प्रश्न 2: पहला बोलता सिनेमा बनाने के लिए फिल्मकार अर्देशिर ईरानी को प्रेरणा कहाँ से मिली? उन्होंने आलम आरा फिल्म के लिए आधार कहाँ से लिया? विचार व्यक्त कीजिए। Show
उत्तर: अर्देशिर ईरानी ने 1929 में हॉलीवुड की बोलती फिल्म ‘शो बोट’ देखी थी। इसी फिल्म से उन्हें आलम आरा बनाने की प्रेरणा मिली थी। उन्होंने पारसी रंगमंच के एक लोकप्रिय नाटक को अपनी फिल्म का आधार बनाया था। प्रश्न 3: विट्ठल का चयन आलम आरा फिल्म के नायक के रूप में हुआ लेकिन उन्हें हटाया क्यों गया? विट्ठल ने पुन: नायक होने के लिए क्या किया? विचार प्रकट कीजिए। उत्तर: विट्ठल की उर्दू अच्छी नहीं होने के कारण उन्हें आलम आरा के नायक के रूप में हटा दिया गया। विट्ठल उस समय के सफल कलाकार हुआ करते थे। वे नाराज हो गये और उन्होंने अर्देशिर ईरानी पर मुकदमा दायर कर दिया। उनका मुकदमा उस समय के मशहूर वकील जिन्ना ने लड़ा था। विट्ठल मुकदमा जीत गये और अंतत: आलम आरा के नायक बने। यहाँ पर यह जाहिर होता है कि कैसे एक कलाकार अपने अहं के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। प्रश्न 4: सवाक फिल्म के निर्माता निर्देशक अर्देशिर ईरानी को जब सम्मानित किया गया तब सम्मानकर्ताओं ने उनके लिए क्या कहा था? अर्देशिर ने क्या कहा? इस प्रसंग में लेखक ने क्या टिप्पणी की है? उत्तर: सम्मानकर्ताओं ने अर्देशिर को ‘भारतीय सवाक फिल्मों का पिता’ कहा। अर्देशिर ने कहा कि वो इतनी बड़ी उपाधि के लायक नहीं थे बल्कि उन्होंने देश के लिए अपना भरसक योगदान करने की कोशिश की थी। लेखक ने इस प्रसंग में अर्देशिर की विनम्रता की तारीफ की है। प्रश्न 5: मूक सिनेमा में संवाद नहीं होते, उसमें दैहिक अभिनय की प्रधानता होती है। पर जब सिनेमा बोलने लगा उसमें अनेक परिवर्तन हुए। उन परिवर्तनों को अभिनेता, दर्शक और कुछ तकनीकी दृष्टि से पाठ का आधार लेकर खोजें, साथ ही अपनी कल्पना का भी सहयोग लें। उत्तर: बोलती फिल्म के आने से अभिनेताओं को अपनी अभिनय शैली में परिवर्तन करना पड़ा होगा। उन्हें अपनी भाषा और बोलने की कला को नये परिवेश के हिसाब से ढ़ालना पड़ा होगा। दर्शकों के लिए सिनेमा को समझ पाना आसान हो गया होगा। उनका रोमांच भी बढ़ गया होगा। वे ज्यादा आसानी से कल्पना की दुनिया में डूब जाते होंगे। आवाज रिकार्ड करने की नई तकनीक खोजने की जरूरत पड़ी होगी जिससे शोर कम किया जा सके। प्रश्न 6: डब फिल्में किसे कहते हैं? कभी-कभी डब फिल्मों में अभिनेता के मुंह खोलने और आवाज में अंतर आ जाता है। इसका कारण क्या हो सकता है? उत्तर: जब किसी एक भाषा की फिल्म में दूसरी भाषा की आवाज डाली जाती है तो उसे डब करना कहते हैं। हर भाषा की अपनी बारीकियां होती हैं। चाहे कितना भी अच्छा डब करने वाला कलाकार हो और कितनी भी आधुनिकतम तकनीक इस्तेमाल हो, भाषा की बारीकियों का अंतर नहीं मिटाया जा सकता है। जब भारत में केबल टीवी नया-नया आया था तब यहाँ के डब करने वाले कलाकार सीख ही रहे थे। उस समय वे बहुत अच्छा प्रभाव नहीं डाल पाते थे। अब ज्यादातर फिल्मों में डबिंग बहुत अच्छी हो गई है। अब बहुत गौर से देखने पर ही तालमेल का अंतर देखा जा सकता है। 3 मई 2013 (शुक्रवार) को भारतीय सिनेमा पूरे सौ साल का हो गया। किसी भी देश में बनने वाली फिल्में वहां के सामाजिक जीवन और रीति-रिवाज का दर्पण होती हैं। भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में हम भारतीय समाज के विभिन्न चरणों का अक्स देख सकते हैं।उल्लेखनीय है कि इसी तिथि को भारत की पहली फीचर फ़िल्म “राजा हरिश्चंद्र” का रुपहले परदे पर पदार्पण हुआ था। V इस फ़िल्म के निर्माता भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहब फालके थे। एक सौ वर्षों की लम्बी यात्रा में हिन्दी सिनेमा ने न केवल बेशुमार कला प्रतिभाएं दीं बल्कि भारतीय समाज और चरित्र को गढ़ने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। इतिहास[संपादित करें]दादासाहब फालके ने अपने लंदन प्रवास के दौरान ईसा मसीह के जीवन पर आधारित एक चलचित्र देखा। उस फिल्म को देख कर दादा साहेब फालके के मन में पौराणिक कथाओं पर आधारित चलचित्रों के निर्माण करने की प्रबल इच्छा जागृत हुई। स्वदेश आकर उन्होंने राजा हरिश्चंद्र बनाई जो कि भारत की पहली लंबी फिल्म थी और 03 मई 1913 में प्रदर्शित हुई। ध्वनिरहित होने के बावजूद भी उस चलचित्र ने लोगों का भरपूर मनोरंजन किया और दर्शकों ने उसकी खूब प्रशंसा की। फिर तो चलचित्र निर्माण ने भारत के एक उद्योग का रूप धारण कर लिया और तीव्रता पूर्वक उसका विकास होने लगा। उन दिनों हिमांशु राय जर्मनी के यू.एफ.ए. स्टुडिओ में निर्माता के रूप में कार्यरत थे। वे अपनी पत्नी देविका रानी के साथ स्वदेश वापस आ गये और अपने देश में चलचित्रों का निर्माण करने लगे। उनकी पत्नी देविका रानी स्वयं उनकी फिल्मों में नायिका (हीरोइन) हुआ करती थी। पति-पत्नी दोनों को खूब सफलता मिली और दोनों ने मिलकर बांबे टाकीज स्टूडियो की स्थापना की। अपने उद्गम से लेकर आज तक भारतीय सिनेमा में इतने ज्यादा बदलाव आये हैं कि कोई भी अब ये नहीं कह सकता कि आज के दौर में बनने वाली फिल्में उसी भारतीय सिनेमा का अंग हैं जो हमेशा भारतीय समाज में चेतना को जाग्रत करने का कार्य करता आया है। कहा जाता है कि किसी भी समाज को सही राह दिखाने के लिए सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा है, क्योंकि सिनेमा दृश्य और श्रव्य दोनों का मिला- जुला रूप है और ये सीधे मनुष्य के दिल पर प्रभाव डालता है।[1] पहली भारतीय फिल्म[संपादित करें]
