कृति है, परम्पराओं के अध्ययन की विशेष महत्ता है। समाजशास्त्र एक ऐसा सामाजिक विज्ञान है जो हमारे देश को विभिन्न कालों की परम्पराओं और उनमें होने वाले परिवर्तनों के सम्बन्ध में जानकारी उपलब्ध कराता है। यह जानकारी भारतीय समाज और संस्कृति को समझने में विशेष उपयोगी है।


5. राष्ट्रीय एकता में सहायक

आज भारत राष्ट्र के सम्मुख राष्ट्रीय एकता की समस्या एक प्रमुख समस्या है। आज राष्ट्र जाति, प्रजाति, भाषा, धर्म, प्रान्त आदि के आधार पर विभिन्न छोटे-छोटे स्वार्थ-समूहों में विभक्त है। व्यक्ति सम्पूर्ण राष्ट्र या समाज के दृष्टिकोण से नहीं सोचकर अपनी जाति, भाषा या प्रान्त के दृष्टिकोण से सोचता है। परिणामस्वरूप देशवासियों में संकीर्ण दृष्टिकोण पाया जाता है। समाजशास्त्र जातिवाद, भाषावाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, आदि के सम्बन्ध में भी यथार्थ जानकारी प्रदान कर व्यक्ति को उदारवादी दृष्टिकोण अपनाने में योग देता है। साथ ही समाजशास्त्र भिन्न-भिन्न समाजों की जनरीतियों, परम्पराओं, संस्थाओं, आदि को समझने में भी सहायता करता है। यह ज्ञान पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण का अन्त करने, व्यक्ति को संकीर्णताओं से छुटकारा दिलाने, उसके दृष्टिकोण को व्यापक बनाने, बन्धुत्व की भावना को विकसित करने, सामाजिक, सांस्कृतिक और भावात्मक एकीकरण करने और राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने में योग देता है।


6. सामाजिक समस्याओं को हल करने में सहायक

आधुनिक जटिल समाजों के सामाजिक संगठनों के जटिल होने अर्थात् जाति, वर्ग, समूह, धर्म, परिवार, राजनीति, आदि के क्षेत्र में विभेदों के बढ़ जाने से अन्त:क्रियाएँ पहले की तुलना में काफी बढ़ गयी हैं। इसके साथ ही साथ आज समाजों में विभिन्न प्रकार की समस्याएँ दिखायी पड़ने लगती हैं। इन समस्याओं को ठीक से समझने के लिए प्रत्येक समाज के सामाजिक संगठन के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है। यह जानकारी समाजशास्त्र ही प्रदान करता है।

आधुनिक जटिल समस्याओं को केवल आर्थिक या राजनीतिक या एकांगी दृष्टिकोण को अपनाकर नहीं समझा जा सकता। समस्याएँ चाहे आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक या नैतिक किसी भी प्रकार की क्यों न हों, उनके पीछे कुछ सामाजिक कारक पाये जाते हैं, उनके लिए कुछ सामाजिक दशाएं उत्तरदायी हैं। उन सामाजिक दशाओं या कारकों को समझकर ही विभिन्न समस्याओं से छुटकारा प्राप्त किया जा सकता है। इस कार्य में समाजशास्त्र काफी योग देता है। आज भारत में बेकारी, निर्धनता, मद्यपान, जातिवाद, अस्पृश्यता, प्रान्तीयता, भाषावाद, भिक्षावृत्ति, बाल-विवाह, विधवा-विवाह निषेध आदि अनेक समस्याएं पायी जाती हैं। इन्हें व्यक्तिगत प्रयत्नों से नहीं सुलझाया जा सकता है। इन समस्याओं की प्रकृति और कारकों को जानने तथा उनके निराकरण के उपाय सुझाने के लिए समाजशास्त्रीय अध्ययनों की नितान्त आवश्यकता है। इनके अभाव में न तो किसी भी सामाजिक समस्या को वैज्ञानिक आधार पर सही परिप्रेक्ष्य में समझा और न ही उनका निराकरण किया जा सकता है।


7. व्याधिकीय सामाजिक समस्याओं के निराकरण में सहायक

वर्तमान समय में अनेक व्याधिकीय समस्याएँ समाज रूपी शरीर को रोग-ग्रस्त किये हुए हैं। आज समाज में अपराध, बाल-अपराध, श्वेतवसन अपराध, आत्महत्या, चोरी, डकैती, काला बाजारी, व्यभिचार, आदि अनेक व्याधिकीय समस्याएँ पायी जाती हैं। समाजशास्त्री अपने विशिष्ट ज्ञान के आधार पर इन समस्याओं के कार्य-कारण सम्बन्धों का पता लगाने में सफल हुए हैं। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि इन समस्याओं का मूल कारण सामाजिक पर्यावरण जा समाज की अस्वस्थ सामाजिक परिस्थितियाँ हैं। जब तक इन अस्वस्थ परिस्थितियों को नहीं सुधारा जाता, तब तक व्याधिकीय समस्याओं से छुटकारा प्राप्त करना सम्भव नहीं है। आज समाजशास्त्रीय ज्ञान के विकास के फलस्वरूप ही समाजशास्त्र की एक विशेष शाखा अपराधशास्त्र का विकास हो पाया है। अब समाजशास्त्र ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अपराधी जन्मजात नहीं होते बल्कि सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों द्वारा बनाये जाते हैं। अतः अपराध से घृणा की जानी चाहिए न कि अपराधी से। अपराधियों को सामाजिक रोगियों के रूप में माना जाने लगा है जिनको सुधारने की आवश्यकता है। समाजशास्त्र की महत्ता इसी से स्पष्ट है कि समाजशास्त्र अपराधी और व्याधिकीय समस्याओं को समझने में वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान करता है।


8. श्रम समस्याओं के निराकरण में सहायक

विश्व के विभिन्न राष्ट्रों में औद्योगीकरण तेजी के साथ बढ़ता जा रहा है। आज भारत जैसा कृषि-प्रधान समाज भी औद्योगीकरण की दिशा में आगे बढ़ रहा है। औद्योगिक समाजों में पूंजीपति और श्रमिक वर्ग के बीच तनाव और संघर्ष की स्थिति पायी जाती है। पूंजीपति और श्रमिक वर्ग के हित एक-दूसरे से टकराते हैं। आज औद्योगिक क्षेत्रों में अनेक समस्याएं पायी जाती हैं, जैसे हड़ताल, घेराव, तालाबन्दी, श्रमिक तनाव, काम की अस्वास्थ्यकर दशाएँ, मालिक और मजदूर के झगड़े, उचित मजदूरी की समस्या, कार्यशील महिलाओं की समस्याएँ, आदि। जब तक इन समस्याओं को हल नहीं किया जाता तब तक औद्योगिक क्षेत्र में न तो उत्पादन ही बढ़ाया जा सकता और न ही राष्ट्र को समृद्धिशाली बनाया जा सकता है। इन समस्याओं को समझने और इनके निराकरण में समाजशास्त्र महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। यही कारण है कि आज समाजशास्त्र (Industrial Sociology) का विकास हुआ है। आज भारत में अनेक श्रम-कल्याण सम्बन्धी योजनाएँ चल रही हैं। इन योजनाओं का सफल क्रियान्वयन बहुत कुछ समाजशास्त्रीय ज्ञान पर निर्भर करता है। औद्योगिक क्षेत्र में समाजशास्त्र का महत्त्व इसी से स्पष्ट है कि आज श्रम कल्याण अधि कारी के रूप में औद्योगिक समाजशास्त्र के विद्यार्थियों को प्राथमिकता दी जाती है।


9. ग्रामीण पुनर्निमाण में सहायक

देश की अधिकांश जनंसख्या (74.2 प्रतिशत) आज भी ग्रामों में निवास करती है और ग्राम पिछले करीब 55 वर्षों के नियोजित प्रयत्नों के बावजूद आज भी अनेक समस्याओं से ग्रस्त हैं। ग्रामों में निर्धनता, बेकारी, कृषि का पिछड़ापन, परम्परागत पेशों पर निर्भरता, ऋणग्रस्तता, जातिवाद, ऊँच-नीच, अस्पृश्यता, अन्धविश्वास बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा

आदि आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याएँ पायी जाती हैं। इन सब ग्रामीण समस्याओं को उस समय तक नहीं सुलझाया जा सकता जब तक कि ग्रामीण सामाजिक संरचना का समाजशास्त्रीय ढंग से अध्ययन नहीं किया जाता। ग्रामीण समाज के सम्बन्ध में वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त करके ही इन समस्याओं की प्रकृति को समझा और इनका निराकरण किया जा सकता है। यही कारण है कि समाजशास्त्र की एक शाखा के रूप में ग्रामीण समाजशास्त्र का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। समाजशास्त्रीय ज्ञान के आधार पर ग्रामीणों की सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं को जानकर ही ग्रामीण पुनर्निर्माण की विभिन्न योजनाओं को सफल बनाया जा सकता है स्पष्ट है कि ग्रामीण पुनर्निर्माण की दृष्टि से समाजशास्त्र की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण है।


