Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार Textbook Exercise Questions and Answers. Show Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबारHBSE 12th Class History राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार Textbook Questions and Answers उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में) प्रश्न 1. इसी स्थान पर लिखी गई पांडुलिपियों को संग्रह करके रखा भी जाता था। किताबखाना काफी बड़ा तथा सुनियोजित स्थल था। वहाँ मात्र लेखक ही नहीं होते थे, बल्कि विविध प्रकार के कार्य करने वाले व्यक्ति होते थे। ये सभी किताबखाना के नेतृत्व में कार्य करते थे। पांडुलिपि तैयार करने की प्रक्रिया में सबसे पहले कागज व उसके पन्ने बनाने वाले कारीगर कार्य करते थे। इसी तरह स्याही बनाने वालों का वर्ग था। कागज व स्याही के तैयार होने पर लेखक लिखता था। फिर उन पृष्ठों पर चित्रकार लेखक की सलाह के अनुरूप चित्र बनाता था। लेखन व चित्र कार्य होने के बाद जिल्दसाज जिल्द चढ़ाता था। इस तरह पांडुलिपि एक. पूरी प्रक्रिया के तहत तैयार होती थी। प्रश्न 2. 1. राज सिंहासन-सम्राट का केंद्र बिंदु राज सिंहासन था जिसने संप्रभु के कार्यों को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया था। इसे ऐसे आधार के रूप में स्वीकार किया जाता था जिस पर पृथ्वी टिकी हुई है। 2. अधिकारियों के बैठने के स्थान प्रत्येक अधिकारी (दरबारी) की हैसियत का पता उसके बैठने के स्थान से लगता था। जो दरबारी जितना सम्राट के निकट बैठता था उसे उतना ही सम्राट् के निकट समझा जाता था। 3. सम्मान प्रकट करने का तरीका-शासक को किये गये अभिवादन के तरीके से भी अभिवादनकर्ता की हैसियत का पता चलता था। 4. दिन की शुरुआत-बादशाह अपने दिन की शुरुआत सूर्योदय के समय कुछ धार्मिक प्रार्थनाओं से करता था। 5. सार्वजनिक सभा (दीवान-ए-आम)-बादशाह अपनी सरकार के प्राथमिक कार्यों को पूरा करने के लिए दीवान-ए-आम में आता था। वहाँ राज्य के अधिकारी अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते थे। 6. खास उत्सवों के अवसर-अनके धार्मिक त्योहार; जैसे होली, ईद, शब-ए-बारात आदि त्योहारों का आयोजन खूब ठाट-बाट से किया जाता था। प्रश्न 3. वह झरोखे पर बैठती थी तथा सिक्कों पर उसका नाम आता था। ‘नूरजहाँ गुट’ सही अर्थों में जहाँगीर के शासन में सारे फैसले करता था। जहाँगीर ने तो यहाँ तक कह दिया था कि मैंने बादशाहत नूरजहाँ को दे दी है, मुझे कुछ प्याले शराब तथा आधा सेर माँस के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिए। शाहजहाँ के शासन काल में उसकी पुत्री जहाँआरा तथा रोशनआरा लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक फैसलों में शामिल होती थीं। वे उच्च पदों पर आसीन मनसबदारों की भाँति वार्षिक वेतन लेती थीं। आर्थिक तौर पर सम्पन्न होने पर हरम की प्रमख महिलाओं ने इमारतों व बागों का निर्माण कार्य कराया। नरजहाँ ने आगरा में एतमादुद्दौला (अपने पिता) के मकबरे का निर्माण करवाया। शालीमार व निशात बागों को बनवाने में भी उसकी मुख्य भूमिका थी। इसी प्रकार दिल्ली में शाहजहाँनाबाद की कई कलात्मक योजनाओं में जहाँआरा की भूमिका थी। उसने शाहजहाँनाबाद में आँगन, बाग व चाँदनी चौक की रूप रेखा तैयार की। शाही परिवार की महिलाएँ प्रायः शिक्षित भी होती थीं। इसलिए साहित्य लेखन में भी अपनी भूमिका अदा करती थीं। गुलबदन बेगम ने हुमायूँनामा नामक पुस्तक लिखी। अतः स्पष्ट है कि शाही परिवार की महिलाएँ हरम व राजनीतिक मामलों में सक्रिय रहती थीं। प्रश्न 4. मुग़ल अविजित क्षेत्रों पर भी राजनीतिक नियंत्रण बनाने के लिए कदम उठाते रहते थे तथा एक बार विजित करने के उपरांत उस पर हमेशा के लिए अधिकार के लिए कार्य करते थे। इससे स्पष्ट होता है कि मुगल अपने साम्राज्य की सीमा विस्तार के लिए हमेशा प्रयासरत रहते थे, उनकी इस नीति के आधार पर ही उनके पड़ोसी देशों के साथ संबंधों का निर्धारण होता था। इन रिश्तों में कूटनीतिक चाल व संघर्ष साथ-साथ चलता था। इस कड़ी में पड़ोसी राज्यों के साथ क्षेत्रीय हितों के तनाव व राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता चलती रहती थी। इसके साथ-साथ दूतों का आदान-प्रदान भी होता रहता था। उनकी विभिन्न देशों तथा धर्मों के प्रति नीति ने उनके प्रभाव को स्थापित किया। इनके निम्नलिखित मुख्य पक्ष थे 1. ईरानियों एवं तूरानियों से संबंध-मुग़ल बादशाहों के ईरान व मध्य एशिया के पड़ोसी देशों से राजनीतिक रिश्ते हिंदूकुश पर्वतों द्वारा निर्धारित सीमा पर निर्भर करते थे। 