भारतीय सिनेमा के जनक और उनके प्रयास[संपादित करें]पहली बंगाली सवाज़ फिल्म देना पोना (1931) से एक दृश्य। भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहब फालके, सर जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट से प्रशिक्षित सृजनशील कलाकार थे। वह मंच के अनुभवी अभिनेता थे, शौकिया जादूगर थे। कला भवन बड़ौदा से फोटोग्राफी का एक पाठ्यक्रम भी किया था। उन्होंने फोटो केमिकल प्रिंटिंग की प्रक्रिया में भी प्रयोग किये थे। प्रिंटिंग के जिस कारोबार में वह लगे हुए थे, 1910 में उनके एक साझेदार ने उससे अपना आर्थिक सहयोग वापस ले लिया। उस समय इनकी उम्र 40 वर्ष की थी कारोबार में हुई हानि से उनका स्वभाव चिड़िचड़ा हो गया था। उन्होंने क्रिसमस के अवसर पर ‘ईसामसीह’ पर बनी एक फिल्म देखी। फिल्म देखने के दौरान ही फालके ने निर्णय कर लिया कि उनकी जिंदगी का मकसद फिल्मकार बनना है। उन्हें लगा कि रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक महाकाव्यों से फिल्मों के लिए अच्छी कहानियां मिलेंगी। उनके पास सभी तरह का हुनर था। वह नए-नए प्रयोग करते थे। अतः प्रशिक्षण का लाभ उठाकर और अपनी स्वभावगत प्रकृति के चलते प्रथम भारतीय चलचित्र बनाने का असंभव कार्य करनेवाले वह पहले व्यक्ति बने। उन्होंने 5 पौंड में एक सस्ता कैमरा खरीदा और शहर के सभी सिनेमाघरों में जाकर फिल्मों का अध्ययन और विश्लेषण किया। फिर दिन में 20 घंटे लगकर प्रयोग किये। ऐसे उन्माद से काम करने का प्रभाव उनकी सेहत पर पड़ा। उनकी एक आंख जाती रही। उस समय उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने उनका साथ दिया। सामाजिक निष्कासन और सामाजिक गुस्से को चुनौती देते हुए उन्होंने अपने जेवर गिरवी रख दिये (40 साल बाद यही काम सत्यजित राय की पत्नी ने उनकी पहली फिल्म ‘पाथेर पांचाली’ बनाने के लिए किया)। उनके अपने मित्र ही उनके पहले आलोचक थे। अतः अपनी कार्यकुशलता को सिद्ध करने के लिए उन्होंने एक बर्तन में मटर बोई। फिर इसके बढ़ने की प्रक्रिया को एक समय में एक फ्रेम खींचकर साधारण कैमरे से उतारा। इसके लिए उन्होंने टाइमैप्स फोटोग्राफी की तकनीक इस्तेमाल की। इस तरह से बनी अपनी पत्नी की जीवन बीमा पॉलिसी गिरवी रखकर, ऊंची ब्याज दर पर ऋण प्राप्त करने में वह सफल रहे। फरवरी 1912 में, फिल्म प्रोडक्शन में एक क्रैश-कोर्स करने के लिए वह इंग्लैण्ड गए और एक सप्ताह तक सेसिल हेपवर्थ के अधीन काम सीखा। कैबाउर्न ने विलियमसन कैमरा, एक फिल्म परफोरेटर, प्रोसेसिंग और प्रिंटिंग मशीन जैसे यंत्रों तथा कच्चा माल का चुनाव करने में मदद की। इन्होंने ‘राजा हरिशचंद्र’ बनायी। चूंकि उस दौर में उनके सामने कोई और मानक नहीं थे, अतः सब कामचलाऊ व्यवस्था उन्हें स्वयं करनी पड़ी। अभिनय करना सिखाना पड़ा, दृश्य लिखने पड़े, फोटोग्राफी करनी पड़ी और फिल्म प्रोजेक्शन के काम भी करने पड़े। महिला कलाकार उपलब्ध न होने के कारण उनकी सभी नायिकाएं पुरुष कलाकार थे (वेश्या चरित्र को छोड़कर)। होटल का एक पुरुष रसोइया सालुंके ने भारतीय फिल्म की पहली नायिका की भूमिका की। शुरू में शूटिंग दादर के एक स्टूडियो में सेट बनाकर की गई। सभी शूटिंग दिन की रोशनी में की गई क्योंकि वह एक्सपोज्ड फुटेज को रात में डेवलप करते थे और प्रिंट करते थे (अपनी पत्नी की सहायता से)। छह माह में 3700 फीट की लंबी फिल्म तैयार हुई। 21 अप्रैल 1913 को ओलम्पिया सिनेमा हॉल में यह रिलीज की गई। पश्चिमी फिल्म के नकचढ़े दर्शकों ने ही नहीं, बल्कि प्रेस ने भी इसकी उपेक्षा की। लेकिन फालके जानते थे कि वे आम जनता के लिए अपनी फिल्म बना रहे हैं, अतः यह फिल्म जबरदस्त हिट रही। फालके के फिल्मनिर्मिती के प्रयास तथा पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र के निर्माण पर मराठी में एक फिचर फिल्म 'हरिश्चंद्राची फॅक्टरी' २००९ में बनी, जिसे देश विदेश में सराहा गया।[2] हिन्दी फिल्मों का विस्तार[संपादित करें]1913 से 1929 तक भारतीय सिनेमा में मूक फिल्मों की ही प्रधानता रही पर 1930 के आसपास चलचित्रों में ध्वनि के समावेश करने का तकनीक विकसित हो जाने से सवाक् (बोलती) फिल्में बनने लगीं। आलम आरा भारत की पहली सवाक् फिल्म थी जो कि सन् 1931 में प्रदर्शित हुई। पहली बोलती फिल्म[संपादित करें]फिल्म निर्माण में कोलकाता स्थित मदन टॉकिज के बैनर तले ए. ईरानी ने महत्वपूर्ण पहल करते हुए पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ बनायी। इस फिल्म की शूटिंग रेलवे लाइन के पास की गई थी इसलिए इसके अधिकांश दृश्य रात के हैं। रात के समय जब ट्रेनों का चलना बंद हो जाता था तब इस फिल्म की शूटिंग की जाती थी। जाने माने फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल ने ‘भाषा’ से कहा, ‘‘भारतीय सिनेमा की शुरुआत बातचीत के माध्यम से नहीं बल्कि गानों के माध्यम से हुई। यही कारण है कि आज भी बिना गानों के फिल्में अधूरी मानी जाती हैं।’’ वाडिया मूवी टोन की 80 हजार रुपये की लागत से निर्मित साल 1935 की फिल्म ‘हंटरवाली’ ने उस जमाने में लोगों के मानस पटल पर गहरी छाप छोड़ी और अभिनेत्री नाडिया की पोशाक और पहनावे को महिलाओं ने फैशन ट्रेंड के रूप में अपनाया।[3] 1933 में प्रदर्शित फिल्म कर्मा इतनी अधिक लोकप्रिय हुई कि उस फिल्म की नायिका देविका रानी को लोग फिल्म स्टार के नाम से संबोधित करने लगे और वे भारत की प्रथम महिला फिल्म स्टार बनीं। मूक फिल्मों के जमाने तक मुंबई (पूर्व नाम बंबई) देश में चलचित्र निर्माण का केन्द्र बना रहा परंतु सवाक् फिल्मों का निर्माण शुरू हो जाने से और हमारे देश में विभिन्न भाषाओं का चलन होने के कारण चेन्नई (पूर्व नाम मद्रास) में दक्षिण भारतीय भाषाओं वाली चलचित्रों का निर्माण होने लगा। इस तरह भारत का चलचित्र उद्योग दो भागों में विभक्त हो गया। उन दिनों प्रभात, बांबे टाकीज और न्यू थियेटर्स भारत के प्रमुख स्टुडिओ थे और ये प्रायः गंभीर किंतु मनोरंजक फिल्में बना कर दर्शकों का मनोरंजन किया करती थीं। ये तीनों स्टुडिओ देश के बड़े बैनर्स कहलाते था। उन दिनों सामाजिक अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने वाली, धार्मिक तथा पौराणिक, ऐतिहासिक, देशप्रेम से सम्बंधित चलचित्रों का निर्माण हुआ करता था और उन्हें बहुत अधिक पसंद भी किया जाता था। उस समय के कुछ प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय फिल्में हैं - वी शांताराम की फिल्म "दुनिया ना माने", फ्रैंज ओस्टन की फिल्म "अछूत कन्या", दामले और फतेहलाल की फिल्म "संत तुकाराम", मेहबूब खान की फिल्में "वतन", "एक ही रास्ता" और "औरत", अर्देशीर ईरानी की फिल्म "किसान कन्या" आदि। वी शांताराम की "डॉ॰ कोटनीस की अमर कहानी", मेहबूब ख़ान की "रोटी", चेतन आनंद की "नीचा नगर", उदय शंकर की "कल्पना", ख्वाज़ा अहमद अब्बास की "धरती के लाल", सोहराब मोदी की "सिकंदर", "पुकार" और "पृथ्वी वल्लभ", जे.बी.एच. वाडिया की "कोर्ट डांसर", एस.एस. वासन की "चंद्रलेखा", विजय भट्ट की "भरत मिलाप" और "राम राज्य", राज कपूर की "बरसात" और "आग" उन दिनों की अविस्मरणीय फिल्में हैं। आरंभ में स्टुडियो पद्धति का प्रचलन रहा। हरेक स्टुडिओ के अपने वेतनभोगी निर्माता, निर्देशक, संगीतकार, नायक, नायिका तथा अन्य कलाकार हुआ करते थे। पर बाद चलचित्र निर्माण में रुचि रखने वाले लोग स्वतंत्र निर्माता के रूप में फिल्म बनाने लगे। इन स्वतंत्र निर्माताओं ने स्टुडियो को किराये पर लेना तथा कलाकारों से ठेके पर काम करवाना शुरू कर दिया। चूँकि ठेके में काम करने में अधिक आमदनी होती थी, कलाकारों ने वेतन लेकर काम करना लगभग बंद कर दिया। इस प्रकार स्टुडियो पद्धति का चलन समाप्त हो गया और स्टुडियो को केवल किराये पर दिया जाने लगा।[4] चालीस और पचास का दशक[संपादित करें]गुजरे जमाने के अभिनेता मनोज कुमार ने कहा कि 40 और 50 का दशक हिन्दी सिनेमा के लिहाज से शानदार रहा। 1949 में राजकपूर की फिल्म ‘बरसात’ ने बाक्स आफिस पर धूम मचाई। इस फिल्म को उस जमाने में ‘ए’ सर्टिफिकेट दिया गया था क्योंकि अभिनेत्री नरगिस और निम्मी ने दुपट्टा नहीं ओढ़ा था। बिमल राय ने ‘दो बीघा जमीन’ के माध्यम से देश में किसानों की दयनीय स्थिति का चित्रण किया। फिल्म में अभिनेता बलराज साहनी का डायलॉग ‘‘जमीन चले जाने पर किसानों का सत्यानाश हो जाता है, आज भी भूमि अधिग्रहण की मार झेल रहे किसानों की पीड़ा को सटीक तरीके से अभिव्यक्त करता है। यह पहली भारतीय फिल्म थी जिसे कॉन फिल्म समारोह में पुरस्कार प्राप्त हुआ। 50 के दशक में सामाजिक विषयों पर आधारित व्यवसायिक फिल्मों का दौर शुरू हुआ। वी शांताराम की 1957 में बनी फिल्म ‘दो आंखे बारह हाथ’ में पुणे के ‘खुला जेल प्रयोग’ को दर्शाया गया। लता मंगेशकर ने इस फिल्म के गीत ‘ऐ मालिक तेरे बंदे हम’ को आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक पहुंचाया। फणीश्वरनाथ रेणु की बहुचर्चित कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर आधारित फिल्म ‘तीसरी कसम’ हिन्दी सिनेमा में कथानक और अभिव्यक्ति का सशक्त उदाहरण है। ऐसी फिल्मों में बदनाम बस्ती, आषाढ़ का दिन, सूरज का सातवां घोड़ा, एक था चंदर-एक थी सुधा, सत्ताईस डाउन, रजनीगंधा, सारा आकाश, नदिया के पार आदि प्रमुख है। 