नई कविता के संस्थापक कौन थे? - naee kavita ke sansthaapak kaun the?

नयी कविता हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में प्रयोगवाद से कुछ भिन्नताओं के साथ विकसित हिन्दी कविता की नवीन धारा का प्रतिनिधित्व करने वाली अर्द्धवार्षिक पत्रिका थी। इसे नयी कविता आंदोलन के 'मुखपत्र' की तरह माना जाता है। इसका प्रकाशन सन् १९५४ में आरंभ हुआ। इसके संपादक जगदीश गुप्त, रामस्वरूप चतुर्वेदी एवं विजयदेव नारायण साही थे।

प्रकाशन-इतिहास[संपादित करें]

नयी कविता (पत्रिका) का प्रकाशन सन् १९५४ में आरंभ हुआ। इसके प्रकाशन की योजना आलोचना (पत्रिका) के तत्कालीन संपादक मंडल - धर्मवीर भारती, डॉ॰ रघुवंश, ब्रजेश्वर वर्मा एवं विजयदेव नारायण साही के द्वारा बनायी गयी। धर्मवीर भारती के घर पर आयोजित इनकी बैठक में आलोचना (पत्रिका) के प्रकाशक तथा राजकमल प्रकाशन के संचालक ओमप्रकाश तथा सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ॰ रामस्वरूप चतुर्वेदी भी सम्मिलित थे। इसी बैठक में यह तय हुआ था कि इलाहाबाद के युवा लेखकों के सहकारी प्रकाशन 'कविता प्रकाशन' की ओर से 'नयी कविता' शीर्षक से अर्द्धवार्षिक पत्रिका प्रकाशित की जाएगी, जिसके संपादक डॉ॰ जगदीश गुप्त एवं डॉ॰ रामस्वरूप चतुर्वेदी होंगे तथा व्यवस्था और वितरण राजकमल प्रकाशन का रहेगा।[1] यह सारी योजना व्यवस्था के स्तर पर बहुत कुछ आकस्मिक ही थी, परंतु रचनात्मक स्तर पर उतनी आकस्मिक नहीं थी। डॉ॰ रामस्वरूप चतुर्वेदी के शब्दों में "पिछले कुछ समय से नयी कविता की चर्चा-परिचर्चा एक काव्य-आंदोलन के रूप में इलाहाबाद और बाहर भी चल रही थी। यह प्रकाशन-योजना उसकी स्वाभाविक परिणति थी।"[2]

'नयी कविता' पत्रिका की योजना बन जाने के बाद उसका कार्यान्वयन शुरू हुआ। इसके प्रथम अंक के संपादक जगदीश गुप्त एवं रामस्वरूप चतुर्वेदी थे। धर्मवीर भारती औपचारिक रूप से इसके संपादक नहीं थे पर समूची योजना के सूत्रधारों में थे। इन तीनों की बैठक में अंक का रूपाकार स्थिर करने के बाद प्रथम अंक का प्रकाशन सन् १९५४ में हुआ।[3] इसके प्रथम अंक को लेकर साहित्य जगत में तीव्र प्रतिक्रियाएँ हुईं। कविता की नवीन धारा के इस मुखर और एकत्र प्रकाशन का अनेक लोगों ने तीव्र विरोध किया। डॉ॰ चतुर्वेदी ने इस संदर्भ में लिखा है कि "कवियों, समीक्षकों, विद्वानों और पाठकों में कविता के इस नये स्वरूप को लेकर आक्रोश, विभ्रम, संभ्रम और सहानुभूति की विविध अर्थ-छायाएँ संभव हुईं। अनेक समीक्षाएँ और टिप्पणियाँ लिखी गईं। नयी कविता आधुनिक वैचारिक रचनाशीलता का प्रतिमान बन गई।"[4]

आरंभिक दो अंकों के संपादन के बाद डॉ॰ रामस्वरूप चतुर्वेदी एक अन्य पत्रिका के संपादन के लिए इस पत्रिका के संपादन कार्य से अलग हो गये और उनके स्थान पर विजयदेव नारायण साही संपादक के रूप में जुड़े।[5] कुल आठ अंक प्रकाशित होने के बाद इसका प्रकाशन स्थगित हो गया। इन आठ अंकों का हिन्दी साहित्य में ऐतिहासिक महत्त्व है।

