पसोवा नगर किस लिए प्रसिद्ध है - pasova nagar kis lie prasiddh hai

जैन धर्म दुनिया का सबसे प्राचीन धर्म है। राजा जनक भी जिन परंपरा से ही थे और उनके गुरु अष्टावक्र भी जिन परंपरा से थे। भगवान राम पूर्वज नाभिराज के कुल में ऋषभदेव हुए। नाभि के कुल में ही इक्ष्वाकु हुए। ऋषभदेव जैन धर्म के प्रवर्तक और पहले तीर्थंकर हैं और राम का जन्म इक्ष्वाकु कुल में ही हुआ था।

jain tirth

पहले जिन परंपरा को वातरशना मुनियों, विदेहियों की परंपरा माना जाता था। पार्श्वनाथ के काल में इस परंपरा को स्पष्ट व्यवस्था मिली और 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी के काल में इसका सरलीकरण करके एक संघीय व्यवस्था में बदला गया।

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पूरे भारत में जैन धर्म के अनेक तीर्थ क्षेत्र हैं। यहां प्रस्तुत हैं प्रमुख 12 तीर्थों की महत्वपूर्ण जानकारी।

 

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श्री सम्मेद शिखरजी (गिरिडीह, झारखंड) : जैन धर्म में सम्मेद शिखरजी को सबसे बड़ा तीर्थस्थल माना जाता है। यह भारतीय राज्य झारखंड में गिरिडीह जिले में छोटा नागपुर पठार पर स्थित एक पहाड़ पर स्थित है। इस पहाड़ को पार्श्वनाथ पर्वत कहा जाता है। 

 

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श्री सम्मेद शिखरजी के रूप में चर्चित इस पुण्य स्थल पर जैन धर्म के 24 में से 20 तीर्थंकरों (सर्वोच्च जैन गुरुओं) ने मोक्ष प्राप्त किया था। यहीं पर 23वें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ ने भी निर्वाण प्राप्त किया था। जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों में से प्रथम तीर्थंकर भगवान 'आदिनाथ' अर्थात भगवान ऋषभदेव ने कैलाश पर्वत पर, 12वें तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य ने चंपापुरी, 22वें तीर्थंकर भगवान नेमीनाथ ने गिरनार पर्वत और 24वें और अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने पावापुरी में मोक्ष प्राप्त किया।

 

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अयोध्या : कुलकरों की क्रमश: कुल परंपरा के सातवें कुलकर नाभिराज और उनकी पत्नी मरुदेवी से ऋषभदेव का जन्म चैत्र कृष्ण 9 को अयोध्या में हुआ था। इसलिए अयोध्या भी जैन धर्म के लिए तीर्थ स्थल है। अयोध्या में आदिनाथ के अलावा अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ का भी जन्म हुआ था इसलिए यह जैन धर्म के लिए बहुत ही पवित्र भूमि है।

 

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अयोध्या के राजा नाभिराज के पुत्र ऋषभ अपने पिता की मृत्यु के बाद राज सिंहासन पर बैठे और उन्होंने कृषि, शिल्प, असि (सैन्य शक्ति), मसि (परिश्रम), वाणिज्य और विद्या इन 6 आजीविका के साधनों की विशेष रूप से व्यवस्था की तथा देश व नगरों एवं वर्ण व जातियों आदि का सुविभाजन किया। इनके दो पुत्र भरत और बाहुबली तथा दो पुत्रियां ब्राह्मी और सुंदरी थीं जिन्हें उन्होंने समस्त कलाएं व विद्याएं सिखाईं। इनके पुत्र भरत के नाम पर ही इस देश का नाम भारत रखा गया था।

 

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कैलाश पर्वत : ऋषभदेव को हिन्दू वृषभदेव कहते हैं। वैसे उनका भव चिह्न भी वृषभ ही है। वृषभ का अर्थ होता है बैल। भगवान शिव को आदिनाथ भी कहा जाता है और ऋषभदेव को भी।

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कैलाश पर्वत पर ही ऋषभदेव को कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ था। नाथ कहने से वे नाथों के नाथ हैं। वे जैनियों के ही नहीं, हिन्दू और सभी धर्मों के तीर्थंकर हैं, क्योंकि वे परम प्राचीन आदिनाथ हैं।

