तुम और मैं कविता का सारांश - tum aur main kavita ka saaraansh

तुम तुंग - हिमालय - श्रृंग
और मैं चंचल-गति सुर-सरिता।
तुम विमल हृदय उच्छवास
और मैं कांत-कामिनी-कविता।
तुम प्रेम और मैं शान्ति,
तुम सुरा - पान - घन अन्धकार,
मैं हूँ मतवाली भ्रान्ति।
तुम दिनकर के खर किरण-जाल,
मैं सरसिज की मुस्कान,
तुम वर्षों के बीते वियोग,
मैं हूँ पिछली पहचान।
तुम योग और मैं सिद्धि,
तुम हो रागानुग के निश्छल तप,
मैं शुचिता सरल समृद्धि।
तुम मृदु मानस के भाव
और मैं मनोरंजिनी भाषा,
तुम नन्दन - वन - घन विटप
और मैं सुख -शीतल-तल शाखा।
तुम प्राण और मैं काया,
तुम शुद्ध सच्चिदानन्द ब्रह्म
मैं मनोमोहिनी माया।
तुम प्रेममयी के कण्ठहार,
मैं वेणी काल-नागिनी,
तुम कर-पल्लव-झंकृत सितार,
मैं व्याकुल विरह - रागिनी।
तुम पथ हो, मैं हूँ रेणु,
तुम हो राधा के मनमोहन,
मैं उन अधरों की वेणु।
तुम पथिक दूर के श्रान्त
और मैं बाट - जोहती आशा,
तुम भवसागर दुस्तर
पार जाने की मैं अभिलाषा।
तुम नभ हो, मैं नीलिमा,
तुम शरत - काल के बाल-इन्दु
मैं हूँ निशीथ - मधुरिमा।
तुम गन्ध-कुसुम-कोमल पराग,
मैं मृदुगति मलय-समीर,
तुम स्वेच्छाचारी मुक्त पुरुष,
मैं प्रकृति, प्रेम - जंजीर।
तुम शिव हो, मैं हूँ शक्ति,
तुम रघुकुल - गौरव रामचन्द्र,
मैं सीता अचला भक्ति।
तुम आशा के मधुमास,
और मैं पिक-कल-कूजन तान,
तुम मदन - पंच - शर - हस्त
और मैं हूँ मुग्धा अनजान !
तुम अम्बर, मैं दिग्वसना,
तुम चित्रकार, घन-पटल-श्याम,
मैं तड़ित् तूलिका रचना।
तुम रण-ताण्डव-उन्माद नृत्य
मैं मुखर मधुर नूपुर-ध्वनि,
तुम नाद - वेद ओंकार - सार,
मैं कवि - श्रृंगार शिरोमणि।
तुम यश हो, मैं हूँ प्राप्ति,
तुम कुन्द - इन्दु - अरविन्द-शुभ्र
तो मैं हूँ निर्मल व्याप्ति।

( कविता संग्रह, "परिमल" से )