वैशिष्ट्य[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, डॉ॰ रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, छठा संस्करण-१९९६, पृष्ठ-२७५.
  2. नयी कविताएँ : एक साक्ष्य, डॉ॰ रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-१९९०, पृष्ठ-१३.
  3. नयी कविताएँ : एक साक्ष्य, डॉ॰ रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-१९९०, पृष्ठ-१४.
  4. हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, डॉ॰ रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, छठा संस्करण-१९९६, पृष्ठ-२७६.
  5. नयी कविताएँ : एक साक्ष्य, डॉ॰ रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-१९९०, पृष्ठ-१५.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

इलाहाबादलखनऊकलकत्तादिल्ली

Answer : A

Solution : सन् 1954 से आज तक की कविता को हिन्दी काव्य जगत में नई कविता के नाम से जाना गया। .नई. शब्द हिन्दी कविता के क्षेत्र में वर्ष 1950 के आस-पास प्रयोगवाद के विरुद्ध आन्दोलन का द्योतक है। सन् 1954 में डॉ. जगदीश गुप्त और रामस्वरूप चतुर्वेदी द्वारा इलाहाबाद से नई कविता पत्रिका का प्रकाशन हुआ।

नयी कविता हिन्दी साहित्य में सन् १९५१ के बाद की उन कविताओं को कहा गया, जिनमें परंपरागत कविता से आगे नये भावबोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों और नये शिल्प-विधान का अन्वेषण किया गया। यह प्रयोगवाद के बाद विकसित हुई हिन्दी कविता की नवीन धारा है। नयी कविता अपनी वस्तु-छवि और रूप-छवि दोनों में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद का विकास होकर भी विशिष्ट है।

आरंभ[संपादित करें]

नयी कविता आंदोलन का आरंभ इलाहाबाद की साहित्यिक संस्था परिमल के कवि लेखकों- जगदीश गुप्त, रामस्वरुप चतुर्वेदी और विजयदेव नारायण साही के संपादन में १९५४ में प्रकाशित नयी कविता (पत्रिका) से माना जाता है। इससे पहले अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित काव्य-संग्रह 'दूसरा सप्तक' की भूमिका तथा उसमें शामिल कुछ कवियों के वक्तव्यों में अपनी कवितओं के लिये 'नयी कविता' शब्द को स्वीकार किया गया था।

कथ्य[संपादित करें]

नयी कविता के लिए जगत्-जीवन से संबंधित कोई भी स्थिति, सम्बंध, भाव या विचार कथ्य के रूप में त्याज्य नहीं है। जन्म से लेकर मरण तक आज के मानव-जीवन का जिन स्थितियों, परिस्थितियों, सम्बंधों, भावों, विचारों और कार्यों से साहचर्य होता है, उन्हें नयी कविता ने अभिव्यक्त किया है। नए कवि ने किसी भी कथ्य को त्याज्य नहीं समझा है।

स्वानुभूति पर जोर[संपादित करें]

कथ्य के प्रति नयी कविता में स्वानुभूति का आग्रह है। नया कवि अपने कथ्य को उसी रूप में प्रस्तुत करना चाहता है, जिस रूप में उसे वह अनुभूत करता है।

वादमुक्त[संपादित करें]

नयी कविता वाद-मुक्ति की कविता है। इससे पहले के कवि भी प्रायः किसी न किसी वाद का सहारा अवश्य लेते थे। और यदि कवि वाद की परवाह न करें, किन्तु आलोचक तो उसकी रचना में काव्य से पहले वाद खोजता था-वाद से काव्य की परख होती थी। किन्तु नयी कविता की स्थिति भिन्न है। नया कवि किसी भी सिद्धांत, मतवाद, संप्रदाय या दृष्टि के आग्रह की कट्टरता में फँसने को तैयार नहीं। संक्षेप में, नयी कविता कोई वाद नहीं है, जो अपने कथ्य और दृष्टि में सीमित हो। कथ्य की व्यापकता और सृष्टि की उन्मुक्तता नई कविता की सबसे बड़ी विशेषता है।

परंपरा का अस्वीकार[संपादित करें]

नई कविता परंपरा को नहीं मानती है।

लघु मानव की प्रतिष्ठा[संपादित करें]

मनुष्यों में वैयक्तिक भिन्नता होती है, उसमें अच्छाईयाँ भी हैं और बुराईयाँ भी। नई कविता के कवि को मनुष्य इन सभी रूपों में प्यारा है। उसका उद्देश्य मनुष्य की समग्रता का चित्रण है। नई कविता जीवन के प्रति आस्था रखती है। आज की क्षणवादी और लघुमानववादी दृष्टि जीवन-मूल्यों के प्रति स्वीकारात्मक दृष्टि है।

जिजीविषा[संपादित करें]