 

ऋषभदेव स्वायंभू मनु से पांचवीं पीढ़ी में इस क्रम में हुए- स्वायंभू मनु, प्रियव्रत, अग्नीघ्र, नाभि और फिर ऋषभ। कुलकर नाभिराज से ही इक्ष्वाकु कुल की शुरुआत मानी जाती है।

 

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भगवान पार्श्वनाथ की जन्मभूमि वाराणसी : भगवान पार्श्वनाथ जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर हैं। उनसे पूर्व श्रमण धर्म की धारा को आम जनता में पहचाना नहीं जाता था। पार्श्वनाथ से ही श्रमणों को पहचान मिली। पार्श्वनाथ ने चार गणों या संघों की स्थापना की। प्रत्येक गण एक गणधर के अंतर्गत कार्य करता था। ऐसा माना जाता है कि महात्मा बुद्ध के अधिकांश पूर्वज भी पार्श्वनाथ धर्म के अनुयायी थे।

 

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पार्श्वनाथ का जन्म पौष कृष्‍ण दशम या एकादशी के दिन वाराणसी में हुआ था। उनके पिता अश्वसेन वाराणसी के राजा थे। इनकी माता का नाम 'वामा' था। भगवान पार्श्वनाथ 30 वर्ष की आयु में ही गृह त्यागकर संन्यासी हो गए। चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को आपने दीक्षा ग्रहण की। 83 दिन तक कठोर तपस्या करने के बाद 84वें दिन उन्हें चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को सम्मेद शिखर पर ही कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। वहीं श्रावण शुक्ल की अष्टमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ।

 

कैवल्य ज्ञान के पश्चात चातुर्याम (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह) की शिक्षा दी। ज्ञान प्राप्ति के उपरांत 70 वर्ष तक आपने अपने मत और विचारों का प्रचार-प्रसार किया तथा 100 वर्ष की आयु में देह त्याग दी।

 

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तीर्थराज कुंडलपुर : ईसा से 599 वर्ष पहले वैशाली गणतंत्र के क्षत्रिय कुंडलपुर में पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशला के यहां तीसरी संतान के रूप में चैत्र शुक्ल तेरस को वर्धमान का जन्म हुआ। यही वर्धमान बाद में स्वामी महावीर बने। वर्धमान के बड़े भाई का नाम था नंदीवर्धन व बहन का नाम था सुदर्शना। महावीर स्वामी के माता-पिता जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के अनुयायी थे।

 

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कुंडलपुर बिहार के नालंदा जिले में स्थित है। यह स्थान पटना से यह 100 ‍किलोमीटर और बिहार शरीफ से मात्र 15 किलोमीटर दूर है। इस स्थान को जैन धर्म में कल्याणक क्षेत्र माना जाता है।

 

भगवान महावीर ने 72 वर्ष की अवस्था में ईसापूर्व 527 में पावापुरी (बिहार) में कार्तिक (आश्विन) कृष्ण अमावस्या को निर्वाण प्राप्त किया। इनके निर्वाण दिवस पर घर-घर दीपक जलाकर दीपावली मनाई जाती है।

 

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पावापुरी : पावापुरी वह स्थान है, जहां जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी ने 72 वर्ष की उम्र में 526 ईसा पूर्व निर्वाण प्राप्त किया था। यह स्थान बिहार में नालंदा जिले में स्थित है। इसके समीप ही राजगीर और बोधगया है।

 

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महावीर के निर्वाण का सूचक एक स्तूप अभी तक यहां खंडहर के रूप में स्थित है। स्तूप से प्राप्त ईंटें राजगीर के खंडहरों की ईंटों से मिलती-जुलती हैं जिससे दोनों स्थानों की समकालीनता सिद्ध होती है।

यहां एक सरोवर है जिसके जल के ‍अंदर जल मंदिर बना हुआ है। माना जाता है कि भगवान महावीर का अंतिम संस्कार इसी कमल सरोवर के मध्य किया गया था। यहां कई नए और प्राचीन जैन मंदिर हैं। यहीं पर एक समवशरण जैन मंदिर है। माना जाता है कि महावीर स्वामीजी ने यहां अपना अंतिम प्रवचन दिया था।

 