10. नगरीय विकास में सहायक

वर्तमान समय में औद्योगीकरण की तेज गति के कारण नगरीकरण की प्रक्रिया भी काफी तेजी से चल रही है। शिक्षा, मनोरंजन, चिकित्सा-सुविधा, कचहरी, उद्योग-धन्धे और विभिन्न सुविधाएँ ग्रामीणों को नगरों की ओर आकर्षित करती जा रही हैं। परिणामस्वरूप नगरों की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। जिस गति से औद्योगीकरण और नगरीकरण होता जा रहा है, उसके साथ-साथ विशेषतः नगरों के स्वस्थ और सन्तुलित विकास की समस्या उठ खड़ी हुई है। आज नगरों में अनेक समस्याएं पायी जाती हैं, जैसे घनी बस्तियाँ, भीड़-भाडयुक्त वातावरण, मद्यपान, जुआ, अपराध, बाल-अपराध, भिक्षावृत्ति, वेश्यावृत्ति आदि। वर्तमान में नगरों का भौतिक विकास तो तेजी से साथ होता जा रहा है, परन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से नगर पिछड़ते जा रहे हैं, नैतिकता का ह्रास होता जा रहा है। परिणामस्वरूप नगरों में सांस्कृतिक पिछड़ (Cultural Lag) की स्थिति पायी जाती है जो विभिन्न प्रकार के असन्तुलनों एवं संघर्षों के लिए उत्तरदायी है। इन सब समस्याओं के निराकरण एवं स्वस्थ आधार पर नगरीय विकास के लिए समाजशास्त्रीय ज्ञान का लाभ उठाना अत्यन्त आवश्यक है। यही कारण है कि आज समाजशास्त्र की एक शाखा के रूप में नगरीय समाजशास्त्र (Urban Sociology) का महत्त्व बढ़ता ही जा रहा है।


11. जनजातीय समस्याओं के उन्मूलन और जनजातीय-कल्याण में सहायक

भारत में जनजातीय या आदिवासी लोगों की जनसंख्या 2001 की जनगणना के अनुसार 8.43 करोड़ है। इनमें से अधिकतर लोग घने जंगलों या पहाड़ी क्षेत्रों में रहते हैं। ये सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक दृष्टिकोण से काफी पिछड़े हुए हैं। ये लोग आधुनिक सुख-सुविधाओं का लाभ अपनी अज्ञानता एवं निर्धनता के कारण नहीं उठा पाये हैं। इन लोगों की अपनी विशिष्ट प्रकार की समस्याएँ भी हैं। इन्हें सुलझाये बिना इनके जीवन को किसी भी प्रकार उन्नत नहीं किया जा सकता। भारत सरकार जनजातीय समस्याओं के निराकरण और इन लोगों के कल्याण के लिए काफी प्रयत्नशील है। प्रयत्नों की सफलता के लिए आवश्यक है कि जनजातीय समाजों का समाजशास्त्रीय दृष्टि से अध्ययन किया जाये, इनके खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज, परम्परा, विश्वास अर्थात् समग्र रूप में विभिन्न जनजातियों की संस्कृतियों को समझा जाये। यह कार्य समाजशास्त्रियों के द्वारा ही किया जा सकता है। इस दिशा में डॉ. जी. एस. घुरिये, डॉ. डी. एन. मजूमदार, प्रो. एस. सी. दुबे तथा अनेक अन्य समाजशास्त्रियों एवं मानवशास्त्रियों के द्वारा विशेष अध्ययन किये गये हैं। स्पष्ट है कि जनजातीय समस्याओं के निराकरण और जनजातीय कल्याण में समाजशास्त्र का विशेष योगदान है।


12. सामाजिक नियोजन में सहायक

अनेक समाजशास्त्रियों ने अपने अध्ययनों के आधार पर यह स्पष्ट कर दिया है कि आर्थिक नियोजन की सफलता के लिए सामाजिक नियोजन नितान्त आवश्यक है। सामाजिक नियोजन के अन्तर्गत प्रयास के चार क्षेत्र साधारणतः सम्मिलित किये जाते हैं : (i) मूलभूत सामाजिक सेवाओं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य तथा आवास सुविधाओं का विकास, (ii) ग्रामीण एवं नगरीय कल्याण तथा न्यूनतम आवश्यक सुविधाओं की व्यवस्था को सम्मिलित करते हुए समाज-कल्याण, (iii) समाज के दलित एवं कमजोर वर्गों का कल्याण और (iv) सामाजिक सुरक्षा। आज सामाजिक नियोजन सामाजिक परिवर्तन का एक प्रमुख साधन है। सामाजिक नियोजन की सफलता के लिए समाज की सामाजिक संरचना, विभिन्न समूहों, संस्थाओं, प्रथाओं, मूल्यों परम्पराओं, विश्वासों एवं धर्म का ज्ञान आवश्यक है। यह ज्ञान समाजशास्त्र ही प्रदान करता है। समाजशास्त्र यह बताता है कि भारत जैसे प्रजातान्त्रिक देश में लोगों को नवीनता या परिवर्तनों को अपनाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, शिक्षा और प्रचार के माध्यम से प्रेरित किया जा सकता है।


13. पारिवारिक जीवन को सफल बनाने में सहायक

परिवार समाज की मूलभूत इकाई है और सामाजिक संगठन की दृष्टि से इसका विशेष महत्त्व है। परिवार के क्षेत्र में आज अनेक परिवर्तन हो रहे हैं। साथ ही आधुनिक परिवार के सामने वर्तमान में कई प्रकार की समस्याएँ हैं। आज बहुत से परिवारों में तनाव, संघर्ष और विवाह-विच्छेद तक की समस्याएँ पायी जाती हैं। वर्तमान में पारिवारिक नियमों, आदर्शों एवं मूल्यों में भी परिवर्तन आ रहा है। अब प्रेम-विवाह और अन्तरजातीय विवाह भी होने लगे हैं। इन सबके सम्बन्ध में जब तक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार नहीं किया जाता, जब तक न तो पारिवारिक समस्याओं से छुटकारा प्राप्त किया जा सकता है और न ही पारिवारिक जीवन को सुखी और सफल बनाया जा सकता है। इन सबके बारे में वैज्ञानिक ज्ञान प्रदान करने का कार्य समाजशास्त्र ही करता है। परिवार की सफलता बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करती है कि इसके सदस्य अपनी भिन्न-भिन्न प्रस्थितियों के अनुरूप कहाँ तक भूमिकाएं निभाते हैं, कहाँ तक अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। यदि वे परिवार में अपनी भूमिकाएँ ठीक से नहीं निभा पाते हैं, तो वे अपने विशिष्ट समाज के सन्दर्भ में भी अपने दायित्वों के प्रति उदासीनता बरत सकते हैं। सुखी और उत्तरदायी सामाजिक जीवन के लिए सफल पारिवारिक जीवन नितान्त आवश्यक है। पारिवारिक क्षेत्र में व्यक्ति को उसकी प्रस्थिति और भूमिका सम्बन्धी ज्ञान प्रदान करने में समाजशास्त्र महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।


14. प्रजातन्त्र को सफल बनाने में समाजशास्त्र का योगदान

प्रजातन्त्र समानता पर आधारित है, परन्तु आज विश्व के प्रत्येक देश में वर्ग, जाति, प्रजाति, धर्म, भाषा, संस्कृति आदि के आधार पर अनेक भेदभाव या सामाजिक दूरी पायी जाती है। एक ही देश में मनुष्य-मनुष्य के बीच विभिन्न आधारों पर ऊंच-नीच की दीवारें पायी जाती हैं। परिणामस्वरूप संकीर्णताएँ पनपती हैं, व्यक्ति अपने संकुचित समूह हित में सोचता है, न कि व्यक्ति-व्यक्ति और सम्पूर्ण राष्ट्र के हित में। ऐसे समाजों में प्रजातान्त्रिक व्यवस्था की सफलता में कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं। भारत जैसे प्रजातान्त्रिक देश में भी प्रजातन्त्र के मार्ग में अनेक बाधाएँ हैं। यहाँ जाति, प्रजाति, धर्म, भाषा, प्रान्त, आदि के आधार पर अनेक भेदभाव पाये जाते हैं। यहाँ जातिवाद, सम्प्रदायवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद और प्रान्तीयता देश की भावात्मक एकता में बहुत बड़ी बाधा है। इस भावात्मक एकता के अभाव में प्रजातन्त्र का सफल होना बहुत कठिन है। समाजशास्त्रीय ज्ञान संकीर्णताओं को कम करने और मानव-मानव के बीच ऊँच-नीच की दीवार को समाप्त करने में योग देता है, भावात्मक एकता को सम्भव बनाता है। इसका कारण यह है कि समाजशास्त्र यह मानकर चलता है कि उपर्युक्त सभी भेदभाव मानव-निर्मित हैं, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक पर्यावरण की देन हैं। मूल रूप में समाजशास्त्र समाज को एक प्राकृतिक घटना मानता है। यह ज्ञान प्रजातान्त्रिक व्यवस्था को सफल बनाने में काफी सहायक है।