2. कंधार का किला-नगर-यह किला मुगलों तथा सफावियों के बीच झगड़े का मुख्य कारण था। आरंभ में यह किला नगर हुमायूँ के अधिकार में था। सन् 1595 में अकबर ने इस पर दोबारा कब्जा कर लिया। जहाँगीर ने शाह अब्बास के दरबार में कंधार को मुग़ल अधिकार स्वीकारने को कहा परंतु सफलता नहीं मिली। क्योंकि शाह ने 1621 ई० में इस पर कब्जा कर लिया। शाहजहाँ ने 1638 ई० में इसे फिर जीत लिया। 1649 ई० में सफावी शासकों ने इस पर फिर अधिकार कर लिया। अतः यह मुगलों व ईरान के बीच झगड़े की जड़ रहा। 3. ऑटोमन साम्राज्य : तीर्थयात्रा और व्यापार-ऑटोमन राज्य के साथ अपने संबंधों में मुगल बादशाह धर्म और व्यापार को मिलाने की कोशिश करते थे। वे बिक्री से अर्जित आय को धर्मस्थलों व फकीरों में दान में बाँट देते थे। औरंगजेब को अरब भेजे जाने वाले धन के दुरुपयोग का पता चला तो उसने भारत में उसके वितरण का समर्थन किया। 4. ईसाई धर्म-मुग़ल दरबार के यूरोपीय विवरणों में जेसुइट वृत्तांत सबसे पुराना है। पन्द्रहवीं शताब्दी के अंत में भारत तक सीधे समुद्र की खोज का अनुसरण करते हुए पुर्तगाली व्यापारियों ने तटीय नगरों में व्यापारिक केंद्रों का जाल स्थापित किया। इस प्रकार ईसाई धर्म भारत में आया। इन बातों से स्पष्ट है कि मुगल अपनी स्थिति के प्रति सचेत थे। इसलिए बाह्य शक्तियों पर अपना दबाव बनाने के लिए कार्य करते रहते थे। प्रश्न 5. प्रांतों का आकार एक-जैसा नहीं था लेकिन इनके नाम भौगोलिकता के अनुरूप थे। सूबे का मुखिया सबेदार होता था जिसकी नियुक्ति शासक द्वारा की जाती थी। वह उसी के प्रति जिम्मेदार होता था। सूबेदार की सहायता के लिए दीवान, बख्शी तथा सद्र के नाम से सहायक वजीर (मंत्री) होते थे। वे सूबेदार के सहयोगी अवश्य थे लेकिन इनकी नियुक्ति भी प्रत्यक्षतः शासक द्वारा की जाती थी। इस तरह सूबेदार स्वतंत्र होते हुए भी नियंत्रण में था। अकबर के काल में सूबों की संख्या 15, जहाँगीर के काल में 17, शाहजहाँ के काल में 22 तथा औरंगजेब के काल में 21 थी। जैसे संपूर्ण राज्य सूबों में विभाजित था, उसी तरह सूबे सरकारों में विभाजित थे। सरकार में सबसे बड़ा अधिकारी फौजदार था। किसी सूबे में सरकारों की संख्या कितनी होगी यह निश्चित नहीं था। सरकार को आगे परगनों में विभाजित किया गया था। परगना का स्तर वर्तमान जिले का रहा होगा। परगना स्तर पर कानूनगो, चौधरी व काजी नामक अधिकारी थे। कानूनगो, राजस्व का रिकॉर्ड रखने वाला अधिकारी था जबकि चौधरी का मुख्य कार्य राजस्व संग्रह करना था। ये दोनों अधिकारी वंशानुगत थे। प्रशासन में सबसे छोटी इकाई गाँव थी। इसकी व्यवस्था ग्राम पंचायत देखती थी। मुग़लों का प्रांतीय शासन केंद्र से अलग-थलग नहीं था बल्कि तंत्र का एक हिस्सा था। विभिन्न प्रांतों व उसकी इकाइयों के अधिकारियों का तबादला प्रति वर्ष या दो वर्ष में किया जाता था। मगलों के प्रशासन की पकड गाँव तक थी। मगल अपने अधिकारियों को स देते थे। इस तरह प्रान्त के अनियन्त्रित होने की गुंजाइश नहीं थी। निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में) प्रश्न 6. 1. रचना के उद्देश्य-मुगलकाल में रचे गए इतिवृत्त बहुत सोची-समझी नीति का उद्देश्य थे। विभिन्न इतिहासकारों व विद्वानों ने इस बारे में अपने-अपने मतों की अभिव्यक्ति की है जिनमें से ये पक्ष उभरकर सामने आते हैं