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गिरनार पर्वत : गिरनार पर्वत पर 22वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ ने कैवल्य ज्ञान (मोक्ष) प्राप्त किया था। यह सिद्धक्षेत्र माना जाता है। यहां से नेमिनाथ स्वामी के अलावा 72 करोड़ 700 मुनि मोक्ष गए हैं। काठियावाड़ में जूनागढ़ स्टेशन से 4-5 मील की दूरी पर गिरिनार पर्वत की तलहटी है। पहाड़ पर 7,000 सीढ़ियां चढ़ने के बाद प्रभु के दर्शन होते हैं।

 

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3137 ईस्वी पूर्व हुए 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ का उल्लेख हिन्दू और जैन पुराणों में स्पष्ट रूप से मिलता है। नेमिनाथ मथुरा के यादववंशी राजा अंधकवृष्णी के ज्येष्ठ पुत्र समुद्रविजय के पुत्र थे। अंधकवृष्णी के सबसे छोटे पुत्र वासुदेव के पुत्र भगवान श्रीकृष्ण थे। इस प्रकार तीर्थंकर नेमिनाथ और भगवान श्रीकृष्ण दोनों चचेरे भाई थे। नेमिनाथ की माता का नाम शिवा था। नेमिनाथ का विवाह जूनागढ़ के राजा उग्रसेन की पुत्री राजुलमती से तय हुआ था। विवाह के दौरान ही एक हिंसात्मक घटना से उनके मन में विरक्ति आ गई और वे तत्क्षण ही विवाह छोड़कर गिरनार पर्वत पर तपस्या के लिए चले गए। कठिन तप के बाद वहां उन्होंने कैवल्य ज्ञान प्राप्त कर श्रमण परंपरा को पुष्ट किया। अहिंसा को धार्मिक वृत्ति का मूल माना और उसे सैद्धांतिक रूप दिया।

 

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चंपापुरी : 12वें तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य ने चंपापुरी में मोक्ष प्राप्त किया था। वासुपूज्य स्वामी का जन्म चंपापुरी के इक्ष्वाकु वंश में फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शतभिषा नक्षत्र में हुआ था।

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इनकी माता का नाम जयादेवी और पिता का नाम राजा वासुपूज्य था। दीक्षा प्राप्ति के पश्चात एक माह तक कठिन तप करने के बाद चंपापुरी में ही 'पाटल' वृक्ष के नीचे वासुपूज्य को मघा की दूज को 'कैवल्य ज्ञान' की प्राप्ति हुई थी। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को चंपापुरी में ही आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। 

 

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श्रवणबेलगोला : यह प्राचीन तीर्थस्थल भारतीय राज्य कर्नाटक के मड्या जिले में श्रवणबेलगोला के गोम्मटेश्वर स्थान पर स्थित है। यहां पर भगवान बाहुबली की विशालकाय प्रतिमा स्थापित है, जो पूर्णत: एक ही पत्थर से निर्मित है। इस मूर्ति को बनाने में मूर्तिकार को लगभग 12 वर्ष लगे। बाहुबली को गोमटेश्वर भी कहा जाता था।

 

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श्रवणबेलगोला में गोम्मटेश्वर द्वार के बाईं ओर एक पाषाण पर शक सं. 1102 का एक लेख कानड़ी भाषा में है। इसके अनुसार ऋषभ के दो पुत्र भरत और बाहुबली थे। ऋषभदेव के जंगल चले जाने के बाद राज्याधिकार के लिए बाहुबली और भरत में युद्ध हुआ। बाहुबली ने युद्ध में भरत को परास्त कर दिया। लेकिन इस घटना के बाद उनके मन में भी विरक्ति भाव जाग्रत हुआ और उन्होंने भरत को राजपाट ले लेने को कहा, तब वे खुद घोर तपश्चरण में लीन हो गए। तपस्या के पश्चात उनको यहीं पर केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। भरत ने बाहुबली के सम्मान में पोदनपुर में 525 धनुष की बाहुबली की मूर्ति प्रतिष्ठित की। प्रथम सबसे विशाल प्रतिमा का यहां उल्लेख है।

 