15. समाजशास्त्र का व्यावसायिक एवं व्यावहारिक महत्त्व

समाजशास्त्र का व्यावहारिक महत्व दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। आज समाजशास्त्री की सामाजिक इंजीनियर और सामाजिक चिकित्सक के रूप में भूमिका काफी प्रमुख होती जा रही है। सामाजिक इंजीनियर के रूप में सामाजिक नियोजन और विकास योजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन में समाजशास्त्री आजकल प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। यही कारण है कि नियोजक, प्रशासक, समाज-कल्याण अधिकारी, श्रम अधिकारी, प्रोबेशन और पैरोल अधिकारी, खण्ड विकास अधिकारी आदि पदों पर चुनाव में समाजशास्त्र के विद्यार्थियों को प्राथमिकता दी जाती है। मानसिक चिकित्सक के रूप में समाजशास्त्री सामाजिक समस्याओं के सूक्ष्म अवलोकन, विश्लेषण और उनके निराकरण में अपने विशिष्ट ज्ञान के आधार पर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। बीरस्टीड ने लिखा है, "व्यापार, सरकार, उद्योग, नगर नियोजन, प्रजाति सम्बन्धों, सामाजिक कार्य, सर्वेक्षण, प्रशासन एवं सामुदायिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में ऐसे समाजशास्त्रियों की मांग खास तौर से बढ़ती जा रही है जो अनुसन्धान कार्य में पूर्णतः प्रशिक्षित हैं।" अब समाजशास्त्र सैद्धान्तिक दृष्टि से काफी परिपक्व हो चुका है और व्यावसायिक एवं व्यावहारिक क्षेत्र में इसका महत्त्व काफी बढ़ता ही जा रहा है। अब समाजशास्त्र का प्रयोग कालेजों और विश्वविद्यालयों के बाहर भी काफी किया जाने लगा है।


उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में यहाँ समाजशास्त्र के अध्ययन का विशेष महत्त्व है।


समाजशास्त्र का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध

विज्ञानों को प्रमुखतः दो श्रेणि यों में बांटा गया है-

  1. प्राकृतिक विज्ञान (Natural Sciences) तथा
  2. सामाजिक विज्ञान (Social Sciences)।


प्राकृतिक विज्ञानों में भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, जीवशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र आदि आते हैं जबकि सामाजिक विज्ञानों में अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र आदि। प्राकृतिक विज्ञानों के अन्तर्गत भौतिक जगत या उससे सम्बन्धित घटनाओं का अध्ययन किया जाता है जबकि सामाजिक विज्ञानों में मानवीय क्रियाओं, समाज और सामाजिक घटनाओं का। विभिन्न सामाजिक विज्ञानों में से प्रत्येक के द्वारा समाज-जीवन के किसी न किसी पहलू का अध्ययन किये जाने के कारण उन सभी में पारस्परिक सम्बन्ध का होना स्वाभाविक ही है। जहाँ तक समाजशास्त्र का अन्य सामाजिक विज्ञानों के साथ सम्बन्ध का प्रश्न है, यह कहा जा सकता है कि इन सभी में पारस्परिक आदान-प्रदान का सम्बन्ध है। समाजशास्त्र अन्य सामाजिक विज्ञानों से और सामाजिक विज्ञान समाजशास्त्र से बहुत कुछ ग्रहण करते हैं। विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के साथ घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित होने के बावजूद समाजशास्त्र का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। समाज-जीवन से सम्बन्धित बहुत-सी ऐसी बातें या विषय हैं, जैसे-समाज की संरचना, संस्थाएँ, सामाजिक नियन्त्रण, सामाजिक परिवर्तन, हित, प्रतिस्पर्धा, सामाजिक अन्त:क्रिया, संघर्ष, प्रगति, समूह, सम्पर्क, भीड़, अपराध आदि जिनका अध्ययन केवल समाजशास्त्र ही करता है।


प्रत्येक सामाजिक विज्ञान समाज के एक विशिष्ट पहलू का अध्ययन करता है, सम्पूर्ण समाज का नहीं, लेकिन समाज को पूर्णतः पृथक्-पृथक् भागों में नहीं बांटा जा सकता, उसे तो समग्रता या सम्पूर्णता में ही समझा जा सकता है और यह कार्य समाजशास्त्र करता है। इतना हमें अवश्य मानना पड़ेगा कि प्रत्येक सामाजिक विज्ञान समाज और मानवीय क्रियाओं का एक विशेष दृष्टिकोण से अध्ययन करता है, प्रत्येक का अपना एक विशिष्ट ध्यानबिन्दु (Focus) होता है। इस दृष्टि से प्रत्येक सामाजिक विज्ञान की अपनी-अपनी विशिष्ट विषय-वस्तु या अध्ययन सामग्री है और प्रत्येक ने अपनी विशेष अध्ययन-पद्धतियाँ भी विकसित की हैं। यहाँ हमें यह भी ध्यान में रखना है कि सामाजिक जीवन के विशेष पहलू का अध्ययन करने वाले प्रत्येक सामाजिक विज्ञान को विशेष सामाजिक विज्ञान (Special Social Science) और सामाजिक जीवन के सभी पहलुओं का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से अध्ययन करने वाले समाज-विज्ञान (समाजशास्त्र) को सामान्य सामाजिक विज्ञान (General Social Science) कहा गया है। 

समाजशास्त्र के अन्य सामाजिक विज्ञानों के साथ सम्बन्धों को लेकर विद्वानों में कुछ मतभेद पाया जाता है। कुछ विद्वान केवल समाजशास्त्र को ही समाज का एकमात्र विज्ञान मानते हैं, कुछ समाजशास्त्र को अन्य सामाजिक विज्ञानों के समन्वय का परिणाम मानते हैं, जबकि कुछ इसे अन्य सामाजिक विज्ञानों के समान एक पृथक् विज्ञान के रूप में महत्ता प्रदान करते हैं। यहाँ समाजशास्त्र के अन्य सामाजिक विज्ञानों के साथ संबंधों के बारे में कुछ प्रमुख विद्वानों के विचारों पर ध्यान देना उपयुक्त रहेगा।


ऑगस्ट कॉम्ट के विचार (Views of Auguste Comte)

फ्रेंच विद्वान ऑगस्ट कॉम्ट ने समाजशास्त्र के अन्य सामाजिक विज्ञानों के साथ किसी भी प्रकार के सम्बन्ध को अस्वीकार किया है। आपने अन्य सामाजिक विज्ञानों के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं किया है। आपका कहना है कि समाज एक समग्रता है और इस कारण सामाजिक प्रघटनाओं को अलग-अलग भागों में विभाजित नहीं किया जा सकता। अतः एक ही विज्ञान के द्वारा उनका पूर्णता में अध्ययन किया जाना चाहिए। इस कार्य को अकेला समाजशास्त्र ही कर सकता है, कोई भी अन्य सामाजिक विज्ञान नहीं। कोई भी अन्य सामाजिक विज्ञान समाज के किसी एक विशेष पहलू का अध्ययन करके समाज के सम्बन्ध में किसी वास्तविक निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकता। केवल समाजशास्त्र ही समाज का समग्र रूप में वैज्ञानिक अध्ययन करके समाजिक जीवन और विभिन्न सामाजिक प्रघटनाओं के संबंध में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध करा सकता है। अन्य सामाजिक विज्ञानों का न केवल अध्ययन-क्षेत्र ही सीमित है, बल्कि उनका दृष्टिकोण भी काफी संकुचित है। समाज को सम्पूर्णता या समग्रता (Totality) में देखने के कारण समाजशास्त्र का दृष्टिकोण व्यापक है और अध्ययन-क्षेत्र काफी विस्तृत है। ऑगस्ट कॉम्ट ने तो राजनीतिशास्त्र एवं अर्थशास्त्र आदि को सामाजिक विज्ञान ही मानने से इन्कार किया है। अतः उनके अनुसार समाजशास्त्र और अन्य सामाजिक विज्ञानों के बीच किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध होने का प्रश्न ही नहीं उठता। कॉम्ट के अनुसार एकमात्र समाज विज्ञान (समाजशास्त्र) ही समाज के समुचित रूप को लेकर प्राकृतिक विज्ञानों के समान अध्ययन करता है एवं समाज के विषय में पूर्ण सत्य तक पहुँचता है। परिणामस्वरूप समाजशास्त्र का अन्य विशेष सामाजिक विज्ञानों से संबंधित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। आपने समाजशास्त्र को ही एकमात्र महान एवं आधुनिक सामाजिक विज्ञान माना है। आपने तो राजनीति विज्ञान आदि को समाजशास्त्र विरोधी तक माना है क्योंकि विज्ञान सदैव सामाजिक धारणाओं पर ही आधारित नहीं होते।

अन्य सामाजिक विज्ञानों से संबंधित विद्वानों ने ही नहीं बल्कि अनेक समाजशास्त्रियों तक ने भी केवल समाजशास्त्र को ही सामाजिक घटनाओं का समग्रता में अध्ययन करने वाला विज्ञान मानने पर जोर देने के कॉम्ट के विचार की कटु आलोचना की है। विभिन्न समाज-वैज्ञानिकों की मान्यता है कि समाजशास्त्र अन्य सामाजिक विज्ञानों से घनिष्ठ रूप से संबंधित है। केवल समाजशास्त्र आज के आधुनिक जटिल समाजों का पूरी तरह से अध्ययन करने में समर्थ नहीं है। आज के विशेषीकरण के इस युग में समाज-जीवन के विभिन्न पक्षों का अध्ययन करने के लिए अन्य सामाजिक विज्ञानों के महत्त्व और सभी के बीच पारस्परिक संबंधों को स्वीकार करना ही पड़ेगा। आज समाज-जीवन के विभिन्न पक्ष सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि एक-दूसरे से इस प्रकार घुले-मिले हैं कि किसी का भी पूर्ण पृथक्करण में अध्ययन नहीं किया जा सकता।