तुम तुंग - हिमालय - श्रृंग
और मैं चंचल-गति सुर-सरिता।
तुम विमल हृदय उच्छ्वास
और मैं कांत-कामिनी-कविता।
तुम प्रेम और मैं शान्ति,
तुम सुरा - पान - घन अन्धकार,
मैं हूँ मतवाली भ्रान्ति।
तुम दिनकर के खर किरण-जाल,
मैं सरसिज की मुस्कान,
तुम वर्षों के बीते वियोग,
मैं हूँ पिछली पहचान।
तुम योग और मैं सिद्धि,
तुम हो रागानुग के निश्छल तप,
मैं शुचिता सरल समृद्धि।
तुम मृदु मानस के भाव
और मैं मनोरंजिनी भाषा,
तुम नन्दन - वन - घन विटप
और मैं सुख -शीतल-तल शाखा।
तुम प्राण और मैं काया,
तुम शुद्ध सच्चिदानन्द ब्रह्म
मैं मनोमोहिनी माया।
तुम प्रेममयी के कण्ठहार,
मैं वेणी काल-नागिनी,
तुम कर-पल्लव-झंकृत सितार,
मैं व्याकुल विरह - रागिनी।
तुम पथ हो, मैं हूँ रेणु,
तुम हो राधा के मनमोहन,
मैं उन अधरों की वेणु।
तुम पथिक दूर के श्रान्त
और मैं बाट - जोहती आशा,
तुम भवसागर दुस्तर
पार जाने की मैं अभिलाषा।
तुम नभ हो, मैं नीलिमा,
तुम शरत - काल के बाल-इन्दु
मैं हूँ निशीथ - मधुरिमा।
तुम गन्ध-कुसुम-कोमल पराग,
मैं मृदुगति मलय-समीर,
तुम स्वेच्छाचारी मुक्त पुरुष,
मैं प्रकृति, प्रेम - जंजीर।
तुम शिव हो, मैं हूँ शक्ति,
तुम रघुकुल - गौरव रामचन्द्र,
मैं सीता अचला भक्ति।
तुम आशा के मधुमास,
और मैं पिक-कल-कूजन तान,
तुम मदन - पंच - शर - हस्त
और मैं हूँ मुग्धा अनजान !
तुम अम्बर, मैं दिग्वसना,
तुम चित्रकार, घन-पटल-श्याम,
मैं तड़ित तूलिका रचना।
तुम रण-ताण्डव-उन्माद नृत्य
मैं मुखर मधुर नूपुर-ध्वनि,
तुम नाद - वेद ओंकार - सार,
मैं कवि - श्रृंगार शिरोमणि।
तुम यश हो, मैं हूँ प्राप्ति,
तुम कुन्द - इन्दु - अरविन्द-शुभ्र
तो मैं हूँ निर्मल व्याप्ति।

‘जागो फिर एक बार’ कविता के रचयिता सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी है। निराला जी की यह कविता ‘परिमल’ कविता संग्रह में संकलित है। जिसका प्रकाशन 1930 में हुआ था। इस कविता में कवि ने भारत के अतीत का गौरवमय चित्रण किया है। इसी संदर्भ में कवि भारतियों को जागते रहने का संदेश देते हुए कहते हैं

जागो फिर एक बार (कविता)

जागो फिर एक बार!
समर अमर कर प्राण,
गान गाये महासिन्धु-से सिन्धु-नद-तीरवासी!
सैन्धव तुरंगों पर चतुरंग चमू संग;
”सवा-सवा लाख पर एक को चढ़ाऊंगा
गोविन्द सिंह निज नाम जब कहाऊंगा”
किसने सुनाया यह
वीर-जन-मोहन अति दुर्जय संग्राम राग,
फाग का खेला रण बारहों महीने में?
शेरों की मांद में आया है आज स्यार
जागो फिर एक बार।

सतˎश्री अकाल, भाल-अनल धक-धक कर जला

भस्म हो गया था काल-

तीनों गुण- ताप त्रय,

अभय हो गए थे तुम

मृत्युंजय व्योमकेश के सामान,

अमृत-संतान तीव्र

भेदकर सप्तावरण-मरण-लोक शोकाहारी।

पहुँचे थे वहाँ जहाँ आसान है सहत्रसार

जागो फिर एक बार।  

सिंहनी की गोद से छीनता रे शिशु कौन?
मौन भी क्या रहती वह रहते प्राण?
रे अजान।
एक मेषमाता ही रहती है निर्मिमेष
दुर्बल वह-छिनती सन्तान जब
जन्म पर अपने अभिशप्त
तप्त आँसू बहाती है;
किन्तु क्या
योग्य जन जीता है
पश्चिम की उक्ति नहीं
गीता है गीता है
स्मरण करो बार-बार
जागो फिर एक बार

पशु नहीं, वीर तुम, समर-शुर, क्रूर नहीं,

काल चक्र में हो दबे आज तुम राज कुंवर!