'धरती के लाल और नीचा नगर’ के माध्यम से दर्शकों को खुली हवा का स्पर्श मिला और अपनी माटी की सोंधी सुगन्ध, मुल्क की समस्याओं एवं विभीषिकाओं के बारे में लोगों की आंखें खुली। ‘‘देवदास, बन्दिनी, सुजाता और परख’’ जैसी फिल्में उस समय बाक्स आफिस पर उतनी सफल नहीं रहने के बावजूद ये, फिल्मों के भारतीय इतिहास के नये युग की प्रवर्तक मानी जाती हैं। महबूब खान की साल 1957 में बनी फिल्म ‘‘मदर इण्डिया’’ हिन्दी फिल्म निर्माण के क्षेत्र में मील का पत्थर मानी जाती है। सत्यजीत रे की फिल्म पाथेर पांचाली और शम्भू मित्रा की फिल्म ‘जागते रहो’ फिल्म निर्माण और कथानक का शानदार उदाहरण थी। इस श्रृंखला को स्टर्लिंग इंवेस्टमेंट कारपोरेशन लिमिटेड के बैनर तले निर्माता निर्देशक के आसिफ ने ‘मुगले आजम’ के माध्यम से नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया। अभिनेताओं में चालीस के दशक में कुन्दन लाल सहगल,अशोक कुमार,दिलीप कुमार,देव आनन्द,इफ़्तेख़ार,रहमान,पिंचू कपूर,प्रेमनाथ,अजीत,राज कपूर और पृथ्वीराज कपूर लोकप्रिय हुये तथा अभिनेत्रियों में देविका रानी और मीना कुमारी चर्चित रही। इसीपरकार पचास के दशक में अभिनेताओं में शम्मी कपूर,राजेन्द्र कुमार,राज कुमार,सुनील दत्त,जीवन,किशोर कुमार,मदन पुरी,ओम शिवपुरी,अनूप कुमार और राजेन्द्र नाथ चर्चित रहे तथा अभिनेत्रियों में चर्चित रही मधुबाला,वहीदा रहमान और आशा पारेख। पचास के दशक के बाद[संपादित करें]त्रिलोक जेतली ने गोदान के निर्माता निर्देशक के रूप में जिस प्रकार आर्थिक नुकसान का ख्याल किये बिना प्रेमचंद की आत्मा को सामने रखा, वह आज भी आदर्श है। गोदान के बाद ही साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने का सिलसिला शुरू हुआ। प्रयोगवाद की बात करें तो गुरूदत्त की फिल्में ‘प्यासा’, ‘कागज के फूल‘ तथा ‘साहब बीबी और गुलाम’ को कौन भूल सकता है। मुजफ्फर अली की ‘गमन’ और विनोद पांडे की ‘एक बार फिर’ ने इस सिलसिले को आगे बढ़ाया। रमेश सिप्पी की 1975 में बनी फिल्म ‘शोले’ ने हिन्दी फिल्म निर्माण को नयी दिशा दी। यह अभिनेता अमिताभ बच्चन के एंग्री यंग मैन के रूप में उभरने का दौर था। पचास के दशक में ट्रेजडी किंग के रूप में दिलीप कुमार लोकप्रिय हुये। दिदार (1951) और देवदास(1955) जैसी फिल्मो में दुखद भूमिकाओं के मशहूर होने के कारण उन्हे ट्रेजिडी किंग कहा गया। मुगले-ए-आज़म (1960) में उन्होने मुग़ल राजकुमार जहांगीर की भूमिका निभाई। यह फिल्म पहले श्वेत और श्याम थी और 2004 में रंगीन बनाई गई। उन्होने 1961 में गंगा-जमुना फिल्म का निर्माण भी किया, जिसमे उनके साथ उनके छोटे भाई नासीर खान ने काम किया। 1970, 1980 और 1990 के दशक में उन्होने कम फिल्मो में काम किया। इस समय की उनकी प्रमुख फिल्मे थी: विधाता (1982), दुनिया (1984), कर्मा (1986), इज्जतदार(1990) और सौदागर(1991)। 1998 में बनी फिल्म किला उनकी आखरी फिल्म थी। साठ के दशक के चर्चित अभिनेताओं में शशि कपूर,कैस्टो मुखर्जी,धर्मेन्द्र,जितेन्द्र,राजेश खन्ना,संजीव कुमार,फ़िरोज़ ख़ान,संजय ख़ान,जॉय मुखर्जी,विश्वजीत,मनमोहन कृष्णा,ओम प्रकाश,असित सेन,प्रेम चोपड़ा,ए के हंगल और रमेश देव का नाम आता है, वहीं अभिनेत्रियों में प्रिया राजवंश,नरगिस,हेमा मालिनी,शर्मिला टैगोर,राखी गुलज़ार आदि की। सत्तर के दशक में जिन अभिनेताओं की चर्चा हुयी उनमें प्रमुख हैं अमिताभ बच्चन,अनिल कपूर,नवीन निश्चल,राकेश रोशन,राकेश बेदी और ओम पुरी आदि, वहीं अभिनेत्रियों में रेखा,मुमताज़,ज़ीनत अमान,परवीन बॉबी,नीतू सिंह,शबाना आज़मी,प्रीति गाँगुली,प्रीती सप्रू आदि चर्चित रही। इसी प्रकार अस्सी के दशक में संजय दत्त,सनी देओल,शाहरुख़ ख़ान,आमिर ख़ान,सलमान ख़ान आदि अभिनेताओं का धमाकेदार प्रवेश हुआ, वहीं अभिनेत्रियों में माधुरी दीक्षित,जूही चावला,अमिता नाँगिया आदि की। अस्सी के दशक के बाद[संपादित करें]80 के दशक तक फिल्में जमींदारी, स्त्री शोषण सहित उन सभी मुद्दों पर आधारित होती थी जो समाज को प्रभावित करते थे। उनका उद्देश्य व्यावसयिक न होकर सामजिक कल्याण होता था। पर 90 के दशक में फिल्मों में व्यापक बदलाव आये। फ़िल्मकारों ने ऐसे विषय चुनने शुरू कर दिए, जो बहुत ही सीमित वर्ग की पसंद के थे, लेकिन बदले में उन्हें चूंकि डॉलर में कमाई होने वाली थी इसलिए व्यावसायिक हितों को कोई नुकसान नहीं होने वाला था। और ये वही दौर था जब फिल्में समाज हित से हटकर पूरी तरह से व्यावासिक हित में रम गयी। फिल्में बनाने वाले निदेशकों और निर्माताओं का उदेश्य फिल्म में वास्तविकता डालने की बजाये उन चीजों को डालने का होता जो दर्शक को मनोरंजन कराये जिसका आज समाज पर नकरात्मक प्रभाव पड़ने लगा। आज भारतीय समाज जो आधुनिकता की नंगी दौड़ में दौड़ रहा उसका श्रेय बहुत हद आज के दौर निर्मित होने वाली फिल्मों को ही जाता है अगर उदाहरण से समझना हो तो नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में बनी फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ से शुरू करके ‘नील और निक्की’ तक की कहानी में इस बदलाव को देखा जा सकता है। इस बदलाव को दो रूपों में देखने की जरूरत है। एक रूप है भारत के घरेलू फिल्मकारों का और दूसरा प्रवासी भारतीय फिल्मकारों का। दोनों की फिल्मों का कथानक आश्चर्यजनक रूप से एक जैसा है। इनमें से जो लोग पारिवारिक ड्रामा नहीं बना रहे हैं वे या तो औसत दर्जे की सस्पेंस थ्रिलर और अपराध कथा पर फिल्म बना रहे हैं या संपन्न घरों के युवाओं व महानगरों के युवाओं के जीवन में उपभोक्तावादी संस्कृति की अनिवार्य खामी के रूप में आए तनावों पर फिल्म बना रहे हैं। घरेलू फिल्मकारों में आदित्य चोपड़ा, करण जौहर, राकेश रोशन, रामगोपाल वर्मा, फरहान अख्तर जैसे सफल फिल्मकारों के नाम लिए जा सकते हैं और दूसरी श्रेणी में गुरिन्दर चंढा (बेंड इट लाइक बेकहम), नागेश कुकुनूर (हैदराबाद ब्लूज), विवेक रंजन बाल्ड (म्यूटिनी: एशियन स्टार्म म्यूजिक), बेनी मैथ्यू (ह्नेयर द पार्टी यार), निशा पाहूजा (बालीवुड बाउंड), महेश दत्तानी (मैंगो सौफल), मीरा नायर (मानसून वेडिंग), शेखर कपूर (द गुरू), दीपा मेहता आदि के नाम लिए जा सकते हैं, जो अनिवार्य रूप से प्रवासियों के लिए फिल्में बनाते हैं। पुराने जमाने में ‘तीसरी कसम’ से लेकर ‘भुवन शोम’ और अंकुर, अनुभव और अविष्कार तक फिल्मों का समानान्तर आंदोलन चला। इन फिल्मों के माध्यम से दर्शकों ने यथार्थवादी पृष्ठभूमि पर आधारित कथावस्तु को देखा.