स्पेन्सर के विचार (Views of Spencer)

हरबर्ट स्पेन्सर, कॉम्ट के समान समाजशास्त्र को एक स्वतंत्र विज्ञान न मानकर विभिन्न सामाजिक विज्ञानों का समन्वय मानते हैं। आपने समाज के विभिन्न पक्षों का अध्ययन करने वाले सभी सामाजिक विज्ञानों जैसे-अर्थशास्त्र,

राजनीतिशास्त्र, मनोविज्ञान, इतिहास आदि के अस्तित्व और महत्त्व को स्वीकार किया है। आपके अनुसार विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के परिणामों (निष्कर्षों) को समाजशास्त्र ही समाज के एक सामान्य सिद्धान्त (A General Theory of Society) के रूप में समन्वित करता है। समाजशास्त्र की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपलब्धि व्यापक एवं विविधतापूर्ण सामग्री को समन्वित करना है ताकि समाज को समग्रता में देखा और समझा जा सके। इस विचार को अमेरिका व अन्य देशों में भी स्वीकार किया गया। इस बात को स्माल नामक विज्ञान का समर्थन भी प्राप्त हुआ। 

स्पेन्सर ने सावयवी सिद्धान्त (Organic Theory) के आधार पर यह समझाने का प्रयत्न किया है कि समाजशास्त्र अन्य सामाजिक विज्ञानों के समन्वय का परिणाम है। जिस प्रकार विभिन्न अंगों या इकाइयों से शरीर का निर्माण होता है और जिस प्रकार ये अंग एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से संबंधित होते हैं, उसी प्रकार समाज रूपी शरीर का निर्माण भी विभिन्न अंगों से हुआ है, जो एक-दूसरे से न केवल संबंधित हैं बल्कि साथ ही पारस्परिक रूप से प्रभावित भी करते हैं और एक-दूसरे पर आश्रित भी हैं। समाज के विभिन्न अंगों में आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि गतिविधियां आती हैं जिनका विशेष सामाजिक विज्ञानों के द्वारा अध्ययन किया जाता है। इन सामाजिक विज्ञानों के निष्कर्षों के समन्वय से ही समाज रूपी शरीर को समग्रता में समझा जा सकता है और इसी प्रयत्न के फलस्वरूप समाजशास्त्र का विकास हुआ है। अतः समाजशास्त्र और अन्य सामाजिक विज्ञानों में घनिष्ठ संबंध का पाया जाना स्वाभाविक ही है। साथ ही स्पेन्सर ने प्रत्येक सामाजिक विज्ञान के पृथक् अस्तित्व को उसी रूप में स्वीकार किया है जिस प्रकार शरीर का भाग होते हुए भी प्रत्येक अंग अपना पृथक् अस्तित्व रखता है, प्रत्येक अपना विशिष्ट कार्य करता है। आपने प्रत्येक सामाजिक विज्ञान को समाजशास्त्र के निर्माण में एक-एक इकाई के रूप में स्वीकार किया है। आज अधिकांश विद्वान स्पेन्सर के इस विचार से सहमत नहीं हैं कि समाजशास्त्र अन्य सामाजिक विज्ञानों का समन्वय मात्र है। वास्तव में समाजशास्त्र की अपनी विशिष्ट विषय समाग्री है, अपना पृथक् दृष्टिकोण है, अपना अलग अस्तित्व है।


वार्ड के विचार (Views of Lester Ward)

आप समाजशास्त्र को एकमात्र सामाजिक विज्ञान नहीं मानते (कॉम्ट की भांति) और न ही आप इसे अन्य सामाजिक विज्ञानों का समन्वय मात्र समझते हैं (स्पेन्सर की भांति)। आप समाजशास्त्र को अन्य सामाजिक विज्ञानों के समान एक स्वतंत्र विज्ञान मानते हैं और इसे समानता का दर्जा प्रदान करते हैं। वार्ड की मान्यता है कि समाजशास्त्र विशेष सामाजिक विज्ञानों का समन्वय नहीं है बल्कि उनसे मिलकर बना एक मिश्रण (Compound) है। विभिन्न सामाजिक विज्ञान समाजशास्त्र नामक नवीन विज्ञान के निर्माण में विभिन्न इकाइयाँ हैं, लेकिन इन इकाइयों के समाजशास्त्र के रूप में एकीकृत (Integrate) होने पर इनका पृथक् अस्तित्व समाप्त हो जाता है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार रासायनिक इकाइयों का किसी मिश्रण के रूप में। इन सभी विशेष सामाजिक विज्ञानों के मिश्रण से बनने वाली नवीन वस्तु (समाजशास्त्र) इनमें से प्रत्येक विज्ञान से भिन्न और साथ ही इनसे उच्च स्तर की है। जिस प्रकार चाय अनेक वस्तुओं-पानी, शक्कर, चाय-पत्ती, दूध आदि से बना एक पेय पदार्थ है जिसमें प्रत्येक निर्मायक इकाई अपना स्वतंत्र अस्तित्व खो देती है और इन सबसे भिन्न एक अलग वस्तु बन जाती है, ठीक इसी प्रकार विभिन्न सामाजिक विज्ञानों से मिलकर समाजशास्त्र एक मिश्रण के रूप में नवीन स्वतंत्र विषय बन जाता है जिसकी अपनी पृथक् विषय-वस्तु है।

वार्ड की यह मान्यता सही नहीं है कि समाजशास्त्र विभिन्न रासायनिक पदार्थों के योग या मिश्रण की भांति है जिसमें अन्य सभी विशेष सामाजिक विज्ञान अपना अस्तित्व खो देते हैं। वास्तविकता यह है कि प्रत्येक सामाजिक विज्ञान पारस्परिक रूप से एक-दूसरे को प्रभावित करते हुए भी अपने-अपने स्वतंत्र अस्तित्व को बनाये हुए हैं।

डॉ. मोटवानी (Dr. Kewal Motwani) ने वार्ड के विचारों से सहमति प्रकट करते हुए उन्हीं के समान विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के योग से निर्मित एक नवीन वस्तु के रूप में समाजशास्त्र को माना है।


गिडिंग्स के विचार (Views of Giddings)

आपने समाजशास्त्र को समाज का समग्र रूप में या सम्पूर्ण समाज का अध्ययन करने वाला विज्ञान माना है। आपने समाजशास्त्र के अध्ययन-क्षेत्र को काफी विशाल एवं विस्तृत माना है। आपके अनुसार समाजशास्त्र न तो अन्य सामाजिक विज्ञानों का योग है और न ही समन्यव। इसका तो अपना एक पृथक दृष्टिकोण है, अलग विषय-समाग्री

एवं अध्ययन-क्षेत्र है। यह विशिष्ट घटनाओं का ही अध्ययन न करके अन्य सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र में प्रवेश करके उनसे संबंधित विषय-सामग्री का अपने दृष्टिकोण से अध्ययन भी करता है। आपने समाजशास्त्र को अन्य सामाजिक विज्ञानों का आधार माना है। आपके अनुसार सभी सामाजिक विज्ञान समाजशास्त्र के ही अंग हैं। इस दृष्टि से यह विषय अन्य की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण है। आज अन्य सामाजिक विज्ञानों को समाजशास्त्र से कम । महत्त्वपूर्ण मानने का औचित्य नहीं है। प्रत्येक विज्ञान का अपना-अपना महत्त्व है जो न तो किसी अन्य सामाजिक विज्ञान से कम और न ही किसी से ज्यादा है।


सोरोकिन के विचार (Views of Sorokin)

आपने समाजशास्त्र को विशेष या स्वतंत्र विज्ञान न मानकर एक सामान्य विज्ञान माना है। आपके अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक जीवन की सामान्य घटनाओं का अध्ययन करने वाला विज्ञान है। इसके द्वारा सामाजिक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जाता है। अध्ययन सामग्री की दृष्टि से समाजशास्त्र अन्य विज्ञानों से सहायता प्राप्त करता है। साथ ही यह शास्त्र विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के बीच संबंध स्थापित करने और उन्हें पूर्णता प्रदान करने में योग देता है। आपकी मान्यता है कि समाजशास्त्र और अन्य सामाजिक विज्ञानों के बीच संबंध घनिष्ठ पाया जाता है। ये एक-दूसरे से काफी कुछ लेते-देते हैं, इनमें पारस्परिक निर्भरता काफी पायी जाती है। स्वयं सोरोकिन ने बताया है कि समाजशास्त्र अन्य सामाजिक विज्ञानों का जनक (जन्मदाता) नहीं है, बल्कि उसी तरह का एक स्वतंत्र विज्ञान है, जिस तरह अन्य सामाजिक विज्ञानों का स्वतंत्र अस्तित्व है। स्पष्ट है कि सोरोकिन के अनुसार समाजशास्त्र और अन्य सामाजिक विज्ञानों का समान महत्त्व है। यही बात बार्न्स एवं बेकर के इस कथन से व्यक्त होती है, "समाजशास्त्र अन्य सामाजिक विज्ञानों की न तो गृहस्वामिनी है और न ही दासी, बल्कि यह तो अन्य विज्ञानों की बहन है।" इस प्रकार समाजशास्त्र को अन्य सामाजिक विज्ञानों के साथ समानता का दर्जा दिया गया है। इतना अवश्य है कि अन्य सामाजिक विज्ञानों की आयु समाजशास्त्र की तुलना में कुछ अधिक है, परन्तु फिर भी प्रभाव की दृष्टि से समाजशास्त्र काफी महत्त्वपूर्ण विज्ञान है।