नई कविता में जीवन का पूर्ण स्वीकार करके उसे भोगने की लालसा है। जीवन की एक-एक अनुभूतियों को, व्यथा को, सुख को, सत्य मानकर जीवन को सघन रूप से स्वीकार करना क्षणों को सत्य मानना है।

नई कविता ने जीवन को न तो एकांगी रूप में देखा न केवल महत् रूप में, उसने जीवन को जीवन के रूप में देखा। इसमें कोई सीमा निर्धारित नहीं की। जैसे- दुःख सबको माँजता है और, चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना न जाने, किन्तु-जिसको माँजता है, उन्हें यह सीख देता है कि, सबको मुक्त रखें। (अज्ञेय)

नई कविता में दो तत्व प्रमुख हैं- अनुभूति की सच्चाई और बुद्धिमूलक यथार्थवादी दृष्टि। वह अनुभूति क्षण की हो या एक समूचे काल की, किसी सामान्य व्यक्ति की हो या विशिष्ट पुरूष की, आशा की हो या निराशा की, अपनी सच्चाई में कविता के लिए और जीवन के लिए भी अमूल्य है। नई कविता में बुद्धिवाद नवीन यथार्थवादी दृष्टि के रूप में भी है और नवीन जीवन-चेतना की पहचान के रूप में भी। यही कारण है कि तटस्थ प्रयोगशीलता नई कविता के कथ्य और शैली-दोनों की विशेषता है। नया कवि अपने कथ्य के प्रति तटस्थ वृत्ति रखता है, क्योंकि उसका प्रयत्न वादों से मुक्त रहने का रहता है। इस विशेषता के कारण नई कविता में कथ्यों की कोई एक परिधि नहीं है। इसमें तो कथ्य से कथ्य की नई परतें उघड़ती आती हैं। कभी-कभी वह अपने ही कथनों का खण्डन भी कर देता है- ईमानदारी के कारण। नया कवि डूबकर भोगता है, किन्तु भोगते हुए डूब नहीं जाता।

नई कविता जीवन के एक-एक क्षण को सत्य मानती है और उस सत्य को पूरी हार्दिकता और पूरी चेतना से भोगने का समर्थन करती है। अनुभूति की सच्चाई, जितना वह ले पाता है, उतना ही उसके काव्य के लिए सत्य है। नई कविता अनुभूतिपूर्ण गहरे क्षणों, प्रसंगों, व्यापार या किसी भी सत्य को उसकी आंतरिक मार्मिकता के साथ पकड़ लेना चाहती है। इस प्रकार जीवन के सामान्य से सामान्य दीखनेवाले व्यापार या प्रसंग नई कविता में नया अर्थ पा जाते हैं। नई कविता में क्षणों की अनुभूतियों को लेकर बहुत-सी मर्मस्पर्शी कविताएँ लिखी गई हैं। जो आकार में छोटी होती हैं किन्तु प्रभाव में अत्यंत तीव्र। नई कविता परंपरा को नहीं मानती। इन कवियों ने परंपरावादी जड़ता का विरोध किया है। प्रगतिशील कवियों ने परंपरा की जड़ता का विरोध इसलिए किया है कि वह लोगों को शोषण का शिकार बनाती है और दुनिया के मजदूरों तथा दलितों को एक झंड़े के नीचे एकत्र होने में बाधा डालती है। नया कवि उसका विरोध इसलिए करता है कि उसके कारण मानव-विवेक कुंठित हो जाता है।

नई कविता सामाजिक यथार्थ तथा उसमें व्यक्ति की भूमिका को परखने का प्रयास करती है। इसके कारण ही नई कविता का सामाजिक यथार्थ से गहरा संबंध है। परंतु नई कविता की यथार्थवादी दृष्टि काल्पनिक या आदर्शवादी मानववाद से संतृष्ट न होकर जीवन का मूल्य, उसका सौंदर्य, उसका प्रकाश जीवन में ही खोजती है। नई कविता द्विवेदी कालीन कविता, छायावाद या प्रगतिवाद की तरह अपने बने-बनाये मूल्यलादी नुस्ख़े पेश नहीं करती, बल्कि वह तो उसे जीवन की सच्ची व्यथा के भीतर पाना चाहती है। इसलिए नई कविता में व्यंग्य के रूप में कहीं पुराने मूल्यों की अस्वीकृति है, तो कहीं दर्द की सच्चाई के भीतर से उगते हुए नए मूल्यों की संभावना के प्रति आस्था। नई कविता ने धर्म, दर्शन, नीति, आचार सभी प्रकार के मूल्यों को चुनौती दी है। नई कविता का स्वर अपने परिवेश की जीवनानुभूति से फूटा है।