2. इतिवृत्तों की विषय-वस्तु-मुग़ल शासकों ने इतिवृत्त लेखन का कार्य दरबारियों को दिया। अधिकतर इतिवृत्त शासक की देख-रेख में लिखे जाते थे या उसे पढ़कर सुनाए जाते थे। कुछ शासकों ने आत्मकथा लेखन का कार्य स्वयं किया। इस माध्यम से ये शासक स्वयं को प्रबुद्ध वर्ग में स्थापित करना चाहते थे, साथ ही अन्य लेखकों का मार्गदर्शन भी करना चाहते थे। इन सभी पक्षों से यह स्पष्ट होता है कि इन इतिवृत्तों के केन्द्र में स्वयं शासक व उसका परिवार रहता था। इस कारण इतिवृत्तों की विषय-वस्तु शासक, शाही परिवार, दरबार, अभिजात वर्ग, युद्ध व प्रशासनिक संस्थाएँ रहीं। इन इतिवृत्तों की विषय-वस्तु शासकों के नाम अथवा उनके द्वारा धारण उपाधियों की पुष्टि भी करना था। 3. भाषा-मुग़ल दरबारी इतिहास फारसी भाषा में लिखे गये थे। क्योंकि मुगलों की मातृभाषा तुर्की थी। इनके पहले शासक बाबर ने कविताएँ और संस्मरण तुर्की में लिखे थे। 4. अनुवाद-बाबर के संस्मरणों का बाबरनामा के नाम से तुर्की से फारसी भाषा में अनुवाद किया गया था। महाभारत और रामायण का अनुवाद भी फारसी भाषा में हुआ। 5. शिल्पकारों का योगदान-पांडुलिपियों की रचना में विविध प्रकार के कार्य करने वाले लोग शामिल होते थे; जैसे चित्रकार, जिल्दसाज तथा आवरणों को अलंकृत करने वाले लोग। 6. मुगल काल के प्रमुख इतिवृत्त-मुगलकाल के प्रमुख इतिवृत्त यह है बाबरनामा या तुक-ए-बाबरी लेखक बाबर, हुमायूँनामा लेखिका हुमायूँ की बहन गुलबदन बेगम, अकबरनामा-लेखक अबुल फज्ल, तुक-ए-जहाँगीरी लेखक जहाँगीर, शाहजहाँनामा लेखक मामुरी, बादशाहनामा (शाहजहाँ पर आधारित) लेखक अब्दुल हमीद लाहौरी, आलमगीरनामा लेखक मुहम्मद काजिम । इन इतिवृत्तों के नामों से स्पष्ट होता है कि ये इतिवृत्त शासक-विशेष के साथ जुड़े हैं तथा या तो स्वयं का वृत्तांत हैं या दरबारी द्वारा अपने संरक्षण का विवरण है। प्रश्न 7. मुझे लगता है कि कलाकार के पास खुदा को समझने का बेजोड़ तरीका है। चूंकि कहीं-न-कहीं उसे यह महसूस होता है कि खुदा की रचना को वह जीवन नहीं दे सकता।” इस्लाम सामान्य रूप से प्राकृतिक चित्रों की चित्रकारी का समर्थन नहीं करता। ऐसी धारणा है कि चित्रकारी एक सृजन है जबकि सृजन का अधिकार केवल खुदा के पास है। इसलिए कुरान और हदीस में मानव रूपों के चित्रण पर प्रतिबंध का वर्णन है। उसी वर्णन के अनुरूप उलेमा (धर्मशास्त्री) चित्रकारी को गैर-इस्लामी घोषित करते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि कलाकार अपने इस कार्य से खुदा की रचना करने की शक्ति को अपने हाथ में लेने का प्रयास करता है। हमें मुगलकाल में शासकों तथा कट्टरपंथी धर्मशास्त्रियों के बीच निरंतर तनाव दिखाई देता है। उलेमा शासक की गतिविधियों को धर्म-विरोधी बताते हैं जबकि शासक इसे मानव भावों की अभिव्यक्ति तथा खुदा को समझने का मार्ग बताते हैं। अबुल फज़्ल के वर्णन के आधार पर शासकों ने धर्म की कट्टरता को महत्त्व न देते हुए चित्रकला को महत्त्व दिया। इससे चित्रकला की व्याख्या ही बदल गई। जैसा कि स्पष्ट किया गया है कि इस्लाम प्राकृतिक चीजों व रूपों के चित्रण की आज्ञा नहीं देता, इसके बाद भी मुगलकाल में चित्रकारी खूब फली-फूली। समय के साथ इस्लाम में विश्वास करने वाले विद्वानों व धर्मशास्त्रियों ने चित्रकारी के बारे में नई व्याख्याएँ की, जिसके कारण मोटे तौर पर धारणा में बदलाव आया। मात्र कुछ रूढ़िवादी चिन्तक ऐसे थे जो बाद तक भी विरोध करते रहे। नए व्याख्याकारों ने राज्य की राजनीतिक आवश्यकता के अनुरूप इसे उचित बताया। इस व्याख्या के अनुसार स्पष्ट किया गया कि इससे शासक व जनता के बीच की दूरी में कमी आती है तथा राजा व प्रजा एक-दूसरे के भाव समझ पाते हैं। शासक केवल किसी एक धर्म विशेष का नहीं है। ईरान के मुस्लिम शासकों (सफावी) ने भी चित्रकारी को संरक्षण दिया। इसके लिए कार्यशालाएँ आयोजित कीं। इन सबका प्रभाव भी मुगल शासकों पर पड़ा। अतः चित्रकारी संबंधी नई व्याख्या प्रस्तुत की जिसमें चित्रकारी को धर्म विरोधी घोषित न कर, सांस्कृतिक विकास का पहलू घोषित किया। नई व्याख्याओं के चलते हुए मुगल दरबार चित्रकारों के लिए संरक्षण क्षेत्र बन गया। कुछ कलाकार; जैसे मीर सैय्यद अली, अब्दुस समद व विहजाद ईरान से भारत आए। अकबर के समय केसू, जसवन्त, बसावन जैसे हिन्दू कलाकार भी दरबार में पहुंचे। अकबर सप्ताह में एक दिन चित्रों की प्रदर्शनी का आयोजन करवाता था। उसी परंपरा को जहाँगीर ने आगे