परखा और उनकी सशक्त अभिव्यक्तियों से प्रभावित भी हुए। नये दौर में विजय दानदेथा की कहानी पर आधारित फिल्म ‘पहेली’ श्याम बेनेगल की ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ और ‘वेलडन अब्बा’, आशुतोष गोवारिकर की ‘लगान’, ‘स्वदेश’, आमिर खान अभिनीत ‘थ्री इडियट्स’, अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘पा’ और ‘ब्लैक’, शाहरूख खान अभिनीत ‘माई नेम इज खान’ जैसे कुछ नाम ही सामने आते हैं जो कथानक और अभिव्यक्ति की दृष्टि से सशक्त माने जाते हैं। 60 और 70 का दशक हिंदी फिल्मों के सुरीले दशक के रूप में स्थापित हुआ तो 80 और 90 के दशक में हिन्दी सिनेमा ‘बालीवुड’ बनकर उभरा।[5] नब्बे के दशक में संजय कपूर,अक्षय कुमार,सुनील शेट्टी,सैफ़ अली ख़ान,अजय देवगन आदि अभिनेताओं का तो वहीं अभिनेत्रियों में दिव्या भारती,बिपाशा बसु,करिश्मा कपूर,करीना कपूर,मनीषा कोइराला,काजोल देवगन,रानी मुखर्जी,प्रीति ज़िंटा आदि का आगमन हुआ। इसीपरकार 2000 के दशक में शाहिद कपूर,ऋतिक रोशन,अभिषेक बच्चन,फ़रदीन ख़ान आदि अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों में प्रियंका चोपड़ा,नीतू चन्द्रा,दीपिका पादुकोण,अनुष्का शर्मा,सोनम कपूर,अमीशा पटेल,प्रीति झंगियानी तथा 2010 के दशक में सोनाक्षी सिन्हा का धमाकेदार आगमन हुआ। क्षेत्रीय भाषाओं में विस्तार[संपादित करें]अमिताभ बच्चन व्यापक रूप से भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे बड़े और सबसे प्रभावशाली कलाकारों में से एक माने जाते है। 1931 में आर्देशिर ईरानी ने भारत की पहली सवाक फिल्म आलम आरा का प्रदर्शन किया। उसी साल तमिल की पहली सवाक फिल्म कालिदास और तेलुगु की सवाक फिल्म भक्त प्रह्लाद का प्रदर्शन किया गया। न्यू थिएटर्स ने बंगला में चंडीदास फिल्म का निर्माण 1932 में किया था। इसके बाद भारत की कई भाषाओं में सवाक फिल्मों के निर्माण की प्रक्रिया तेजी से शुरू हो गई। मूक फिल्मों के पूरे दौर में अधिकतर फिल्में या तो पौराणिक या धार्मिक या ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित होती थीं। कुछ फिल्में अरब, यूरोप आदि की लोकप्रिय कहानियों पर भी बनी थीं। लेकिन सामाजिक विषयों पर फिल्मों का निर्माण बहुत ही कम हुआ। मूक सिनेमा में ही बाबूराव पेंटर जैसे फिल्मकार उभर चुके थे, जिनके लिए सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का माध्यम नहीं था बल्कि वह सामाजिक संदेश देने का माध्यम भी था। 1930 और 1940 के दशक में मराठी और हिंदुस्तानी फिल्मों को ऊंचाइयों की ओर ले जाने वाले एस. फत्तेलाल, विष्णुपंत दामले और वी. शांताराम इन्हीं बाबूराव पेंटर की देन थे। भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद की शुरुआत का श्रेय बाबूराव पेंटर को जाता है।[6] 1 जनवरी 1961 को एक फिल्म आयी ‘गंगा जमुना’। इस फिल्म में अवधी संवादों का प्रयोग था। हिन्दी सिनेमा के इतिहास में यह पहली बार हुआ था। यह फिल्म व्यापक सफल हुई थी। इसके निर्माता दिलीप कुमार के भाई नासिर खाँ एवं निर्देशक नितिन बोस थे। दिलीप कुमार एवं वैजयन्ती माला के साथ नज़ीर हुसैन ने भी इस फिल्म में अभिनय किया था। ‘गंगा जमुना’ ने यह विश्वास कायम कर दिया था कि अगर कोई उत्तर भारतीय बोलियों-भाषाओँ में भी फ़िल्में बनाए, तो वह घाटे का सौदा नहीं होगा।इसी से प्रेरणा लेकर उत्तर भारत में ब्रजभाषा सिनेमा का प्रारम्भ हिन्दी फिल्मों के प्रसिद्ध अभिनेता शिव कुमार ने किया। वर्ष 1982 में रिलीज फिल्म ब्रज भूमी के साथ ब्रजभाषा सिनेमा का आरम्भ हुआ। भारत के प्रथम राष्ट्रपति की इच्छा थी कि भोजपुरी में भी फिल्म निर्माण किया जाये। उनकी इस इच्छा के दृष्टिगत भोजपुरी की पहली फिल्म का निर्माण हुआ, जिसका नाम था "हे गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ाइबो"। फिल्म निर्माता विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी ने 21 फ़रवरी 1963 को तत्कालीन राष्ट्रपति देशरत्न डॉ॰ राजेन्द्रप्रसाद को पटना के सदाकत आश्रम में समर्पित किया। यानि 21 फ़रवरी 1963 को इस फ़िल्म का उद्घाटन समारोह समझा गया। इसके एक दिन बाद अर्थात 22 फ़रवरी 1963 को फिल्म का एक प्रीमियर शो पटना के वीणा सिनेमा में रखा गया। लेकिन इसके व्यावसायिक प्रदर्शन की शुरुआत 4 अप्रैल 1963 को वाराणसी के प्रकाश टॉकीज (अब बन्द हो चुका है) से हुई। यह आश्चर्य का विषय है कि इस वर्ष एक ओर भारतीय सिनेमा अपना शताब्दी वर्षगांठ मनाने जा रहा है तो दूसरी ओर भोजपुरी सिनेमा अपना पच्चस वर्ष भी पूरा कर रहा है।