समर-सरताज! पर क्या है,

सब माया है-सब माया है,

मुक्त हो सदा ही तुम,

बाधा-विहीन-बन्ध छन्द ज्यों,

डूबे आनन्द में सच्चितान्न्द रूप

महामंत्र ऋषियों का

अणुओं-परमाणुओं में फेंका हुआ

“तुम हो महानˎ,तुम सदा हो महानˎ

है नश्वर यह दीन भाव,

कायरता, कामपरता।

ब्रह्म हो तुम

पद-रज-भर भी नहीं पूरा यह विश्व भार-

जागो फिर एक बार। 

व्यख्या : जागो फिर एक बार समर में …….

आया है आज स्याह जागो फिर एक बार

कविता में कवि भारत के अतीत की गौरव-गाथा को स्मरण करते हुए देशवासियों को नई उत्साह और ओजस्विता को अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं। वे ऐतिहासिक परिवेश की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि भारत का अतीत बहुत ही गौरवशाली था। हमारे यहाँ के वीर युद्ध-क्षेत्र में प्राणों की बाजी लगाकर अमरत्व को प्राप्त हो जाते थे। ऐसे ही वीर योद्धाओं की गौरव गाथा का गुणगान करते हैं। यहाँ के समुंद्र के विशाल नदियों और उनके तटों पर रहने वाले लोगों अथार्त सिन्धु सभ्यता के लोगों ने भी अनेक बार गाया था। इसलिए जब-जब विदेशी आक्रान्ताओं ने भारत पर आक्रमण किया है। तब-तब यहाँ के वीरों ने चतुरंगी सेना के साथ उनका डटकर मुकाबला किया। इसी तरह जब विदेशियों ने आक्रमण किया तब गुरु गोबिंद सिंह जी ने यह घोषणा किया था कि- “सवा-सवा लाख पर एक को चढ़ाऊंगा।” अथार्त “जब तक सवा-सवा लाख शत्रुओं पर अपने एक वीर को समर्पित नहीं करूंगा तब-तक मैं अपने नाम को सार्थक नहीं मानूंगा।” कवि कहते है कि वीर लोग इस राग को सुनकर और भी उत्साह से झूमने लगते है। इस राग से वीर योद्धाओं में दो गुणा शक्ति बढ़ जाता था। अथार्त शत्रु उनपर विजय नहीं पा सकते थे। गुरु गोबिंद सिंह और उनके योद्धा बारह महीनों तक खून की होली खेलते थे। आज भी गुरु गोबिंद सिंह जैसे शेर है किन्तु आज उन शेरों के माँद में शियार घूस गया है इन्हें मारने के लिए। हे! भारतीय वीरों अब तुम जागों और सतर्कता के साथ उनसे सामना करों। उसका दमन करों।

व्यख्या : सतˎ श्री अकाल, भाल-अनल………..

जहाँ असान है सहस्त्रार, जागों फिर एक बार

कवि मातृभूमि के खातिर बलिदान होने वाले सिक्ख वीरों की प्रशंसा करते हुए कहते है कि मुगलों के विरुद्ध गुरु गोबिंदसिंह जी ने जब ‘सत्य श्रीअकाल’ का घोस करते हुए युद्ध क्षेत्र में उतरे तब उनके ललाट पर क्रोध रूपी आग की ज्वाला प्रज्वलित हो रही थी। उस धधकती हुई आग में काल भस्म हो गया था। तीनों गुण अथार्त सतोगुण, रजोगुण और तमोंगुण तथा दैविक, दैहिक और भौतिक ये तीनों ताप भी भस्म हो गए थे। हे! भारतवासियों जिसके परिणामस्वरुप तुम शत्रुओं से अभय हो गए थे। उस समय तुम मृत्यु को जितने वाले देव शिवाजी के सामान बन गए थे। तुम योग साधना के द्वारा सातों आवरणों को भेदकर तथा समस्त शोक से रहित होकर उस उच्चतम स्था के अधिकारी बन गए थे जहाँ पर सिद्ध योगी लोग सांसारिक कष्टों से मुक्त होकर, सहस्त्र-दल कमल पर आसन लगाकर परमानंद में लिन हो जाते हैं। इसलिए तुम फिर से एक बार जागकर उसी शौर्य का प्रदर्शन करो।