विद्वानों के उपर्युक्त विचारों से स्पष्ट है कि समाजशास्त्र और अन्य सामाजिक विज्ञानों के बीच घनिष्ठ संबंध है।


समाजशास्त्र का अन्य सामाजिक विज्ञानों से संबंध

समाजशास्त्र और अन्य सामाजिक विज्ञानों के बीच पाये जाने वाले संबंध की विवेचना हम निम्नलिखित प्रकार से कर सकते हैं :


समाजशास्त्र तथा अर्थशास्त्र (Economics and Sociology)

अर्थशास्त्र के अन्तर्गत मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं या आर्थिक व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। अर्थशास्त्र को वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन एवं वितरण का अध्ययन भी कहा गया है। इस शास्त्र के द्वारा धन के उत्पादन एवं वितरण और उपभोग से संबंधित व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। धन से संबंधित मानवीय क्रियाओं या गतिविधियों को अर्थशास्त्र में प्रमुखता देने का कारण यह है कि धन आवश्यकताओं या इच्छाओं की पूर्ति का प्रमुख साधन है। समाजशास्त्र के अन्तर्गत मनुष्य की सामाजिक क्रियाओं या गतिविधियों का अध्ययन किया जाता है। यह शास्त्र प्रथा, परम्परा, रूढ़ि, संस्था, संस्कृति, सामाजिक संबंधों के विभिन्न स्वरूपों, सामाजिक प्रक्रियाओं, सामाजिक प्रतिमानों, सामाजिक संरचनाओं तथा विभिन्न प्रकार के समूहों में विशेष रूप से रुचि रखता है। समाजशास्त्र समग्र रूप में मानवीय व्यवहार एवं समाज को समझने का प्रयास करता है।

इन दोनों शास्त्रों के संबंधों के बारे में सिल्वरमैन ने लिखा है कि सामान्य कार्यों या लक्ष्यों के लिए इसे (अर्थशास्त्र) समाजशास्त्र नामक पितृ विज्ञान (Parent Science) की, जो सभी सामाजिक संबंधों के सामान्य सिद्धान्तों का अध्ययन करता है, एक शाखा माना जा सकता है। थॉमस के अनुसार, अर्थशास्त्र वास्तव में समाजशास्त्र के व्यापक विज्ञान की एक शाखा है। ये दोनों शास्त्र मानव और उसकी क्रियाओं का अध्ययन करते हैं। इतना अवश्य है कि अर्थशास्त्र में मानव की आर्थिक क्रियाओं का जबकि समाजशास्त्र में सामाजिक जीवन के सभी पक्षों का अध्ययन किया जाता है। इस आधार पर कुछ विद्वानों ने अर्थशास्त्र को समाजशास्त्र की एक शाखा माना है,लेकिन वास्तविकता यह है कि ये दोनों अपने-अपने अध्ययन-क्षेत्र और विषय-सामग्री की दृष्टि से स्वतंत्र विज्ञान हैं, किसी को भी किसी से कम या ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं माना जा सकता। ये दोनों सामाजिक विज्ञान घनिष्ठ रूप से एक-दूसरे से संबंधित हैं। यही कारण है कि अनेक विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों का एक ही विभाग हुआ करता था। इसके अलावा बहुत से विद्वान अर्थशास्त्री होने के साथ-साथ समाजशास्त्री भी हुए हैं। कॉम्ट, जे.एस. मिल, पैरेटो, वेबलिन, कार्ल मार्क्स, मैक्स वेबर, महात्मा गांधी, आदि विद्वानों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से यह स्पष्टतः सिद्ध कर दिया है कि ये दोनो विज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं; इनका पृथक्-पृथक् रूप में अध्ययन नहीं किया जा सकता। व्यक्ति की सामाजिक क्रियाओं और व्यवहार पर आर्थिक परिस्थितियों का और आर्थिक क्रियाओं एवं व्यवहार पर सामाजिक परिस्थितियों का निश्चित रूप से प्रभाव पड़ता है। ये दोनों शास्त्र एक-दूसरे के अध्ययन को व्यापकता और साथ ही निश्चितता प्रदान करने में भी सहायता करते हैं। इन दोनों शास्त्रों के एक-दूसरे पर पड़ने वाले प्रभावों के संबंध में मैकाइवर ने लिखा है कि आर्थिक घटनाएँ सदैव सभी प्रकार की सामाजिक आवश्यकताओं एवं क्रियाओं के द्वारा निर्धारित होती हैं और बदले में स्वयं भी निरन्तर सभी प्रकार की सामाजिक आवश्यकताओं तथा क्रियाओं का पुनर्निर्धारण, सृष्टि, संगठन एवं रूपान्तरण करती रहती हैं। वास्तव में समाज विशेष की परम्पराएँ, प्रथाएँ, संस्थाएँ तथा लोक विश्वास आर्थिक क्रियाओं को काफी प्रभावित करते हैं और स्वयं आर्थिक क्रियाएँ सामाजिक संरचना को बहुत कुछ प्रभावित करती हैं।

आज अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र कुछ ऐसी समस्याओं का अध्ययन करते हैं जो एक-दूसरे के क्षेत्र के अन्तर्गत आती हैं; जैसे, औद्योगीकरण, नगरीकरण, श्रम समस्याएँ, श्रम-कल्याण, बेकारी, निर्धनता, ग्रामीण समस्याएँ, ग्रामीण

पुनर्निर्माण आदि। इन पर जब तक आर्थिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टिकोणों से विचार नहीं किया जाता तब तक न तो इन्हें ठीक से समझा जा सकता और न ही इन्हें हल किया जा सकता है। अनेक समस्याएँ जैसे, अपराध, वेश्यावृत्ति, बेकारी, निर्धनता आदि अर्थिक कारकों से काफी प्रभावित हैं, परन्तु इनके सामाजिक कारक भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। अनेक अच्छी-से-अच्छी योजनाएँ इसलिए असफल रही हैं कि मानवीय और सामाजिक कारकों को समझने का प्रयत्न नहीं किया गया, उनकी अवहेलना की गयी। मैक्स वेबर, कार्ल मार्क्स आदि विद्वानों ने अपने अध्ययनों के माध्यम से यह स्पष्ट कर दिया है कि आर्थिक और सामाजिक कारकों में घनिष्ठ संबंध पाया जाता है। अब तो अर्थशास्त्र समाजशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रयोग करने लगा है। वर्तमान में अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र में दिन-प्रतिदिन सहयोग बढ़ता ही जा रहा है।

समाजशास्त्र के नियम सार्वभौमिक एवं स्वतंत्र हैं। इनके द्वारा घटनाओं को उनके वास्तविक रूप में चित्रित किया जाता है। अर्थशास्त्र के नियम पूर्णतः स्वतंत्र नहीं होते, उनके साथ ये शब्द जुड़े रहते हैं-'अन्य बातों के समान रहने पर' (Other things being equal)। इनमें प्रत्येक घटना का संबंध आर्थिक कारक के साथ जोड़ा जाता है।


समाजशास्त्र एवं इतिहास (History and Sociology)

समाजशास्त्र और इतिहास के बीच घनिष्ठ संबंध है। इन दोनों शास्त्रों की विषय-वस्तु में खास अन्तर नहीं होकर दृष्टिकोण में अन्तर है। इतिहास भूतकाल की विशिष्ट घटनाओं का वर्णन करता है, उन घटनाओं के कार्य-कारण संबंधों की विवेचना करता है। भूतकाल के संबंध में ज्ञान के अभाव में न तो हम वर्तमान को भली-भांति समझ सकते हैं और न ही भविष्य को। इतिहास उस समय-क्रम (Time-Sequence) का पता लगाने का प्रयत्न करता है जिसमें विभिन्न घटनाएँ घटित हुईं। इतिहास के द्वारा प्रारम्भ से लेकर अभी तक के समय के मानव के जीवन की प्रमुख घटनाओं का चित्रण किया जाता है। इस दृष्टि से इतिहास अतीत या भूतकाल की घटनाओं का क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित अध्ययन है। समाजशास्त्र अतीत की पृष्ठभूमि में वर्तमान समाज का अध्ययन है। यही कारण है कि इतिहास अतीत का समाजशास्त्र और समाजशास्त्र समाज का वर्तमान इतिहास कहलाता था। किसी समय इतिहास राजा-महाराजाओं, प्रमुख तारीखों व युद्धों की कहानी था, परन्तु अब इसके द्वारा सामाजिक घटनाओं का

आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत किया जाता है। ये सामाजिक घटनाएँ समाजशास्त्र से संबद्ध हैं। इतिहास विभिन्न युगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक जीवन का अध्ययन है। समाजशास्त्र ऐतिहासिक अध्ययनों से प्राप्त सामग्री के आधार पर वर्तमान युग के सामाजिक जीवन को समझने का प्रयास करता है।

समाजशास्त्र और इतिहास दोनों ही सभ्यता एवं संस्कृति का अध्ययन करते हैं। अन्तर केवल इतना ही है कि इतिहासकार इनका अध्ययन समय-क्रम के अनुसार करता है जबकि समाजशास्त्री वर्तमान समय की सभ्यता एवं संस्कृति का। इन दोनों ही शास्त्रों के द्वारा संघर्ष, क्रान्ति एवं युद्ध का अध्ययन किया जाता है, परन्तु भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से। इतिहास इनका अध्ययन विशिष्ट घटना के रूप में करता है जबकि समाजशास्त्र सामाजिक प्रक्रिया के रूप में या सामाजिक विघटन के सामूहिक प्रकार के रूप में। समाजशास्त्री संघर्ष, क्रांति एवं युद्ध के कारणों एवं परिणामों की विवेचना भी करता है।

ये दोनों शास्त्र एक-दूसरे पर काफी निर्भर हैं, एक-दूसरे से बहुत कुछ ग्रहण करते हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री ऑगस्ट कॉम्ट एवं स्पेन्सर, आदि के अध्ययनों पर इतिहास की स्पष्ट छाप झलकती है। समाजशास्त्रीय अध्ययनों में इतिहास द्वारा प्राप्त सामग्री-सामाजिक तथ्यों एवं सूचनाओं का काफी प्रयोग किया जाता है। समाजशास्त्रियों को अपने सिद्धान्तों के प्रतिपादन तथा अवधारणाओं व प्रारूपों के निर्माण में इतिहास द्वारा प्रस्तुत सामग्री से काफी सहायता मिलती है, जैसा कि दुर्थीम के 'श्रम-विभाजन के सिद्धांत' एवं 'आत्म-हत्या के सिद्धांत' से स्पष्ट है। मैक्स वेबर द्वारा भी समाजशास्त्रीय अध्ययनों में ऐतिहासिक सामग्री का काफी प्रयोग किया गया है। समाजशास्त्र में इतिहास के प्रभाव के फलस्वरूप ही 'ऐतिहासिक समाजशास्त्र' (Historical Sociology) का विकास हो सका।

इसी प्रकार समाजशास्त्र के प्रभाव के परिणामस्वरूप इतिहास से 'सामाजिक इतिहास' (Social History) का विकास हो सका। जी.जी. कौल्टन, जेकब बुर्कहार्ट, टायनबी आदि इतिहासकारों ने सामाजिक इतिहास लिखा जो सामाजिक संबंधों, सामाजिक प्रतिमानों, रूढ़ियों तथा महत्त्वपूर्ण संस्थाओं के क्रमिक विकास से संबंधित है। दूसरी ओर कुछ प्रमुख समाजशास्त्रियों जैसे, मैक्स वेबर, गिन्सबर्ग, रेमण्ड एरो, सिगमण्ड-डायमण्ड, रोबर्ट बेला आदि ने ऐतिहासिक समस्याओं पर समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से विचार कर ऐतिहासिक समाजशास्त्र के विकास में अपूर्व योग दिया। अब दोनों ही शास्त्र एक-दूसरे की अध्ययन पद्धतियों का उपयोग समाज एवं सामाजिक घटनाओं को समझने में करने लगे हैं।


समाजशास्त्र एवं मावनशास्त्र (Anthropology and Sociology)

सामाजिक मानवशास्त्र और समाजशास्त्र एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं। संबंधों की इसी घनिष्ठता के कारण इनमें कोई स्पष्ट विभाजक रेखा खींचना संभव नहीं है। इवान्स प्रिचार्ड की तो मान्यता है कि सामाजिक मानवशास्त्र को समाजशास्त्रीय अध्ययनों की एक शाखा माना जा सकता है, वह शाखा जो प्रमुखतः अपने को आदिम समाजों के अध्ययन में लगाती है। जब लोग समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग करते हैं तो साधारणतया उनके मस्तिष्क में सभ्य समाजों की विशिष्ट समस्याओं के अध्ययन होते हैं। कीसिंग ने लिखा है कि सामाजिक मानवशास्त्र और। समाजशास्त्र के बीच निकट संबंध है, दोनों प्रबल रूप से समूह-व्यवहार (Group behaviour) के वैज्ञानिक सामान्यीकरणों से संबंधित हैं। क्रोबर ने समाजशास्त्र और मानवशास्त्र के बीच पाये जाने वाले घनिष्ठ संबंधों के आधार पर ही इन्हें जुड़वां बहिनें माना है। हॉबल के अनुसार विस्तृत अर्थों में समाजशास्त्र और सामाजिक मानवशास्त्र एक ही हैं, समान हैं। मानवशास्त्र के तीन भागों-भौतिक मानवशास्त्र (Physical Anthropology), प्रागैतिहासिक मानवशास्त्र (Prehistioric Anthropology) तथा सामाजिक मानवशास्त्र (Social Anthropoligy) में से समाजशास्त्र सामाजिक मानवशास्त्र के अत्यंत निकट है।


दोनों ही विज्ञानों के द्वारा समाजों का अध्ययन किया जाता है। इतना अवश्य है कि सामाजिक मानवशास्त्र के द्वारा विशेषतः आदिम समाजों (Primitive Societies) का अध्ययन किया जाता है जबकि समाजशास्त्र के द्वारा आधुनिक जटिल सभ्य समाजों का। सामाजिक मानवशास्त्र में समाजों का उनकी संपूर्णता में अध्ययन किया जाता है। सामाजिक मानवशास्त्री आदिम लोगों की अर्थव्यवस्था का, उनके परिवार और नातेदारी संगठनों का, उनकी प्रौद्योगिकी (Technology) तथा कलाओं का सामाजिक व्यवस्थाओं के भागों के रूप में अध्ययन करता है। दूसरी ओर समाजशास्त्री पृथक्-पृथक् समस्याओं का जैसे विवाह-विच्छेद, वेश्यावृत्ति, अपराध, श्रमिक-असंतोष आदि का अध्ययन करता है।


सामाजिक मानवशास्त्री सरल और छोटे आदिम समाजों का अध्ययन कर समाजशास्त्री को आधुनिक जटिल सभ्य समाजों को समझने में सहायता पहुँचाता है। क्लुखौन (Kluckhohn) के अनुसार मानवशास्त्र व्यक्ति के सामने

ऐसा दर्पण (Mirror) प्रस्तुत करता है जिसमें वह अपने को अपनी असंख्य (असीमित) विविधता (Variety) में देख सकते हैं। स्पष्ट है कि मानवशास्त्री समाजशास्त्री को मानव की प्रकृति को अधिक उत्तमता के साथ समझने में योग देता है। समाजशास्त्री आधुनिक जटिल समाजों में विशिष्ट समस्याओं का अध्ययन कर मानवशास्त्री के लिए अनेक उपकल्पनाएँ (Hypotheses) प्रस्तुत करता है। विस्तृत अर्थों में समाजशास्त्र मानव समाजों के संबंध में सैद्धांतिक ज्ञान का एक सामान्य पुंज (Body) है। सैद्धांतिक ज्ञान के इस पुंज का आदिम सामाजिक जीवन के साथ घनिष्ठ संबंध पाया जाता है। समाजशास्त्र के सैद्धांतिक ज्ञान का उपयोग आदिक सामाजिक जीवन को अधिक उत्तमता के साथ समझने में किया जाता है। दुर्थीम ने अपने समाजशास्त्रीय अध्ययनों के द्वारा सामाजिक घटनाओं की तह या मूल में पाये जाने वाले सामाजिक कारण को ढूंढ निकाला। आपने विविध घटनाओं का कारण स्वयं समाज को माना है। अनेक अंग्रेज मानवशास्त्रियों ने दुर्थीम की समाजशास्त्रीय उपकल्पनाओं का प्रयोग मानवशास्त्रीय अध्ययनों में किया है।


संस्कृति के विज्ञान के रूप में मानवशास्त्र समाजशास्त्र के काफी निकट है। किसी भी समाज के संबंध में यथार्थ जानकारी प्राप्त करने के लिए उस समाज की संस्कृति को समझना अत्यंत आवश्यक है और इसके लिए समाजशास्त्र को मानवशास्त्र से सहायता लेनी होगी। साथ ही मानवशास्त्र को संस्कृति की उत्पत्ति और विकास को जानने के लिए समाजशास्त्र द्वारा अध्ययन की जाने वाली सामाजिक अन्त:क्रियाओं एवं सामाजिक संबंधों की व्यवस्था से परिचित होना पड़ेगा। संस्कृति के विकास में योग देने वाले कारकों की जानकारी समाजशास्त्र ही करता है। समाजशास्त्र सामाजिक अन्त:क्रियाओं का अध्ययन करता है और इन अन्त:क्रियाओं के परिणामस्वरूप ही किसी समाज की संस्कृति की उत्पत्ति और विकास होता है। स्पष्ट है कि दोनों विज्ञान एक-दूसरे पर काफी निर्भर हैं। बाटोमोर ने भारत के संदर्भ में समाजशास्त्र एवं मानवशास्त्र के बीच पाये जाने वाले घनिष्ठ संबंध को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि भारतीय समाज न तो आदिम समाजों के समान पूरी तरह से पिछड़ा हुआ है और न ही औद्योगिक समाजों के समान पूर्णतः विकसित। ऐसे समाजों में, जिनका कि भारत एक ज्वलन्त उदाहरण है, समाजशास्त्र व मानवशास्त्र के मध्य अधिक अंतर कोई अर्थ नहीं रखता है। भारत में समाजशास्त्रीय अन्वेषण, चाहे वे जाति-व्यवस्था से संबंधित हों, ग्राम-समुदायों से अथवा औद्योगीकरण की विधि तथा उसके प्रभाव आदि से, समाजशास्त्रियों या मानवशास्त्रियों द्वारा किये जाते हैं तथा किये जाने चाहिए। इस प्रकार बाटोमोर ने इन दोनों विषयों के बीच किसी प्रकार के विभाजन को अनावश्यक माना है।


समाजशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र (Philosophy and Sociology)

समाजशास्त्र और दर्शनशास्त्र एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। सेलर्स (R. W. Sellers) के अनुसार दर्शनशास्त्र एक व्यवस्थित विचार या चिन्तन के माध्यम से संसार और स्वयं (मनुष्य) की प्रकृति के बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त करने का निरन्तर प्रयत्न है। इस प्रकार दर्शनशास्त्र संसार और मनुष्य की प्रकृति को समझने का एक प्रयत्न है और इस प्रयत्न में समाजशास्त्र काफी योग देता है। दर्शनशास्त्र में तर्क एवं कल्पना का प्रमुख रूप

से सहारा लिया जाता है। तर्क एवं कल्पना के आधार पर ही जनरीतियों, प्रथाओं, रूढ़ियों व परम्पराओं का विकास हुआ है और इन सब का अध्ययन समाजशास्त्र करता है। दर्शनशास्त्र सामाजिक आदर्शों एवं मूल्यों का अध्ययन करता है। समाजशास्त्र इनका अध्ययन सामाजिक पृष्ठभूमि में करता है। समाजशास्त्र सामाजिक आदर्शों एवं मूल्यों को ध्यान में रख कर ही समूह या समाज में व्यक्ति के व्यवहार का मूल्यांकन करता है। मैकाइवर ने समाजशास्त्र में सामाजिक मूल्यों के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि बिना मूल्यों (Values) के समाज को नहीं समझा जा सकता। ऑगस्ट कॉम्ट की मान्यता है कि समाजशास्त्र का दृष्टिकोण वैज्ञानिक होने के साथ-साथ कल्याणकारी भी होना चाहिए तथा इसके लिए उसे सामाजिक मूल्यों (Social Values) का सहारा लेना पड़ेगा जो कि प्रमुखतः दर्शनशास्त्र का अध्ययन विषय है। दर्शनशास्त्र को सामाजिक परिस्थितियों की प्रकृति को समझने के लिए समाजशास्त्र से और समाजशास्त्र को सामाजिक घटनाओं की प्रकृति को जानने के लिए दर्शनशास्त्र से सहायता प्राप्त करना आवश्यक है।

दर्शनशास्त्र की एक शाखा सामाजिक-दर्शनशास्त्र (Social Philosophy) समाजशास्त्र और दर्शनशास्त्र को जोड़ने का काम करती है। सामाजिक दर्शनशास्त्र का कार्य सामाजिक जीवन में परम मूल्यों (Ultimate Values) की व्याख्या और उन्हें इस प्रकार प्रस्तुत करना है कि वे विभिन्न व्यक्तियों के व्यवहारों को प्रभावित कर सकें। दर्शनशास्त्र का सम्बन्ध प्रमुखतः उन सामाजिक आदर्शों एवं मूल्यों से है जिन्हें वह सामाजिक जीवन में उतारना चाहता है। समाजशास्त्र चाहता है कि सामाजिक आदर्श और मूल्य सामाजिक जीवन में प्रभावपूर्ण ढंग से लागू किये जा सकें अर्थात् व्यक्तियों का व्यवहार इनके अनुरूप हो सके। यहीं ये दोनों विज्ञान एक-दूसरे के निकट हैं। दुर्खीम ने विश्वासपूर्वक कहा है कि अन्य सामाजिक विज्ञानों की तुलना में समाजशास्त्र दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में सर्वाधिक सहायता प्रदान करता है। साथ ही आपने यह भी बताया है कि समाजशास्त्रीय ज्ञान के विकास में दर्शनशास्त्र का प्रभाव सदैव बना रहेगा। स्पष्ट है कि समाजशास्त्र और दर्शनशास्त्र एक-दूसरे के पूरक हैं, दोनों घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं।


समाजशास्त्र एवं समाजकार्य (Social-work and Sociology)

इसमें कोई सन्देह नहीं कि समाजशास्त्र और समाज-कार्य (सामाजिक कार्य) के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है, परन्तु साथ ही यह भी सही है कि समाज-कार्य को सन्तोषजनक ढंग से परिभाषित नहीं किया गया है। प्रो. सुशील चन्द्र ने समाज-कार्य का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है, "समाज-कार्य सार्वजनिक या वैयक्तिक प्रयत्न द्वारा की

जाने वाली वह गतिशील गतिविधि [क्रिया-कलाप (Activity)] है जिसे सामाजिक नीति को इस दृष्टि से कार्य रूप देने के लिए अपनाया गया है ताकि लोगों के रहन-सहन के स्तर को ऊँचा उठाया और सामाजिक विकास के किसी भी स्तर वाले समाज के व्यक्ति, परिवार एवं समूह का सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक कल्याण किया जा सके।" हालेन क्लार्क (Halen Clarke) ने लिखा है, "समाज कार्य, ज्ञान तथा निपुणता के मिश्रण से निर्मित व्यावसायिक सेवा का एक प्रकार है जो एक तरफ व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं को सामाजिक वातावरण में पूरा करने में मदद देने का और दूसरी तरफ, जहाँ तक सम्भव हो, उन बाधाओं को दूर करने का प्रयत्न करता है जो लोगों को श्रेष्ठतम जिसके कि वे योग्य हैं, को प्राप्त करने में कठिनाई पैदा करती हैं।" उपर्युक्त दोनों परिभाषाओं से पता चलता है कि समाज-कार्य (i) व्यक्ति और समूह की आवश्यकताओं एवं कल्याण से सम्बन्धित है तथा (ii) यह सामाजिक वातावरण से उत्पन्न समस्याओं को हल करने का प्रयत्न है ताकि व्यक्ति, समूह और समुदाय अपनी क्षमताओं को ठीक से काम में ले सकें। अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि समाज-कार्य वह वैयक्तिक या सार्वजनिक गतिविधि है जिससे लोगों का जीवन-स्तर ऊंचा उठ सके और व्यक्ति, परिवार तथा समूह का सभी दृष्टियों से कल्याण हो सके। समाज-कार्य को व्यावसायिक सेवा के एक प्रकार के रूप में भी परिभाषित किया गया है ताकि व्यक्तियों की सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके और उनके उद्देश्यों की प्राप्ति में रुकावट डालने वाली बाधाओं को दूर किया जा सके।

जहाँ तक इन दोनों (समाजशास्त्र और समाज-कार्य) में सम्बन्ध का प्रश्न है, यह कहा जा सकता है कि जहाँ समाजशास्त्र एक विशुद्ध विज्ञान (Pure Science) है, वहाँ समाज-कार्य एक व्यावहारिक विज्ञान (Applied Science) है। समाज-कार्य को समाजशास्त्र का व्यावहारिक पक्ष माना गया है। समाज-कार्य के एक विषय के रूप में विकास के लिए प्रमुखतः समाजशास्त्र ही उत्तरदायी है। इस नवीन व्यावहारिक विज्ञान को विकसित करने में समाजशास्त्रियों, जैसे हेण्डरसन, बोगार्डस, लिंडमेन, ओडम, गिलिन, सदरलैण्ड, वुड आदि का काफी योगदान रहा है। समाजशास्त्रीय अवधारणाओं एवं सिद्धान्तों को व्यवहार में प्रयोग में लाने का श्रेय समाज-कार्य में लगे विद्वानों और कार्यकर्ताओं को है। समाजशास्त्रीय ज्ञान और अनुसन्धानों के आधार पर प्राप्त निष्कर्षों का समाज-कार्य के क्षेत्र में बहुत प्रयोग किया गया है। समाज-कार्य के लक्ष्यों की प्राप्ति में समाजशास्त्रीय ज्ञान काफी सहायक रहा है। समाज-कार्य से सम्बन्धित लोगों का कार्यक्षेत्र व्यक्ति, परिवार, समूह और समुदाय है, इनकी आवश्यकताओं की पूर्ति और इनका कल्याण है। इन्हें समझने में समाजशास्त्र काफी सहायता प्रदान करता है। जब तक व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों सामाजिक प्रक्रियाओं और समूह संरचनाओं को ठीक से नहीं समझ लिया जाता, तब तक समाज-कार्य अपने लक्ष्यों की प्राप्ति ठीक से नहीं कर सकता। इन सभी के सम्बन्ध में यथार्थ जानकारी प्रदान करने में समाजशास्त्र सहायक है।