बढ़ाया। उसका काल चित्रकला की दृष्टि से स्वर्ण काल माना जाता था। मुगल शासकों ने पांडुलिपि चित्रण की ओर विशेष ध्यान दिया। अकबर के काल में चित्रित होने वाली मुख्य पांडुलिपियों में बाबरनामा, हुमायूँनामा, अकबरनामा, हम्जनामा, रज्मनामा (महाभारत का अनुवाद), तारीख-ए-अल्फी व तैमूरनामा थीं। बाद के शासकों ने अपने इतिवृत्तों विशेषकर तुक-ए-जहाँगीरी व शाहजहाँनामा को चित्रित करवाया। इसके साथ ही उन्होंने पहले लिखे गए इतिवृत्तों की और पांडुलिपियों को तैयार करवाकर उन्हें चित्रित करवाया। ये पांडुलिपियाँ सैकड़ों की संख्या में किताबखाना में रखी गई थीं। मुग़ल शासकों द्वारा जिस तरह से पांडुलिपियों को चित्रित करवाया गया, उसकी नकल यूरोप के शासकों ने भी की। इस काल में चित्रित पुस्तकों को उपहार में देना एक प्रकार की परंपरा बन गई थी। प्रश्न 8. अकबर के शासन काल के प्रारंभिक दौर में इस अभिजात वर्ग में तुरानी (मध्य-एशिया) तथा ईरानी मुख्य थे। 1560 ई० के। बाद अभिजात वर्ग में बदलाव आया। इसमें दो वर्ग और जुड़े। ये राजपूत तथा भारतीय मुसलमान थे। राजपूत परिवारों से सर्वप्रथम आमेर (अंबर) का राजा भारमल (बिहारीमल) था जिसने वैवाहिक राजनीतिक संबंधों द्वारा अकबर के अभिजात वर्ग में प्रवेश किया। जहाँगीर के काल में अभिजात वर्ग की मौलिक संरचना वही बनी रही, परंतु अधिक ऊँचे पदों पर ईरानी पहुँचने में सफल रहे। इसका मुख्य कारण नूरजहाँ थी क्योंकि वह स्वयं ईरान से आई थी। उसके पिता ग्यास बेग, भाई आसफ खाँ इत्यादि बहुत ऊँचे पदों तक पहुँचे। उनके साथ संबंधों का फायदा उठाकर अन्य ईरानी भी आगे बढ़ गए। शाहजहाँ के काल में अभिजात वर्ग सन्तुलित था। उसमें भारतीय व विदेशी सभी शामिल थे। औरंगजेब के समय भी स्थिति लगभग इसी तरह की रही। सामान्यतः यह कहा जाता है कि उसने यह पद केवल सुन्नीओं के लिए रखे थे। परंतु आंकड़े बताते हैं कि उसके दरबार में राजपूत व मराठे काफी अच्छी संख्या में थे। सिंहासन ग्रहण करने के समय तथा मृत्यु तक संख्या में कमी नहीं आई बल्कि आंकड़े वृद्धि दर्ज कराते थे। मुग़ल साम्राज्य सैन्य प्रधान राज्य था। इसलिए अभिजात वर्ग की सेना संबंधित गतिविधियों को बहुत महत्त्व दिया जाता था। अभिजात वर्ग के सदस्य सैन्य अभियानों का नेतृत्व भी करते थे साथ ही केन्द्र व प्रान्त स्तर पर अधिकारी के रूप में कार्य भी करते थे। वे अपनी टुकड़ी के सैनिक प्रमुख होते थे। उन्हें अपने सैनिकों व घुड़सवारों को भर्ती करना होता था। इन सैनिक व घुड़सवारों के लिए हथियार, रसद व प्रशिक्षण देने की जिम्मेदारी मनसबदार की होती थी। उसके घोड़ों की पीठ के दोनों ओर मुगलों का शाही निशान बना होता था। उसके मुखिया तथा घोड़े का नम्बर भी दर्ज होता था। शासक विभिन्न अवसरों पर नियमित रूप से इन अधिकारियों की सेना का निरीक्षण करता था। समय के साथ बदलाव के चलते हुए शासक व अभिजात वर्ग के बीच रिश्ते मुरीद व मुर्शीद जैसे बन गए थे। कुछ के साथ रिश्ते बहुत अधिक अपनेपन के भी थे। मुगल दरबार में नौकरी पाना बेहद कठिन कार्य था। दूसरी ओर अभिजात व सामान्य वर्ग के लोग शाही सेवा को शक्ति, धन व उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा का एक साधन मानते थे। नौकरी में आने वाले व्यक्ति से आवेदन लिया जाता था, फिर मीरबख्शी की जाँच-पड़ताल के बाद उसे दरबार में प्रस्तुत होना होता था। मीरबख्शी के साथ-साथ दीवान-ए-आला (वित्तमंत्री) तथा सद्र-उस-सद्धर (जन कल्याण, न्याय व अनुदान का मंत्री) भी उस व्यक्ति को कागज तैयार करवाकर अपने-अपने कार्यालयों की मोहर लगाते थे। फिर वे शाही मोहर के लिए मीरबख्शी के द्वारा ले जाए जाते थे। ये तीनों मंत्री दरबार में दाएँ खड़े होते थे, बाईं ओर नियुक्ति व पदोन्नति पाने वाला व्यक्ति खड़ा होता था। शासक उससे कुछ औपचारिक बात करके उसे दरबार के प्रति वफादार रहने की बात कहता था तथा संकेत करता था कि वह किस स्थान पर खड़ा हो। इस तरह उस व्यक्ति की नियुक्ति तथा पदोन्नति मानी जाती थी। शासक द्वारा नौकरशाहों पर नियंत्रण के लिए कुछ नियम बनाए गए थे। उनके अनुसार शासक सामान्य रूप से इनके प्रति कठोर व्यवहार