नई कविता में शहरी जीवन और ग्रामीण-जीवन-दोनों परिवेशों को लेकर लिखनेवाले कवि हैं। अज्ञेय ने दोनों पर लिखा है। जबकि बालकृष्ण राव, शमशेर बहादुर सिंह, गिरिजाकुमार माथुर, कुँवरनारायण सिंह, धर्मवीर भारती, प्रभाकर माचवे, विजयदेवनारायण साही, रघुवीर सहाय आदि कवि की संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ शहरी परिवेश की हैं तो दूसरी ओर भवानीप्रसाद मिश्र, केदारनाथ सिंह, शंभुनाथ सिंह, ठाकुरप्रसाद सिंह, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल आदि ऐसे कवि हैं जो मूलतः गाँव की अनुभूतियाँ और संवेदना से जुड़े हैं। इनके अतिरिक्त उसमें जहाँ घुटन, व्यर्थता, ऊब, पराजय, हीन-भाव, आक्रोश हैं, वहीं आत्मपीड़न परक भावनाएँ भी हैं। नई कविता का परिवेश अपने यहाँ का जीवन है। किन्तु उस पर आक्षेप है कि उसमें अतिरिक्त अनास्था, निराशा, व्यक्तिवादी कुंठा और मरणधर्मिता है जो पश्चिम की नकल से पैदा हुई है।

नई कविता में पीड़ा और निराशा को कहीं-कहीं जीवन का एक पक्ष न मानकर समग्र जीवन-सत्य मान लिया गया है। वहाँ पीड़ा जीवन की सर्जनात्मक शक्ति न बनकर उसे गतिहीन करनेवाली बाधा बऩ गई है। लोक-संपुक्ति नई कविता की एक खास विशेषता है। वह सहज लोक-जीवन के करीब पहुँचने का प्रयत्न कर रही है। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं की समीक्षा करते हुए प्रोफेसर महावीर सरन जैन का कथन है कि "हिन्दी की नई कविता पर सबसे बड़ा आक्षेप यह है कि उसमें अतिरिक्त अनास्था, निराशा, विशाद, हताशा, कुंठा और मरणधर्मिता है। उसको पढ़ने के बाद जीने की ललक समाप्त हो जाती है, व्यक्ति हतोत्साहित हो जाता है, मन निराशावादी और मरणासन्न हो जाता है। यह कि नई कविता ने पीड़ा, वेदना, शोक और निराशा को ही जीवन का सत्य मान लिया है।

नई कविता भारत की जमीन से प्रेरणा प्राप्त नहीं करती। इसके विपरीत यह पश्चिम की नकल से पैदा हुई है। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएँ इन सारे आरोपों को ध्वस्त कर देती हैं। मिश्र जी गाँधीवादी है। गाँधी की देश-भक्ति मंजिल नहीं है। गाँधी जी की देश-भक्ति विश्व के जीव मात्र के प्रति प्रेम और उसकी सेवा करने के लिए उनकी जीवन यात्रा का एक पड़ाव है। उनके विचार में कहीं भी लेश मात्र भी निराशा का भाव नहीं है। उसमें आशा, विश्वास और आस्था की ज्योति आलोकित है। इसी आलोक के कारण गाँधी जी ने दक्षिण-अफ्रीका और भारत में जो जन-आन्दोलन चलाए उन्होंने सम्पूर्ण समाज में नई जागृति, नई चेतना और नया संकल्प भर दिया। उनके जीवन दर्शन से विशाद, निराशा और मरण-धर्मिता नहीं अपितु इसके सर्वथा विपरीत नई आशा, नई आस्था और नई उमंग पैदा होती है। उससे सत्य, अहिंसा एवं प्रेम की त्रिवेणी प्रवाहित होती है। (देखें – प्रोफेसर महावीर सरन जैन : गाँधी दर्शन की प्रासंगिकता)। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएँ इसी कारण समाज में जो विपन्न हैं, लाचार हैं, थके हुए हैं, धराशायी हैं उन सबको सहारा देने के लिए प्रेरित करती हैं, उनको उठाने के लिए प्रोत्साहित करती हैं"।

शिल्पगत विशेषताएँ[संपादित करें]

नई कविता ने लोक-जीवन की अनुभूति, सौंदर्य-बोध, प्रकृत्ति और उसके प्रश्नों को एक सहज और उदार मानवीय भूमि पर ग्रहण किया। साथ ही साथ लोक-जीवन के बिंबों, प्रतीकों, शब्दों और उपमानों को लोक-जीवन के बीच से चुनकर उसने अपने को अत्यधिक संवेदनापूर्ण और सजीव बनाया। कविता के ऊपरी आयोजन नई कविता वहन नहीं कर सकती। वह अपनी अन्तर्लय, बिंबात्मकता, नवीन प्रतीक-योजना, नये विशेषणों के प्रयोग, नवीन उपमान में कविता के शिल्प की मान्य धारणाओं से बाकी अलग है।