[7] पारसी थियेटर का योगदान[संपादित करें]प्रसाद्स आइमैक्स रंगमंच हैदराबाद में स्थित है। जहां दुनिया का सबसे बड़ा 3 डी आईमेक्स स्क्रीन है पारसी थियेटर ने हिंदी-उर्दू विवाद से परे रहते हुए बोलचाल की एक ऐसी भाषा की परंपरा स्थापित की जो हिंदी और उर्दू की संकीर्णताओं से परे थी और जिसे बाद में हिंदुस्तानी के नाम से जाना गया। यह भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े हिस्से में संपर्क भाषा के रूप में विकसित हुई थी। हिंदी सिनेमा ने आरंभ से ही भाषा के इसी रूप को अपनाया। इस भाषा ने ही हिंदी सिनेमा को गैर हिंदी भाषी दर्शकों के बीच भी लोकप्रिय बनाया। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से बढ़ावा दिया। आगा हश्र कश्मीरी (1879-1935) का नाटक ‘यहूदी’ इसका श्रेष्ठ उदाहरण है, जिस पर कई बार फिल्में बनीं और बिमल राय ने भी इस नाटक पर फिल्म बनाना जरूरी समझा। प्रारम्भिक दिनों के कुछ दिलचस्प किस्से[संपादित करें]पहली सवाज़ फिल्म आलम आरा का पोस्टर (1931) ए वी एम स्टुडियो चेन्नई, भारत में सबसे पुराना जीवित स्टूडियो में
चर्चित हस्तियाँ[संपादित करें]भारतीय सिनेमा के सौ साल के इतिहास में अनेक ऐसे कलाकार और फनकार हुए हैं जिन्होंने सीधे जनता के दिलों में अपनी जगह बनाई। चर्चित अभिनेता[संपादित करें]रहमान का नोबेल शांति पुरस्कार कॉन्सर्ट 2010 में प्रदर्शन
चर्चित अभिनेत्रियाँ[संपादित करें]
चर्चित निर्देशक[संपादित करें]भारतीय सिनेमा में कुछ निर्देशकों का स्थान बहुत सम्मान जनक है, जिन्हें दर्शकों ने जहां सिर-आँखों पर बिताया, वहीं पूरी दुनिया ने झुकाकर सलाम किया। इनमें से प्रमुख हैं : यश चोपड़ा,सत्यजीत रे,बिमल राय,करण जौहर,श्याम बेनेगल,मणिरत्नम्,रमेश सिप्पी,गोविंद निहलानी आदि। चर्चित गीतकार[संपादित करें]हिन्दी संगीत ने बेहतरीन गीतकारों की एक परंपरा की शुरूआत कर संगीत प्रेमियों को यादगार तोहफा दिया। आलम आरा के साथ चला गीतों का कारवां कुछ उतार चढ़ाव के साथ चलता रहा और आज भी जारी है। इन गीतकारों की श्रेणी में कई ऐसे फनकारों के नाम लिये जा सकते हैं जिनके गीत लोगों के जुबान पर चढ़कर बोले। गीतकार कमर जलालादावादी, भरत व्यास, हसन कमाल, एस एच बिहारी, असद भोपाली, पंडित नरेन्द्र शर्मा, गौहर कानपुरी, पुरूषोत्तम, शेवाज रिजवी, अभिलाष, रमेश शास्त्री, बशर नवाज, खुमान बाराबंकी आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा हिन्दी फिल्मों के चर्चित गीतकारों में कैफ़ी आज़मी, शकील बदायूँनी,कैफ भोपाली,मजरुह सुल्तानपुरी, गुलज़ार,जावेद अख्तर आदि प्रमुख हैं।[12] चर्चित गायक[संपादित करें]भारतीय सिनेमा के मशहूर पार्श्व्गायकों की बात करें, तो सबसे पहला नाम कुन्दन लाल सहगल का आता है, जो लंबे समय तक भारतीय सिनेमा के धूमकेतू बने रहे। बाद के दिनों में मुकेश,मोहम्मद रफी, मन्ना डे और किशोर कुमार अत्यंत चर्चित पार्श्व गायकों में से एक रहे। पार्श्व गायिकाओं में शमशाद बेगम,सुरैया,लता मंगेशकर और आशा भोंसले काफी चर्चित रहीं। भारतीय सिनेमा को अपनी गायकी से प्राणवायु देने वाले पार्श्व गायकों और गायिकाओं में कुछ और नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है, यथा-उदित नारायण,नितिन मुकेश,कुमार सानु,शान,अमित कुमार,शब्बीर कुमार,सुदेश भोंसले,हेम लता,कविता कृष्णमूर्ति,अलका याज्ञनिक,सुनिधि चौहान,सपना मुखर्जी,श्रेया घोषाल, अनुराधा पौडवाल आदि। हिन्दी फिल्मों पर दक्षिण का असर[संपादित करें]गिनीज़ बूक ऑफ वर्ल्ड रिकोर्ड्स में शामिल दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म स्टुडियो रामोजी फिल्म सिटी[13] साठ के दशक में यह सिलसिला जेमिनी स्टूडियो ने शुरू किया था। इतना ही नहीं, मैं आपको याद दिला दूं कि ‘फूल और कांटे’ तथा ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ जैसी हिन्दी फिल्मों का दक्षिण में रीमेक हो चुका है। दक्षिण व उत्तर भारत में जो कल्चर की भिन्नता है, इसकी वजह से दोनों जगह की कहानी व स्क्रिप्ट में थोड़ा सा फर्क होता है, नहीं तो दोनों जगह के तकनीशियन एक दूसरी जगह काम कर रहे हैं, कलाकार काम कर रहें हैं, हमेशा करते रहेंगे। दक्षिण की कई हीरोइनों ने हिन्दी फिल्मों में सफलता के झंडे गाड़े हैं, तो कुछ हिन्दी भाषी कलाकारों ने भी दक्षिण में पैर जमाए हैं। पिछले कुछ वर्षों से बॉलीवुड पर दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों ने अपना दबदबा बना रखा है। दक्षिण की क्षेत्रीय भाषा में बनी फिल्में हिन्दी में रीमेक की जा रही हैं और सफलता के झंडे भी गाड़ रही हैं। फिर चाहे वह ‘गजनी’ हो या ‘बॉडीगार्ड’ या ‘वांटेड’ या फिर ‘राउडी राठौर’। इतना ही नहीं, बॉलीवुड की इन फिल्मों के निर्देशक भी दक्षिण भारतीय फिल्मों के चर्चित निर्देशक ही रहे हैं।[14] भारतीय सिनेमा और ऑस्कर[संपादित करें]पहली बार भारत की ओर से सबसे पहले मेहबूब खान की फिल्म 'मदर इण्डिया' (1957) विदेशी भाषा की अंतिम पाँच फिल्मों में नामांकित हुई थी, किन्तु इसे ऑस्कर के अनुरूप नहीं समझा गया। दूसरी बार मीरा नायर की फिल्म ‘सलाम बॉम्बे’ ऑस्कर की दौड़ में शामिल हुई थी। स्ट्रीट चिल्ड्रन्स पर आधारित यह फिल्म किसी भी विदेशी फिल्म से कमजोर नहीं थी। इसके बावजूद जूरी ने इसे अवॉर्ड के योग्य नहीं समझा। तीसरी बार आमिर खान की ‘लगान’ को लेकर तो इतना जबरदस्त माहौल बना कि लगा कि हर हाल में इसे ऑस्कर मिलकर रहेगा, किन्तु यह भी सफल नहीं हुआ।