रखता था। नियमित निरीक्षण में इन्हें किसी तरह की छूट नहीं थी। थोड़ा-सा भी शक होने या अनुशासन की उल्लंघना करने पर इन्हें दण्ड दिया जाता था। इनकी कभी भी कहीं भी बदली की जा सकती थी। कोई भी अधिकारी किसी भी कार्य को करने की मनाही नहीं कर सकता था। इन सबके अतिरिक्त यह कि इनका पद पैतृक नहीं होता था अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को नए सिरे से जीवन की शुरुआत करनी होती थी। किसी भी अभिजात वर्ग के व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति, उसकी सन्तान को नहीं दी जाती थी बल्कि यह स्वतः ही बादशाह या दरबार की सम्पत्ति बन जाती थी। प्रश्न 9. 1. मुगल राज्य : एक दैवीय राज्य-मुगलकाल के सभी इतिवृत्त इस बात की जानकारी देते हैं कि मुगल शासक राजत्व के दैवीय सिद्धान्त में विश्वास करते थे। उनका विश्वास था कि उन्हें शासन करने की शक्ति स्वयं ईश्वर ने प्रदान की है। ईश्वर की इस तरह की कृपा सभी व्यक्तियों पर नहीं होती, बल्कि व्यक्ति-विशेष पर ही होती है। 2. सुलह-ए-कुल : एकीकरण का एक स्रोत-मुग़ल इतिवृत्त साम्राज्य को हिन्दुओं, जैनों, ज़रतुश्तियों और मुसलमानों जैसे अनेक भिन्न-भिन्न नृजातीय और धार्मिक समुदायों को समाविष्ट किए हुए साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं। सभी तरह की शांति और स्थायित्व के स्रोत रूप में बादशाह सभी धार्मिक और नृजातीय समूहों से ऊपर होता था, इनके बीच मध्यस्थता करता था तथा यह सुनिश्चित करता था कि न्याय और शांति बनी रहे। अबुल फज्ल सुलह-ए-कुल (पूर्ण शांति) के आदर्श को प्रबुद्ध शासन की आधारशिला बताता है। सुलह-ए-कुल में यूँ तो सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी किंतु उसकी एक शर्त थी कि वे राज्य-सत्ता को क्षति नहीं पहुँचाएँगे अथवा आपस में नहीं लड़ेंगे। मुगल शासक विशेषकर अकबर ने धर्म व राजनीति दोनों के संबंधों को समझने का प्रयास किया। उसने इनकी सीमा व महत्त्व को समझा। इस समझ के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि पूरी तरह धर्म का त्याग संभव नहीं है लेकिन धर्म की कट्टरता को त्यागकर अवश्य चला जाए। उसने धर्म को राजनीति से भी थोड़ा दूर करने का प्रयास किया। इस कड़ी में उसने 1563 ई० में तीर्थ यात्रा कर तथा 1564 ई० में जजिया कर को समाप्त कर, यह सन्देश दिया कि गैर-इस्लामी प्रजा से कोई भेद-भाव नहीं किया जाएगा। उसने युद्ध में पराजित सैनिकों को दास बनाने पर रोक लगाई तथा जबरदस्ती धर्म-परिवर्तन को गैर-कानूनी घोषित किया। अकबर ने अपने साम्राज्य में गौ-वध को देशद्रोह घोषित करते हुए उस पर रोक लगा दी। 3. सामाजिक अनुबंध पर आधारित न्यायपूर्ण प्रभुसत्ता-मुग़ल शासकों ने न्याय को विशेष महत्त्व दिया। वे यह मानते थे कि न्याय व्यवस्था ही उनसे सही अर्थों में प्रजा के साथ संबंधों की व्याख्या है। अबुल फज्ल ने अकबर के प्रभुसत्ता के सिद्धांत को स्पष्ट किया है। उसके अनुसार बादशाह अपनी प्रजा के चार तत्त्वों-जीवन (जन), धन (माल), सम्मान और विश्वास (दीन) की रक्षा करता है। इसके बदले में जनता से आशा करता है कि वह राजाज्ञा का पालन करे तथा अपनी आमदनी (संसाधनों) में से कुछ हिस्सा राज्य को दे। अबुल फज़्ल स्पष्ट करता है कि इस तरह का चिन्तन किसी न्यायपूर्ण संप्रभु का ही हो सकता है जिसे दैवीय मार्गदर्शन प्राप्त हो। मुग़ल शासकों ने सामाजिक अनुबंध पर आधारित न्याय को अपनाया तथा जनता में प्रचारित भी किया। इसके लिए विभिन्न प्रकार के प्रतीकों को प्रयोग में लाया गया। इसमें सर्वाधिक कार्य चित्रकारों के माध्यम से करवाया गया। मुगल शासकों ने दरबार तथा सिंहासन के आस-पास विभिन्न स्थानों पर जो चित्रकारी करवाई उसमें वो शेर तथा बकरी या शेर तथा गाय साथ-साथ बैठे दिखाई देते हैं। उनकी चित्रकारी जनता को यह सन्देश देने का साधन था कि इस राज्य में सबल या दुर्बल दोनों परस्पर मिलकर रह सकते हैं। इनमें भी कुछ चित्रों में शासक को शेर पर सवार दिखाया गया है जो इस बात का संदेश है कि उसके साम्राज्य में उनसे शक्तिशाली कोई नहीं था। मानचित्र कार्य प्रश्न 10. परियोजना कार्य प्रश्न 11.