नई कविता की भाषा किसी एक पद्धति में बँधकर नहीं चलती। सशक्त अभिव्यक्ति के लिए बोलचाल की भाषा का प्रयोग इसमें अधिक हुआ है। नई कविता में केवल संस्कृत शब्दों को ही आधार नहीं बनाया है, बल्कि विभिन्न भाषाओं के प्रचलित शब्दों को स्वीकार किया गया है। नए शब्द भी बना लिए गये हैं। टोये, भभके, खिंचा, सीटी, ठिठुरन, ठसकना, चिडचिड़ी, ठूँठ, विरस, सिराया, फुनगियाना – जैसे अनेक शब्द नई कविता में धड़ल्ले से प्रयुक्त हुए हैं। जिससे इसकी भाषा में एक खुलापन और ताज़गी दिखाई देती है। इसकी भाषा में लोक-भाषा के तत्व भी समाहित हैं।

नई कविता में प्रतीकों की अधिकता है। जैसे- साँप तुम सभ्य तो हुए नहीं, न होंगे, नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया। एक बात पूँछु? उत्तर दोगे! फिर कैसे सीखा डँसना? विष कहाँ पाया? (अज्ञेय) नई कविता में बिंब भी विपुल मात्रा में उपलब्ध है। नई कविता की विविध रचनाओं में शब्द, अर्थ, तकनीकी, मुक्त आसंग, दिवास्वप्न, साहचर्य, पौराणिक, प्रकृति संबंधी काव्य बिंब निर्मित्त किए गये हैं। जैसे- सामने मेरे सर्दी में बोरे को ओढकर, कोई एक अपने, हाथ पैर समेटे, काँप रहा, हिल रहा,-वह मर जायेगा। (मुक्तिबोध)

नई कविता में छंद को केवल घोर अस्वीकृति ही मिली हो- यह बात नहीं, बल्कि इस क्षेत्र में विविध प्रयोग भी किये गये हैं। नये कवियों में किसी भी माध्यम या शिल्प के प्रति न तो राग है और न विराग। गतिशीलता के प्रभाव के लिए संगीत की लय को त्यागकर नई कविता ध्वनि-परिवर्तन की ओर बढ़ती गई है। एक वर्ण्य विषय या भाव के सहारे उसका सांगोपांग विवरण प्रस्तुत करते हुए लंबी कविता या पूरी कविता लिखकर उसे काव्य-निबंध बनाने की पुरानी शैली नई कविता ने त्याग दी है। नई कविता के कवियों ने लंबी कविताएँ भी लिखी हैं। किन्तु वे पुराने प्रबंध काव्य के समानान्तर नहीं हैं। नई कविता का प्रत्येक कवि अपनी निजी विशिष्टता रखता है। नए कवियों के लिए प्रधान है सम्प्रेषण, न कि सम्प्रेषण का माध्यम। इस प्रकार हम देखते हैं कि नई कविता कथ्य और शिल्प-दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

नई कविता के संस्थापक कौन है?

नयी कविता (पत्रिका) का प्रकाशन सन् १९५४ में आरंभ हुआ। इसके प्रकाशन की योजना आलोचना (पत्रिका) के तत्कालीन संपादक मंडल - धर्मवीर भारती, डॉ॰ रघुवंश, ब्रजेश्वर वर्मा एवं विजयदेव नारायण साही के द्वारा बनायी गयी।

नई कविता पत्रिका के संपादक कौन है?

जगदीश गुप्त और रामस्वरूप चतुर्वेदी द्वारा इलाहाबाद से नई कविता पत्रिका का प्रकाशन हुआ।

नई कविता की शुरुआत कब से हुई?

नई कविता अपने सारतत्व में प्रगतिवाद व प्रयोगवाद का विकास होकर भी उनसे भिन्न आंदोलन है। लक्ष्मीकान्त वर्मा ने इसका आरंभ 1951 ई. से माना है क्योंकि इसी वर्ष अज्ञेय द्वारा संपादित 'दूसरा सप्तक' प्रकाशित हुआ था।

नई कविता के कवि का नाम क्या है?

नई कविता क्या हैं? (1) सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' (1911-1987 ई.) (2) धर्मवीर भारती (1926-1997 ई.) (3) सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (1927-1983 ई.)