[15] भारतीय सिनेमा को गाँधी' में कास्ट्यूम डिजाइनिंग के लिए भानु अथैया को ऑस्कर मिला है। इसके अलावा 1992 में विश्व सिनेमा में अभूतपूर्व योगदान के लिए सत्यजीत रे को मानद ऑस्कर अवॉर्ड से अलंकृत किया गया था, किन्तु वर्ष-2009 भारतीय फिल्म उद्योग के लिए एक खुशखबरी लेकर आया, जब ब्रिटिश भारतीय फिल्म स्लम डॉग मिलेनियर में "जय हो..." गीत के लिए गुलज़ार और संगीत के लिए ए आर रहमान को ऑस्कर पुरस्कार मिला। सुरों के बादशाह रहमान ने हिंदी के अलावा अन्य कई भाषाओं की फिल्मों में भी संगीत दिया है। टाइम्स पत्रिका ने उन्हें मोजार्ट ऑफ मद्रास की उपाधि दी। रहमान गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड से सम्मानित होने वाले पहले भारतीय हैं।[16] ए. आर. रहमान ऐसे पहले भारतीय हैं जिन्हें ब्रिटिश भारतीय फिल्म स्लम डॉग मिलेनियर में उनके संगीत के लिए तीन ऑस्कर नामांकन हासिल हुआ है।[17] इसी फिल्म के गीत जय हो। .... के लिए सर्वश्रेष्ठ साउंडट्रैक कंपाइलेशन और सर्वश्रेष्ठ फिल्मी गीत की श्रेणी में दो ग्रैमी पुरस्कार मिले।[18] गुलजार को वर्ष २००२ में साहित्य अकादमी पुरस्कार और वर्ष 2004 में भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से भी सम्मानित किया जा चुका है। वर्ष 2009 में डैनी बॉयल निर्देशित फिल्म स्लम डॉग मिलेनियर में उनके द्वारा लिखे गीत जय हो के लिये उन्हे सर्वश्रेष्ठ गीत का ऑस्कर पुरस्कार पुरस्कार मिल चुका है। इसी गीत के लिये उन्हे ग्रैमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। विश्व विख्यात[संपादित करें]आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में स्थापित रामोंजी फिल्म सिटी का नाम दुनिया का सबसे बड़ा जीवित स्टूडियों के रूप में गिनीज़ बूक ऑफ वर्ल्ड रिकोर्ड्स में दर्ज है। इस स्टुडियो में 47 साउंड स्टेज है और यह 1,666 एकड़ भूमि में स्थापित है। यह स्टुडियो 1996 में स्थापित किया गया था। आर्थिक परिदृश्य[संपादित करें]आजादी के बाद देश के नवनिर्माण में भारतीय फिल्मों ने खुल कर हाथ बंटाया। मौजूदा समय में फिल्में जरूर व्यावसायिक जरूरतों के हिसाब से बन रही हैं लेकिन इनकी सामाजिक प्रतिबध्दता लुप्त नहीं हुई। वास्तव में मनुष्य ने अपने जीवन और प्रकृति के यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए जितनी कलाओं का आविष्कार किया, उनमें सिनेमा ने सबसे अधिक प्रभावशाली माध्यम के रूप में खुद को स्थापित किया है।[19] भारतीय चलचित्र ने 20 वीं शती के आरम्भिक काल से ही विश्व के चलचित्र जगत पर गहरा प्रभाव छोड़ा है। भारतीय सिनेमा के अन्तर्गत भारत के विभिन्न भागों और विभिन्न भाषाओं में बनने वाली फिल्में आतीं हैं। भारतीय फिल्मों का अनुकरण पूरे दक्षिण एशिया तथा मध्य पूर्व में हुआ। भारत में सिनेमा की लोकप्रियता का इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यहाँ सभी भाषाओं में मिलाकर प्रतिवर्ष 1,000 तक फिल्में बनीं हैं। यह संख्या हॉलीवुड में बनने वाली फिल्मों से लगभग 40 प्रतिशत ज्यादा है। फिल्म उद्योग में प्रति वर्ष बीस हजार करोड़ का व्यवसाय होता है। लगभग 20 लाख लोगों का रोजगार इस उद्योग पर निर्भर है। हिंदी फिल्में कुल बनने वाली फिल्मों के एक तिहाई से अधिक नहीं होती लेकिन व्यवसाय में उनकी भागीदारी लगभग दो तिहाई है। वैसे तो भारतीय (विशेषत: हिंदी) फिल्में चौथे-पांचवे दशक से ही भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर भी देखी जाती थीं, खासतौर पर अफ्रीका के उन देशों में जहां भारतीय बड़ी संख्या में काम के सिलसिले में जाकर बस गए थे। लेकिन पिछले दो दशकों में भारतीय फिल्मों ने अमेरिका, यूरोप और एशिया के दूसरे क्षेत्रों में भी अपना बाजार का विस्तार किया है। यह भी गौरतलब है कि भारत में अब भी हॉलीवुड की फिल्मों की हिस्सेदारी चार प्रतिशत ही है जबकि यूरोप, जापान और दक्षिण अमरीकी देशों में यह हिस्सा कम-से-कम चालीस प्रतिशत है। भारत की कथा फिल्मों ने कहानी कहने की जो शैली विकसित की और जिसे प्राय: बाजारू, अरचनात्मक और अकलात्मक कहकर तिरस्कृत किया जाता रहा उसी ने भारतीय फिल्मों को हॉलीवुड के वर्चस्व में जाने से बचाये रखा। २०वीं शती में हॉलीवुड तथा चीनी फिल्म उद्योग के साथ भारतीय सिनेमा भी वैश्विक उद्योग बन गया था। सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्में[संपादित करें]बॉलीवुड की सबसे ज्यादा कमाने वाली फिल्मों में सबसे पहला नाम आता है 1943 में बनी किस्मत का जो तीन साल तक कोलकाता के एक ही सिनेमाहाल में चलने वाली 'किस्मत' कई मायनों में एक अनोखी फिल्म थी। बांबे टॉकीज़ की इस 'बोल्ड' फिल्म ने भारतीय सिनेमा के इतिहास में न सिर्फ पहली ब्लाकबस्टर फिल्म के रूप में अपना नाम दर्ज करा लिया बल्कि इसी फिल्म के जरिए अशोक कुमार के रूप में भारतीय सिनेमा को पहला 'एंटी हीरो' भी मिला। पहली बार भारतीय सिनेमा के पर्दे पर किसी अविवाहित लड़की को गर्भवती दिखाया गया। पहली बार किसी फिल्म में कोई किरदार डबल रोल में दिखा। यही नहीं ब्रिटिश राज के दौरान बड़ी चालाकी से फिल्माये गए इसके एक गीत "दूर हटो ऐ दुनिया वालों, हिन्दुस्तान हमारा है" ने लोगों के मन में आजादी की अलख जगा दी। फिल्म ने उस समय एक करोड़ रुपये का कारोबार किया, जो आज के समय में 63 करोड़ 20 लाख के बराबर है। इसके बाद 1949 में आई बरसात एक करोड़ 10 लाख का कारोबार करके 'किस्मत' का रिकार्ड तोड़ दिया। 