इस बारे में विस्तृत जानकारी आप जे०बी०डी० पुस्तक में मुख्य इतिवृत्त के रूप में वर्णित अकबरनामा के संदर्भ में जानकारी से ले सकते हैं। मौलिक रूप में इस पुस्तक में 150 से अधिक चित्र दिए गए हैं। इन चित्रों को पुस्तक की मूल प्रति, इंटरनेट तथा राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में रखी चित्रकारियों में देख सकते हैं। इन चित्रों में दरबार से संबंधित किन्हीं भी दो चित्रों को देख सकते हैं, इन चित्रों में आप पाएँगे कि शासक के बैठने की जगह अन्यों से ऊँची है तथा अन्य दरबारी भी एक निश्चित क्रम में बैठे हैं। इस तरह शासक के बैठने के स्थान पर आप प्रायः शेर तथा बकरी या शेर तथा गाय के चित्र पाएंगे। इसका अर्थ स्पष्ट है कि शासक शक्तिशाली-से-शक्तिशाली व सामान्य-से-सामान्य दोनों का रक्षक है। शासक अपनी परंपरा व बादशाह की शक्ति को इन संकेतों से प्रदर्शित कर रहा है। प्रश्न 12. इस काल में कार्य की विशेषज्ञता को महत्त्व नहीं दिया जाता था बल्कि सेवा में आया हुआ व्यक्ति सैनिक, असैनिक, दरबार संबंधी व राजस्व संबंधी सभी कार्य करने के लिए बाध्य होता था। उदाहरण के लिए अकबरनामा का लेखक अबुल फज्ल दरबारी लेखक था परंतु उसने 15 से अधिक सैन्य अभियानों में सेना का नेतृत्व किया। वह शासक का सलाहकार भी था। शासक ने उसे कई बार सेना निरीक्षण का कार्य भी दिया। इसकी तुलना जब हम भारतीय शासन-व्यवस्था से करते हैं तो स्पष्ट होता है कि यह व्यवस्था एक संविधान के तहत चलती है जिसको राष्ट्र द्वारा 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। इस संविधान व सरकार में शक्ति का स्रोत जनता है। वह हर तरह के परिवर्तन की शक्ति रखती है। शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए विशाल नौकरशाही, केंद्र तथा राज्य स्तर पर है। इनको एक निश्चित प्रक्रिया द्वारा नियुक्त किया जाता है। इस बारे में यह ध्यान भी रखा जाता है कि व्यक्ति उस विषय का विशेषज्ञ हो। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मुगलकालीन शासन-व्यवस्था आज की शासन-व्यवस्था से काफी भिन्न थी। राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार HBSE 12th Class History Notes → तैमूरी वंशज तैमूर के वंश से संबंध रखने वाले मुग़ल स्वयं को तैमूरी वंशज कहते थे। → बहु या यायावर-वह समुदाय जो एक स्थान पर न बसा हो बल्कि विभिन्न स्थानों पर घूमते हुए जीवन जीता हो। → पादशाह या बादशाह-शाहों का शाह अर्थात् शासकों का शासक बाबर द्वारा यह उपाधि काबुल व कंधार जीतने के बाद ली गई थी। → न्याय की जंजीर-जहाँगीर द्वारा स्वयं को न्यायप्रिय घोषित करने के लिए आगरा के किले में सोने की जंजीर लगवाई जिसे कोई भी फरियादी खींच सकता था। → इतिवृत्त-मुगल शासकों के दरबार में दरबारियों द्वारा लिखे गए वृत्तांत। → चगताई तुर्की-बाबर की आत्मकथा की भाषा। मूलतः यह तुर्की थी लेकिन इस पर बाबर के कबीले के बोली चगताई का प्रभाव था। → हिंदवी-मुगलकाल में उत्तर-भारत में जन साधारण द्वारा बोली जाने वाली भाषा। → रज्मनामा मुगलकाल में महाभारत नामक पुस्तक का अनुवाद करके उसे रज्मनामा का नाम दिया गया। → शाही किताबखाना-मुग़ल शासकों के महल में स्थित वह जगह जहाँ पर पुस्तकें लिखी जाती थीं। → नस्तलिक-मुगलकाल में कागज पर कलम से लिखने की एक शैली। → फर-ए-इज़ादी ईश्वर से प्राप्त राज्य, अबुल फज्ल ने मुगलों के राज्य को फर-ए-इज़ादी का नाम दिया। → सुलह-ए-कुल-अकबर की सबके साथ मिलकर चलने की नीति सुलह-ए-कुल कहलाई। शाब्दिक अर्थ के रूप में इसे ‘पूर्ण शांति’ कहा जाता है। → जियारत-किसी सूफी फकीर की दरगाह पर श्रद्धापूर्वक प्रार्थना के लिए जाना। → दीन-पनाह मुग़ल शासक हुमायूँ द्वारा दिल्ली में बनाया गया भवन। → बुलंद दरवाजा-अकबर द्वारा फतेहपुर सीकरी में बनाई गई दरवाजा रूपी इमारत। → शाहजहाँबाद-मुग़ल शासक शाहजहाँ द्वारा दिल्ली में ही बसाया गया एक नया शहर जिसमें लाल किला, जामा मस्जिद व चाँदनी चौक शामिल थे। → जमींबोसी-अपने से बड़े के प्रति झुककर जमीन चूमकर अभिवादन की प्रा।। → चार तसलीम-चार बार झुककर अभिवादन करना। → झरोखा-मुग़ल शासकों की सूर्योदय के समय जनता को महल की विशेष जगह से दर्शन देने की प्रथा। → नौरोज-ईरानी परंपरा के अनुसार नववर्ष का उत्सव, इसे मुग़ल दरबार में उत्सव के रूप में मनाया जाता था। → हिजरी कैलेंडर-इस्लामी परम्परा के अनुरूप समय गणना बताने वाला कैलेंडर। → तख्त-ए-मुरस्सा-शाहजहाँ द्वारा बनाया गया हीरे-जवाहरातों