समाजशास्त्रीय ज्ञान का व्यवहारिक क्षेत्र में प्रयोग कर समाज-कार्य सामाजिक समस्याओं को दूर करने में योग देता है। साथ ही समाज-कार्य के प्रयोग में आने वाली विभिन्न पद्धतियों, जैसे-सामाजिक वैयक्तिक अध्ययन (Social Case Work), सामाजिक समूह कार्य (Social Group Work), सामुदायिक संगठन (Community Organization), सामाजिक क्रिया (Social Action), सामाजिक कार्य प्रशासन (Social Work Administration), आदि का विकास मूल रूप में समाजशास्त्र की अध्ययन-पद्धतियों के रूप में ही हुआ है। इस प्रकार समाज-कार्य क्षेत्र में समाजशास्त्र का काफी योगदान है। साथ ही समाज-कार्य के अन्तर्गत विभिन्न क्षेत्रों में चल रही गतिविधियों या कार्यों के अनुभव व्यावहारिक ज्ञान के रूप में समाजशास्त्र के लिए काफी उपयोगी हैं। स्पष्ट है कि इन दोनों विज्ञानों में घनिष्ठ सम्बन्ध है।


समाजशास्त्र एवं भूगोल (Geography and Sociology)

समाजशास्त्र और भूगोल पूर्णतया दो पृथक् विषय मालूम पड़ते हैं, परन्तु इन दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। भौगोलिक पर्यावरण का सामाजिक जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। मैकाइवर और पेज के अनुसार, भौगोलिक पर्यावरण में वे दशाएँ आती हैं जो प्रकृति (Nature) मनुष्य के लिए उपलब्ध कराती है। इसमें अपनी सभी भौतिक विशेषताओं और प्राकृतिक स्रोतों-भूमि का वितरण तथा पानी, पहाड एवं मैदान, खनिज एवं पेड़-पौधे, पशु तथा जलवायु और अन्तरिक्षीय शक्तियों सहित जो पृथ्वी पर अपना असर डालती और मनुष्य के जीवन को प्रभावित करती है, भूमि की सतह आती है। समाजशास्त्र में सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक प्रक्रियाओं, समूहों, संरचनाओं, प्रथाओं, रूढ़ियों, संस्थाओं, विश्वासों और संस्कृति का अध्ययन किया जाता है। इन दोनों विज्ञानों में पारस्परिक निर्भरता काफी पायी जाती है। भौगोलिक पर्यावरण और परिस्थितियां समाज और सामाजिक जीवन को विभिन रूपों में प्रभावित करती

हैं। भौगोलिक पर्यावरण का व्यक्तियों के रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, बोल-चाल, रीति-रिवाज, विश्वास, संस्कृति आदि पर काफी प्रभाव पड़ता है। अलग-अलग क्षेत्रों में इन सबमें पायी जाने वाली भिन्नता का कारण प्राकृतिक पर्यावरण व भौगोलिक परिस्थितियों का अन्तर ही है। समाजशास्त्र के अन्तर्गत अध्ययन किये जाने वाले रीति-रिवाजों, प्रथाओं, रूढ़ियों, विश्वासों, धर्म एवं संस्कृति आदि को समझने के लिए भौगोलिक या प्राकृतिक पर्यावरण को समझना आवश्यक है। कुछ भूगोलशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों की तो यहाँ तक मान्यता है कि भौगोलिक पर्यावरण ही समाज के आकार एवं स्वरूप को निर्धारित करता है। भौगोलिक पर्यावरण के सामाजिक जीवन पर व्यापक प्रभाव के कारण ही वर्तमान में समाजशास्त्र में भौगोलिक सम्प्रदाय (Geographical School) का विकास हुआ है। अपनी विषय-सामग्री को समझने की दृष्टि से समाजशास्त्री के लिए भौगोलिक पर्यावरण की जानकारी आवश्यक है। इसके बिना वह सामाजिक परिस्थितियों को ठीक से नहीं समझ सकता।

भूगोल पर समाजशास्त्र का काफी प्रभाव देखने को मिलता है। यही कारण है कि भूगोल की एक नयी शाखा 'मानव भूगोल' (Human Geography) का विकास हो पाया है। इसका कार्य प्राकृतिक परिस्थितियों एवं मानवीय व्यवहारों के बीच पाये जाने वाले पारस्परिक सम्बन्धों को ज्ञात करना है। समाज, सामाजिक जीवन और संस्थाओं सम्बन्धी अपने विशेष ज्ञान के आधार पर समाजशास्त्र भूगोल को मानव समाज के लिए अधिक लाभकारी बनाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि दोनों विज्ञानों में निकट का सम्बन्ध है, पारस्परिक निर्भरता है।


समाजशास्त्र एवं अपराधशास्त्र (Criminology and Sociology)

अपराधशास्त्र के अन्तर्गत अपराध का अध्ययन किया जाता है जबकि समाजशास्त्र के अन्तर्गत समाज का। अपराध

और समाज इतने घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं कि इन दोनों का अध्ययन करने वाले विषयों-अपराधशास्त्र और समाजशास्त्र में निकट का सम्बन्ध होना स्वाभाविक ही है। अपराधशास्त्र में सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही अपराध का अध्ययन किया जाता है और इन परिस्थितियों का ज्ञान समाजशास्त्र से ही प्राप्त होता है। अब तो यह सिद्ध हो चुका है कि अपराधी जन्मजात नहीं होते। वे तो सामाजिक पर्यावरण की देन हैं। अपराधी-व्यवहार को जानने तथा इनके पीछे छिपे कारणों का पता लगाने की दृष्टि से आवश्यक है कि समाज की प्रकृति को समझा जाए और सामाजिक परिस्थितियों का ज्ञान प्राप्त किया जाए। इसके लिए अपराधशास्त्र पर निर्भर रहना पड़ेगा। 

अपराध प्रमुखतः राज्य के कानूनों का उल्लंघन है, उन्हें तोड़ना है। अन्य शब्दों में, कानून-विरोधी कार्य को ही अपराध कहा जाता है। अपराधशास्त्र इन अपराधी कानूनों का अध्ययन भी करता है, लेकिन इन कानूनों को

समझने के लिए हमें समाजशास्त्र में अध्ययन की जाने वाली प्रथाओं, रूढ़ियों, परम्पराओं और सामाजिक मूल्यों का अध्ययन करना होगा क्योंकि इन्हीं के आधार पर तो कानूनों का निर्माण होता है। साथ ही समाजशास्त्र यह भी बताता है कि जो कानून प्रथा के विपरीत होंगे, उनके उल्लंघन की सम्भावना ज्यादा रहेगी। इस अपराध एवं अपराधी-कानूनों के सम्बन्ध में काफी मात्रा में आवश्यक जानकारी हमें समाजशास्त्र से ही मिलती है। समाजशास्त्र ने तो न्यायशास्त्र एवं दण्डशास्त्र को भी प्रभावित किया है। अपराधी के दण्ड का निर्धारण और उसे दण्डित करने के सम्बन्ध में समाजशास्त्रीय ज्ञान का उपयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। अपराधी के प्रति मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाकर उसके सुधार का प्रयत्न वास्तव में न्यायशास्त्र की ही देन है। इस प्रकार स्पष्ट है कि ये दोनों शास्त्र एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं।

समाजशास्त्र शब्द की खोज कब हुई थी?

आरम्भ में ऑगस्त कोंत ने समाजशास्त्र का नाम रखा । का उद्भव बहुत पुराना नहीं है। समाजशास्त्र को अस्तित्व में लाने का श्रेय फ्रांस के विद्वान आगस्त कोंत को जाता है। जिन्होंने 1838 में इस नए विज्ञान को समाजशास्त्र नाम दिया ।

समाजशास्त्र की शुरुआत कब और कहां हुई?

एक विषय के रूप में समाजशास्त्र का उद्भव फ्रांसीसी क्रांति के बाद में हुआ है। आगस्त काम्टे को समाज विज्ञान का पिता माना जाता है। जर्मन मैक्स वेबर तथा कार्ल मार्क्स ने समाजशास्त्र के विकास में अपना योगदान दिया। विलियम जोंस द्वारा 1774 में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल की स्थापना।

समाज शास्त्र का जनक कौन है?

समाजशास्त्र के जनक ऑगस्त कॉम्त का पूरा नाम था इज़िदोर मारी ऑगस्त फ़्रांस्वा हाविए कॉम्त. उनका जन्म दक्षिण पश्चिम फ़्रांस के मॉन्टपैलिए नगर में 1798 में हुआ था. समाजशास्त्र लोगों, समुदायों और समाजों के जीवन का अध्ययन है.

समाजशास्त्र का पुराना नाम क्या है?

इसके परिणामस्वरूप सामाजिक नियमों का पता लगाया जा सके। ऑगस्ट कॉम्ट ने अपने गुरु के इन्हीं विचारों को मूर्त रूप देने का प्रयत्न किया। आपने समाज से सम्बन्धित अध्ययन को 'सामाजिक भौतिकी' (Social Physics) के नाम से पुकारा। सन् 1838 में आपने इस नाम को बदलकर इसे 'समाजशास्त्र' (Sociology) नाम दिया।