कालांतर में मूर्ति के आस-पास का प्रदेश वन कुक्कुटों तथा सर्पों से व्याप्त हो गया जिससे लोग मूर्ति को ही कुक्कुटेश्वर कहने लगे। भयानक जंगल होने के कारण यहां कोई पहुंच नहीं पाता था इसलिए यह मूर्ति लोगों की स्मृति से लुप्त हो गई।

 

गंग वंशीय रायमल्ल के मंत्री चामुंडा राय ने इस मूर्ति का वृत्तांत सुनकर इसके दर्शन करने चाहे, किंतु पोदनपुर की यात्रा कठिन समझकर श्रवणबेलगोला में उन्होंने पोदनपुर की मूर्ति के अनुरूप ही गोम्मटेश्वर की मूर्ति का निर्माण करवाया। गोम्मटेश्वर की मूर्ति संसार की विशालतम मूर्तियों में से एक मानी जाती है।

 

श्रवणबेलगोला में चंद्रगिरि और विंध्यगिरि नाम की दो पहाड़ियां पास-पास हैं। पहाड़ पर 57 फुट ऊंची बाहुबली की प्रतिमा विराजमान है। हर 12 वर्ष बाद महामस्तकाभिषेक होता है।

 

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बावनगजा (चूलगिरि) : मध्यप्रदेश के बड़वानी शहर से 8 किमी दूर स्थित इस पवित्र स्थल में जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवजी (आदिनाथ) की 84 फुट ऊंची उत्तुंग प्रतिमा है। सतपुड़ा की मनोरम पहाड़ियों में स्थित यह प्रतिमा भूरे रंग की है और एक ही पत्थर को तराशकर बनाई गई है।

 

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सन्‌ 1166 से 1288 के बीच अर्ककीर्ति द्वारा प्रतिष्ठापित सतपुड़ा की चोटियों से घिरी हुई चूलगिरि (मालवदेश- बड़वानी) में आदिनाथ की खड्गासन प्रतिमा है। एक शिलालेख के अनुसार संवत 1516 में भट्टारक रतनकीर्ति ने बावनगजा मंदिर का जीर्णोद्धार कराया और बड़े मंदिर के पास 10 जिनालय बनवाए थे।

 

मध्यकाल में यह प्रतिमा उपेक्षा का शिकार रही तथा गर्मी, बरसात और तेज हवाओं के थपेड़ों से काफी जर्जर हो गई। जब दिगंबर जैन समुदाय का ध्यान इस ओर गया तो उन्होंने भारतीय पुरातत्व विभाग के अधिकारियों और इंजीनियरों के साथ मिलकर प्रतिमा के जीर्णोद्धार की योजना बनाई।

 

विक्रम संवत 1979 में प्रतिमा का जीर्णोद्धार हुआ और तब इसकी लागत करीब 59,000 रुपए आई। इसके फलस्वरूप प्रतिमा के दोनों ओर गैलरी बना दी गई और इसे धूप और बरसात से बचाने के लिए इस पर 40 फुट लंबे और 1.5 फुट चौड़े गर्डर डालकर ऊपर तांबे की परतें डालकर छत बना दी गई। 

 

मालवदेश में और गोपगिरि (ग्वालियर) की आदिनाथ की प्रतिमा ग्वालियर में है। एक नर्मदा नदी के किनारे तो दूसरी स्वर्ण रेखा नदी के किनारे है। दोनों ही सिद्धक्षेत्र हैं। चूलगिरि से इंद्रजीत और कुंभकर्ण मुक्त हुए तथा गोपाचल से सुप्रतिष्ठित केवली मोक्ष गए हैं।

 

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चांदखेड़ी : कोटा के निकट खानपुर नाम का एक प्राचीन नगर है। खानपुर से 2 फर्लांग की दूरी पर चांदखेड़ी नाम की पुरानी बस्ती है। यहां भूगर्भ में एक अतिविशाल जैन मंदिर है एवं अनेक विशाल जैन प्रतिमाएं हैं।

 

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दक्षिण-पूर्वी राजस्थान कोटा जंक्शन (कोटा) से 8 किमी दक्षिण में स्थित झालावाड़ जिले के खानपुर कस्बे के निकट चांदखेड़ी रूपाली नदी के किनारे स्थित है। यहां स्थित मंदिर के मूल गर्भगृह में एक विशाल तल-प्रकोष्ठ है जिसमें भगवान आदिनाथ की लाल पाषाण की पद्मासनावस्था की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। श्रवणबेलगोला के बाहुबली की प्रतिमा के उपरांत भारत की दूसरी मनोज्ञ प्रतिमा है।