से जड़ा सिंहासन । इसे सामान्यतः मयूर सिंहासन कहा जाता था। → नकीब-दरबार में किसी भी विशेष व्यक्ति या शासक के आने की घोषणा करने वाला व्यक्ति। → नजराना मगल शासक, शहजादे का राज परिवार के किसी सदस्य को भेंटस्वरूप दिया जाने वाला उपहार। → पादशाह बेगम-मुगल बादशाह की वह पत्नी जो शाही आवास की देख-रेख करती थी। → हरम-शाब्दिक अर्थ पवित्र यह वह स्थान था जहाँ मगल शासकों का परिवार रहता था। मनसबदार-मुगलों की सेवा में सैनिक या असैनिक सेवा करने वाला उच्च पद का व्यक्ति। → सूबा मुगलकाल में प्रांत के लिए प्रयुक्त शब्द। → जेसुइट-ईसाई धर्म प्रचारकों के लिए प्रयोग किया जाने वाला शब्द। → दीन-ए-इलाही-सभी धर्मों के बारे में सुनने के बाद अकबर द्वारा 1582 ई० में स्थापित नया मत। → 15वीं तथा 16वीं शताब्दी में विश्व भर में अनेक युग प्रवर्तक घटनाएं घटीं। नए-नए राजवंशों की स्थापना हुई, यूरोप में पुनर्जागरण (Renaissance) तथा धर्म सुधार (Reformation) आंदोलन चले। उसी प्रकार भारत में भी दिल्ली सल्तनत का पतन हुआ तथा उसके खण्डहरों पर मुगल साम्राज्य का उदय हुआ। यह परिवर्तन भारतीय इतिहास में एक ऐसा परिवर्तन था जिसने न केवल देश के इतिहास की धारा को ही नया मोड़ दिया, अपितु एक नए क्षितिज एवं नव-प्रभात का भी सूत्रपात किया। यह एक महान् राजनीतिक परिवर्तन था। इस परिवर्तन का सूत्रधार तैमूर का वंशज बाबर था।। → मुगल वंश के संस्थापक बाबर का जन्म 14 फरवरी, 1483 को मध्य-एशिया के फरगाना (वर्तमान में उजबेगिस्तान) में हुआ। 1494 ई० में बाबर अपने पिता उमर शेख मिर्जा की मृत्यु के बाद फरगाना का शासक बना। उसने 1504 ई० में काबुल तथा 1507 ई० में कन्धार को जीता। 1519 से 1526 ई० तक उसने भारत पर पाँच आक्रमण किए तथा वह सभी में सफल रहा। 1526 ई० में उसने पानीपत के मैदान में दिल्ली सल्तनत के अन्तिम सुल्तान इब्राहिम लोधी को हराकर मुगल वंश की नींव रखी। → उसने अपने राज्य को सुदृढ़ आधार दिया। 1530 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। .. बाबर की मृत्यु के बाद हुमायूँ शासक बना। शेरशाह ने उसे 1540 ई० में बेलग्राम (कन्नौज) के युद्ध में पराजित कर दिया तथा उसे भारत से निर्वासित होना पड़ा। उसने 1555 ई० में शेरशाह के कमजोर उत्तराधिकारियों को हराकर एक बार फिर दिल्ली व आगरा पर अधिकार कर लिया। इसके बाद 1556 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। → हुमायूँ की मृत्यु के समय उसका पुत्र अकबर शासक बना। अकबर ने अपनी प्रारंभिक सफलताएँ अपने शिक्षक व संरक्षक बैहराम खाँ के नेतृत्व में पाईं। तत्पश्चात् उसने प्रत्येक क्षेत्र में साम्राज्य का विस्तार किया। उसने आन्तरिक दृष्टि से अपने राज्य का विस्तार कर इसे विशाल, सुदृढ़ तथा समृद्ध बनाया। उसने राजपूतों व स्थानीय प्रमुखों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। उसने 1563 ई० में तीर्थ यात्रा कर तथा 1564 ई० में जजिया कर हटाकर गैर-इस्लामी जनता को यह एहसास करवाने का प्रयास किया कि वह उनका भी शासक है। इस तरह अकबर अपने राजनीतिक, प्रशासनिक व उदारवादी व्यवहार के कारण मुग़ल शासकों में महानतम स्थान प्राप्त करने में सफल रहा। 1605 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। → अकबर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र सलीम जहाँगीर के नाम से शासक बना। उसने अकबर की नीतियों को आगे बढ़ाया। उसने अपने जीवन का अधिकतर समय लाहौर में बिताया। 1611 ई० में उसने मेहरूनिसा (बाद में नूरजहाँ) से शादी की। नूरजहाँ शासन में इतनी शक्तिशाली हो गई कि उसने शासन व्यवस्था को अपने हाथ में ले लिया। 1627 ई० में लाहौर में उसकी मृत्यु हो गई। → जहाँगीर के बाद उसका पुत्र खुर्रम, शाहजहाँ के नाम से गद्दी पर बैठा। खुर्रम ने अपने पूर्वजों की नीति का अनुसरण किया। अपनी पत्नी मुमताज महल की मृत्यु के बाद उसने ताजमहल का निर्माण प्रारंभ करवाया। दक्षिण के बारे में उसने बीजापुर, गोलकुण्डा व अहमदनगर के सन्दर्भ में सन्तुलित नीति अपनाई। उसके शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध था जो 1657-58 ई० में लड़ा गया। इसमें उसके तीन पुत्र दारा शिकोह, मुराद व शुजा मारे गए तथा औरंगज़ेब सफल रहा। उसने 1658 ई० में शाहजहाँ को गद्दी से हटाकर जेल में डाल दिया। → 1658 ई० में अपने भाइयों को हराकर व पिता को बन्दी बनाकर औरंगज़ेब सत्ता प्राप्त करने में सफल रहा। वह व्यक्तिगत जीवन में सादगी को पसन्द करता था, लेकिन