1951 में आई आवारा एक करोड़ 25 लाख का कारोबार करके राज कपूर ने अपनी ही पिछली फिल्म का रिकार्ड तोड़ दिया। 1952 में आई आन ने डेढ़ करोड़ का मुनाफा कमाया। 1955 में आई श्री 420 के जरिए एक बार फिर आरके फिल्म्स ने अपनी कामयाबी की कहानी लिखी। फिल्म ने उस जमाने में दो करोड़ कमाए। 1960 में आई मुगले आज़म ने कामयाबी के ऐसा रिकार्ड बनाए जो अगले 15 सालों तक कोई नहीं तोड़ सका। यह उस दौर की सबसे महंगी फिल्म थी और इसने साढ़े पांच करोड़ कमाए। हालांकि फिल्म जब रिलीज हुई तो रंगीन फिल्मों का दौर शुरु हो गया था मगर इस फिल्म के गीत-संगीत, संवाद और दिलीप कुमार, पृथ्वीराज कपूर और मधुबाला के अविस्मरणीय अभिनय ने धूम मचा दी। 1974 में आई शोले एक ऐसी फिल्म जिसके रिलीज होने पर समीक्षकों ने उसे औसत दर्जे का बताया और पहले हफ्ते में उसे फ्लाप घोषित कर दिया गया। धीरे-धीरे इसकी लोकप्रियता ने रफ्तार पकड़ी और आज की तारीख में यह भारतीय सिनेमा की 'आल टाइम ग्रेट' फिल्म है, न सिर्फ बिजनेस के मामले में बल्कि कहानी कहने के दिलचस्प सलीके के कारण भी। जहां एक तरफ हिंसा के अतिरेक के कारण इस फिल्म की आलोचना हुई, न्यूयार्क टाइम्स जैसे अखबारों में इस फिल्म को हिन्दी फिल्म मेकिंग में क्रांतिकारी बदलाव और पटकथा लेखन में प्रोफेशनलिज्म की शुरुआत के तौर पर देखा गया। फिल्म ने 65 करोड़ का कारोबार किया। 1994 में आई हम आपके हैं कौन ने लगभग 70 करोड़ का कारोबार किया, ओवरसीज को मिला लें तो यह लगभग 100 करोड़ के आसपास बैठता है। सन 2001 से 2008 तक इंडस्ट्री में भी काफी बदलाव आए। फिल्में तकनीकी तौर पर ज्यादा बेहतर होती गईं। नतीजे के तौर पर हम देख सकते हैं कि इन सात-आठ सालों में तीन ऐसी फिल्में ब्लाकबस्टर रहीं, जिनमें काफी ऐक्शन था। सन 2001 में आई गदर भारत विभाजन के बैकड्राप पर बनी एक प्रेमकथा थी, जिसमें सनी के अभिनय और ऐक्शन को लोगों ने बहुत पसंद किया। फिल्म ने 75 करोड़ से ज्यादा कमाए इसी तरह से 2006 धूम 2 का कारोबार 80 पहुंच गया। फिल्म के निर्देशक संजय गढ़वी ने इस फिल्म एक-एक एक्शन सीक्वेंस की स्टोरी बोर्डिंग कर रखी थी। और 2008 में आई आमिर खान की गजिनी, जो क्रिस्टोफर नोलन ('डार्क नाइट राइजेज़' और 'इंसेप्शन' वाले) की फिल्म मेमेंटो पर आधारित तमिल फिल्म 'गजिनी' का रिमेक थी। जबरदस्त वायलेंस वाली इस फिल्म ने 114 करोड़ कमाए। 2009 में आई थ्री ईडियट्स ने शोले की तरह इस फिल्म ने भी ऐसा रिकार्ड बना दिया है, जिसे अगले कई सालों तक तोड़ना मुश्किल है। चेतन भगत के उपन्यास 'फाइव प्वाइंट समवन' पर आधारित यह फिल्म एक संवेदनशील और गंभीर मुद्दे को छूती थी। मगर निर्देशक राजकुमार हीरानी ने कहानी को इतने दिलचस्प ढंग से प्रस्तुत किया कि फिल्म के 'चतुर' और 'आल इज वेल' जैसे शब्दों को लोग आम जीवन में मुहावरों की तरह प्रयोग करने लगे। इस फिल्म ने 200 करोड़ रुपये कमाए और शायद 'थ्री ईडियट्स' अकेली ऐसी भारतीय फिल्म है जिसके रीमेक के राइट्स चाइना और हॉलीवुड में खरीदे जा चुके हैं।[20] अध्ययन, विश्लेषण और दस्तावेजीकरण[संपादित करें]
इन्हें भी देखें[संपादित करें]
सन्दर्भ[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
पहली सवाक फिल्म बनाने की प्रेरणा निर्देशक को कहाँ से मिली?पहला बोलता सिनेमा बनाने के लिए फिल्मकार अर्दशिर एम. ईरानी को प्रेरणा हॉलीवुड की एक बोलती फिल्म 'शो बोट' से मिली। पारसी रंगमंच के नाटक को आधार बनाकर 'आलम आरा' फिल्म की पटकथा लिखी गई। सवाक् शब्द वाक् के पहले 'स' लगाने से बना है।
सवाक फिल्मों की शुरुआत करने वाले पहले निर्माता निर्देशक कौन थे?आलमआरा (विश्व की रौशनी) 1931 में बनी हिन्दी भाषा और भारत की पहली सवाक (बोलती) फिल्म है। इस फिल्म के निर्देशक अर्देशिर ईरानी हैं। ईरानी ने सिनेमा में ध्वनि के महत्व को समझते हुये, आलमआरा को और कई समकालीन सवाक फिल्मों से पहले पूरा किया।
पहली सवाक फिल्म बनाने वाले फिल्मकार निम्नलिखित में से कौन थे?पहली बोलती फिल्म आलम आरा बनानेवाले फिल्मकार थे अर्देशिर एम. ईरानी । अर्देशिर ने 1929 में हॉलीवुड की एक बोलती फिल्म 'शो बोट' देखी और उनके मन में बोलती फिल्म बनाने की इच्छा जगी । पारसी रंगमंच के एक लोकप्रिय नाटक को आधार बनाकर उन्होंने अपनी फिल्म की पटकथा बनाई।
सवाक फिल्मों के लिए कैसे कलाकारों की आवश्यकता थी *?जब भारत में सवाक फिल्मों का दौर शुरू हुआ तो सवाक फिल्मों के नए दौर के लिए पढ़े-लिखे कलाकारों की आवश्यकता पड़ने लगी। सवाक फिल्मों से पहले मूक फिल्मों का दौर था, जिसमें बोलने की अधिक आवश्यकता नहीं पड़ती थी। सवाक फिल्मों में संवादों को बोलने की आवश्यकता पड़ने के कारण पढ़े-लिखे अभिनेता अभिनेत्रियों की आवश्यकता पड़ने लगी।
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