 

दरअसल, यह मुख्य प्रतिमा इस क्षेत्र से 6 मील दूर बारहा पाटी पर्वतमाला के एक हिस्से में बरसों से दबी हुई थी।

 

उक्त तीर्थस्थानों के अलावा सारनाथ बिहार, श्री महावीरजी राजस्थान, मक्सी मध्यप्रदेश, हस्तिनापुर उत्तरप्रदेश, केसरियाजी राजस्थान, कचनेर महाराष्ट्र, बनेड़ियाजी मध्यप्रदेश, मुक्तागिरि मध्यप्रदेश, आडिंदा पार्श्वनाथ राजस्थान, सोनागिरिजी मध्यप्रदेश, मांगीतुंगी महाराष्ट्र, अष्टापद बद्रीनाथ उत्तराखंड आदि जगहों पर भी कई प्राचीन जैन तीर्थस्थल हैं।

 

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पालिताणा जैन तीर्थ : पालिताणा जैन मंदिर गुजरात के भावनगर से 51 किलोमीटर की दूरी पर शतरुंजया पहाड़ पर स्थित है। पालिताणा के जैन मंदिर उत्तर भारतीय वास्तुशिल्प के अनुसार बनाए गए हैं। शतरुंजया पहाड़ों की श्रृंखलाओं पर 900 से अधिक मंदिर स्थित हैं। 11वीं सदी में बने इन मंदिरों को दो भागों में बनाया गया है।

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शतरुंजया पर स्थित जैन मंदिर पहले तीर्थंकर ऋषभदेव को समर्पित है। यहां पर प्रमुख जैन मंदिरों में आदिनाथ, विमलशाह, सम्प्रतिराजा कुमारपाल, चौमुख आदि का नाम उल्लेखनीय है। पालिताना जैन मंदिर जैनियों के लिए एक प्रमुख तीर्थ का दर्जा रखता है अतः जैन धर्म को मानने वाले यहां अवश्य ही दर्शनार्थ आते हैं।

पसोवा की प्रसिद्धि का क्या कारण था?

पसोवा में जैन धर्म के तीर्थस्थल विद्यमान थे। उसकी प्रसिद्धि में इन तीर्थस्थलों का मुख्य हाथ था। यहाँ हर वर्ष जैन समुदाय का एक बहुत बड़ा मेला लगता था। जैन श्रद्धालु हज़ारों की संख्या में यहाँ आते थे।

मूर्ति गायब होने पर लोग लेखक को क्यों दोष देते थे?

लेखक पुरातत्व महत्व की वस्तु को देखते ही अपने साथ ले जाता था। उसकी इस आदत से सभी परिचित थे। अतः कहीं भी मूर्ति गायब हो जाती थी, तो लोग लेखक का नाम ही लेते थे। अतः लेखक कहता है कि इसमें दोष नाम लेने वाला का नहीं स्वयं उसका है।

गांव वालों ने उपवास क्यों रखा और उसे कब तोड़ा?

गाँववालों को लेखक पर शक था। अतः वे सब मिलकर उसके पास जा पहुँचे और उनसे शिव की मूर्ति वापस माँगी। लेखक ने बिना किसी परेशानी के सम्मान सहित वह मूर्ति गाँववालों के साथ भेज दी। उसने गाँववालों को पानी तथा मिठाई खिलाकर उनका व्रत तुड़वाया।

₹ 2 में प्राप्त बोधिसत्व की मूर्ति पर ₹ 10000 क्यों न्योछावर किए जा रहे थे?

अतः दो रुपए में प्राप्त मूर्ति पर एक फ्राँसीसी व्यक्ति द्वारा दस हजार रुपए न्यौछावर किए जा रहे थे। उसे निराशा हाथ लगी क्योंकि लेखक भी मूर्ति के महत्व से परिचित था। वह उसे देश से बाहर नहीं जाने देना चाहता था। अतः उसने भी मूर्ति पर दस हजार न्यौछावर कर दिया और उस व्यक्ति को लौटा दिया।