व्यख्या : सिंहनी की गोद से छीनता रे शिशु कौन?………

स्मरण करों बार-बार जागो फिर एक बार।

इन पंक्तियों में कवि ने वीरों को वसुंधरा की दुहाई देकर देशभक्ति का ओजस्वी स्वर व्यक्त किया है। कवि कहते है कि इस तरह की शक्ति और साहस किस्मे है जो शेरनी के गोद से उसके बच्चे को बलपूर्वक छीन सके क्या शेरनी जीते-जी अपने बच्चे को छीनने देगी और वह छुओ बैठी रहेगी? अथार्त सिंहनी ऐसा तब तक नहीं होने देगी जबतक उसके प्राण रहेंगे कवं भेद ही ऐसी होती है जो अपने बच्चे को गोद से छीने जाने के बाद चुप रहती है वह दुर्बल  होने के कारण अपने बच्चे के छीने जाने के बाद भी टकटकी लगाकर देखती रहती है वह अपने संतान के छीने जाने के बाद जीवन भर दुखी होकर आँसू बहाती रहती है अपने व्यथित जीवन पर रोटी रहती है। क्या शक्तिशाली प्राणी इस तरह के अत्याचार को सहकर जीवित रह सकता है? अथार्त नहीं वह अत्याचार सहने से की अपेक्षा मर जाना अच्छा समझेगा। आते तो यही है कि शक्तिशाली व्यक्ति ही जीवित रहता है। यह उक्ति पाश्चात चिंतन की दें नहीं है, यह तो गीता का उपदेश है अतः गीताके कर्मयोग के उपदेश में बार-बार स्मरण करो जागो और जागकर तुम अपने शक्तिशाली स्वरुप को पहचानों।

व्यख्या : पशु नहीं, वीर तुम, समर-शूर, क्रूर नहीं ………

पड़ रज भर भी नहीं पूरा यह विश्व-भार।

जागो फिर एक बार। 

इन पक्तियों में कवी ने भारतवासियों को उनकी शक्ति का स्मरण कराते हुए कहते है कि तुम पशु नहीं हो तुम युद्ध में पराक्रम दिखाने वाले वीर योद्धा हो, तुम क्रूर आचरण करने वाले नहीं हो तुम तो न्याय के लिए वीरता का प्रदर्शन करने वाले हो तुम कालरुपी चक्र में दबे हुए राजकुमार हो तथा युद्धक्षेत्र के श्रेष्ठ योद्धा हो परन्तु तुम इस तरह क्यों हो? लोकाचार तो माया के बंधन है और तुम हमेशा ही इस सबसे मुक्त रहे हो। जिस प्रकार बाधाओं से अथार्त यति, विराम, लघु और गुरु आदि नियमों के बंधन से मुक्त रहने वाले अथार्त मुक्त छन्द कविता भावपूर्ण लगती है वैसे ही तुम सदा संसारिकता से मुक्त रहकर सच्चितान्न्द अथार्त परंब्रहम के निमग्न रहते हो। इस देश के कण-कण में अणु-परमाणुओं में ऋषियों के महामंत्र व्याप्त हैं जो मानव के सुखद एवं मुक्ति प्रदान करने वाले हैं इसलिए हे! भारतवासियों तुम सदा से ही महान रहे हो तुम्हारे मन में जो दीनता, कायरता की भावना तथा काम वासनाओं की आसक्ति के भाव उत्पन्न होते रहें है वे सभी नष्ट होने वाले है। अतः तुम ब्रह्मस्वरूप हो यह समस्त विश्व तुम्हारे चरणों की धूल से भी तुच्छ है। आशय यह है कि तुम परमात्मा की सृष्टि के सर्वाधिक सबसे शक्तिशाली प्राणी हो अतएव तुम अपनी शक्ति को पहचानों और फिर से जाग जाओ।

‘जागो फिर एक बार’ कविता एक संबोधन गीत है। कवि अपने इस गीत के द्वारा भारतीय नव युवकों को संबोधित करके उनके पराक्रम को जगाने का प्रयास कर रहे हैं।