धार्मिक दृष्टि से संकीर्ण था। प्रशासनिक व्यवस्था में उसने कोई बदलाव नहीं किया। उसके काल में मुगल साम्राज्य की आर्थिक स्थिति खराब हो गई, जिससे सैन्य तंत्र भी कमजोर हुआ। इस तरह 1707 ई० में उसकी मृत्यु के समय मुगल साम्राज्य चारों ओर से संकटों से घिरा हुआ था। → 1707 ई० में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल वंश में एक के बाद एक कमजोर शासक आए। इन शासकों के काल में शासन, दरबार व अभिजात वर्ग पर शासकों की पकड़ कमजोर हुई, जिसके कारण सत्ता का केन्द्र दिल्ली, आगरा व लाहौर न होकर विभिन्न क्षेत्रीय नगर हो गए। इन क्षेत्रीय नगरों में क्षेत्रीय सत्ता की स्थापना हुई। 1739 ई० में ईरान के शासक नादिरशाह ने मुग़ल शासक मुहम्मद शाह को बुरी तरह से पराजित कर दिल्ली में लूटमार की। इससे मुगल साम्राज्य का वैभव, सम्मान व पहचान मिट्टी में मिल गई। → 1857 ई० केजन-विद्रोह में एक बार फिर जन-विद्रोहियों ने मुग़ल राज्य व वंश के नाम का प्रयोग किया तथा अन्तिम मुगल शासक . बहादुरशाह जफर को इसका नेतृत्व दे दिया। अन्ततः वह हार गया तथा उसके पुत्रों व परिवार के अधिकतर सदस्यों का कत्ल कर दिया । गया। उसे बन्दी बनाकर रंगून भेज दिया गया, जहाँ 1862 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद मुगल वंश समाप्त हो गया। → मुग़ल शासकों ने शासन के लिए जिस तरह की व्यवस्था अपनाई, उसके द्वारा वे विशाल विजातीय जनता तथा बहु-सांस्कृतिक जीवन के बीच तालमेल बना सके। शासन-व्यवस्था की इस कड़ी में इस वंश के शासकों ने अपने वंश के इतिहास-लेखन की ओर विशेष ध्यान दिया। यह इतिहास-लेखन दरबारी संरक्षण में दरबारियों एवं विद्वानों के द्वारा लिखा गया। इन दरबारी लेखकों द्वारा जहाँ शासक की इच्छा व भावना का ध्यान रखा गया, वहीं उन्होंने इस महाद्वीप से संबंधित विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ भी उपलब्ध कराई हैं। → आधुनिक इतिहासकारों विशेषतः अंग्रेज़ी में लिखने वालों ने मुगलों की इस लेखन शैली को ‘क्रॉनिकल्स’ का नाम दिया है, जिसको अनुवादित रूप में इतिवृत्त या इतिहास कहा जा सकता है। ये इतिवृत्त (वृत्तांत) मुगलकाल की घटनाओं का कालानुक्रमिक विवरण प्रस्तुत करते हैं। इन इतिवृत्तों की सामग्री दरबारी लेखकों द्वारा कड़ी मेहनत से एकत्रित की गई। फिर इन्होंने इसे व्यवस्थित ढंग से वर्गीकृत किया। मुगलकालीन इतिहास-लेखन के लिए यह इतिवृत्त सबसे प्रमुख स्रोत है, क्योंकि इनमें तथ्यात्मक जानकारी प्रचुर मात्रा में है। → इन इतिवृत्तों में मुगल शासकों की विजयों, राजधानियों, दरबार, केंद्रीय व प्रांतीय शासन व विदेश नीति पर प्रकाश डाला गया है। इसके साथ-साथ मुगल शासकों की धार्मिक नीति तथा प्रजा के साथ व्यवहार का विस्तृत वर्णन भी है। निःसंदेह ये इतिवृत्त या वृत्तांत मुगलकालीन इतिहास के लेखन का महत्त्वपूर्ण आधार हैं। मुगल अभिजात वर्ग के विशेष लक्षण क्या थे?मुग़ल अभिजात वर्ग को समाज के गुलदस्ते के रूप में वर्णित किया गया था। ये वफादारी के साथ बादशाह से जुड़े हुए होते थे। जब मुगल साम्राज्य का निर्माण हो रहा था ,उस समय भी तुरानी वाली ईरानी अभिजात वर्ग अकबर की शाही सेवा में शामिल थे।
मुगल अभिजात वर्ग क्या है?मुग़ल राज्य का महत्त्वपूर्ण स्तम्भ अधिकारियों का दल था जिसे इतिहासकारों ने सामूहिक रूप से अभिजात वर्ग की संज्ञा से अभिहित किया है। अभिजात वर्ग में भर्ती विभिन्न नृ-जातीय तथा धार्मिक समूहों से होती थी। इससे यह सुनिश्चित हो जाता था कि कोई भी दल इतना बड़ा ने हो कि वह राज्य की सत्ता को चुनौती दे सके।
मुगल कुलीन की विशिष्ट विशेषताएं क्या थी?सुलह-ए-कुल की नीति का अनुसरण-
राजत्व के मुग़ल आदर्श का निर्माण करने वाले तत्वों में सुलह-ए-कुल की नीति का महत्त्वपूर्ण स्थान था। राज्य के लौकिक स्वरूप को स्वीकार करना तथा धार्मिक सहनशीलता की नीति का अनुसरण करना मुगलों के राजत्व सिद्धान्त की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी।
मुगल दरबार में अभिवादन का तरीका निम्न में से कौन सा था?मुगल दरबार में अभिवादन के कौन-कौन से तरीके प्रचलित थे? जैसे जिस व्यक्ति के सामने ज्यादा झुककर अभिवादन किया जाता था, उस व्यक्ति की हैसियत ज्यादा ऊँची मानी जाती थी। अभिवादन का उच्चतम रूप सिजदा या दंडवत् लेटना था। शाहजहाँ के शासनकाल में इन तरीकों के स्थान पर चार तसलीम तथा जमींबोसी (जमीन चूमना) के तरीके अपनाए गए।
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