पाठ्यक्रम निर्माण में राज्य की भूमिका - paathyakram nirmaan mein raajy kee bhoomika

पाठ्यक्रम निर्माण में शासन की भूमिका - Role of Governance in Curriculum Development

पाठ्यक्रम के निर्माण में शिक्षक, विद्यार्थी, अभिभावक, विषय विशेषज्ञ समाजशास्त्री, राजनीतिज्ञ आदि सहभागी घटकों के अतिरिक्त शासन स्तर राज्यों के शिक्षा विभाग, विभिन्न अनुसंधान संगठन, एन.सी.ई.आर.टी का पाठ्यक्रम विकास विभाग की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षा मुख्य रूप से राज्य का विषय है तथा सभी राज्यों की अपनी कुछ स्थानीय आवश्यकताएँ एवं आकांक्षाएँ होती हैं। इसीलिए राष्ट्रीय शिक्षा के समान कोर पाठ्यक्रम में भी राज्य के मुद्दों को भी सम्मिलित करने का प्रावधान रखा गया है। प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रम विकास प्रक्रिया में राज्य शिक्षा विभाग की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वैसे भी पाठ्यक्रम के क्रियावयन हेतु आर्थिक प्रबंध का भार राज्य सरकारों पर ही होता है। अतः शासन स्तर पर राज्य शिक्षा विभाग के सहयोग के बिना पाठ्यक्रम संभव नहीं है।

केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा स्थापित और संचालित विभिन्न अनुसंधान संगठनों द्वारा भी शैक्षिक कार्यक्रमों का सर्वेक्षण एवं मूल्यांकन किया जाता है। ये संगठन नवाचारों के प्रयोग की समीक्षा भी करते हैं। इसके साथ ही विभिन्न शोधों के निष्कर्षों से बालकों एवं समाज की आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं का भी ज्ञान होता है जो पाठ्यक्रम विकास के लिए अत्याश्यक होते हैं।

भारत में इस समय शिक्षा के विकास पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में खुले शब्दों में स्वीकार किया गया है कि “शिक्षा पर किया गया व्यय वर्तमान तथा भविष्य के लिए विनियोग है।'' अत: भारत में भी पाठ्यक्रम सुधार पर विशेष बल दिया जा रहा है। इसके लिए विभिन्न स्तरों पर पाठ्यक्रम केंद्रों की स्थापना की गई है। इन केंद्रों का कार्य प्रचलित पाठ्यक्रमों का अध्ययन करके उनमें आवश्यक परिवर्तन करना तथा समयानुसार पाठ्यक्रमों का निर्माण करना है। एन.सी.ई.आर.टी. में इसी उद्देश्य से अलग से पाठ्यक्रम विकास विभाग की स्थापना की गई है। यह विभाग अपने कार्यों के लिए सतत प्रयत्नशील है, जिसके अच्छे परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं। इस प्रकार शासन स्तर पर राज्य तथा केंद्र सरकारें पाठ्यक्रम निर्माण तथा इसके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। 


पाठ्यक्रम निर्माण में राज्य की भूमिका - paathyakram nirmaan mein raajy kee bhoomika
राज्य के शैक्षिक कार्यों का वर्णन

राज्य के शैक्षिक कार्यों का वर्णन | शैक्षिक अभिकरण के रूप में राज्य के कार्यों का वर्णन कीजिये

  • प्रजातन्त्र में राज्य शिक्षा पर आंशिक नियंत्रण और सीमित हस्तक्षेप की नीति अपनाता है। मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हुए जनतन्त्र में राज्य निम्नलिखित शैक्षिक कार्यों को सम्पन्न करता है-
    • राष्ट्रीय शिक्षा योजना का निर्माण व संचालन
    • 2. योग्य शिक्षकों की व्यवस्था करना
    • 3. शैक्षिक सुधार के लिए आयोगों तथा समितियों की नियुक्ति
    • 4. विद्यालयों की स्थापना करना
    • 5. निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था
    • 6. शिक्षा के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना
    • 7. सैनिक शिक्षा की व्यवस्था करना
    • 8. व्यावसायिक और औद्योगिक शिक्षा की व्यवस्था करना
    • 9. प्रदर्शनियों, संग्रहालयों, आर्ट-गैलरी आदि की व्यवस्था करना
    • 10. विद्यालयों को आर्थिक सहायता प्रदान करना
    • 11. शिक्षा का निरीक्षण एवं नियंत्रण
      • महत्वपूर्ण लिंक

प्रजातन्त्र में राज्य शिक्षा पर आंशिक नियंत्रण और सीमित हस्तक्षेप की नीति अपनाता है। मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हुए जनतन्त्र में राज्य निम्नलिखित शैक्षिक कार्यों को सम्पन्न करता है-

  1. राष्ट्रीय शिक्षा योजना का निर्माण व संचालन

राज्य का यह कर्तव्य है कि वह सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्धारण करे और तद्नुरूप व्यापक शिक्षा योजना का निर्माण कराये । राज्य समय-समय पर पूरे देश का शैक्षिक सर्वेक्षण कराकर पूर्व प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च, तकनीकी तथा प्रौढ़ शिक्षा की योजना तैयार कराये तथा उसका क्रियान्वयन कराये।

2. योग्य शिक्षकों की व्यवस्था करना

शिक्षा की सफलता योग्य व प्रशिक्षित अध्यापकों पर निर्भर करती है। अतः राज्य का यह कर्तव्य है कि वह पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च विद्यालयों के साथ-साथ विशिष्ट बच्चों यथा-अंधे, गूंगे, बहरों के विद्यालयों के लिए उपयुक्त प्रशिक्षित अध्यापकों की व्यवस्था करे। विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण-विद्यालयों की स्थापना, कार्यरत शिक्षकों के लिए पत्राचार पाठ्यक्रम का संचालन, पुराने अध्यापकों को नवीन ज्ञान और शिक्षण पद्धतियों से परिचित कराने के लिए अभिनव पाठ्यक्रम की व्यवस्था राज्य को करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त राज्य को ऐसे नियम और कानून बनाने चाहिए कि विविध विद्यालयों में योग्य और प्रशिक्षित अध्यापकों की ही नियुक्ति हो। राज्य के दृढ़ नियम होने से किसी प्रभाववश अयोग्य अध्यापकों की नियुक्ति नहीं हो सकेगी।

3. शैक्षिक सुधार के लिए आयोगों तथा समितियों की नियुक्ति

शिक्षा का तालमेल देश के सामाजिक, आर्थिक और औद्योगिक परिवर्तनों से बना रहना चाहिए। समाज की मांग के अनुसार शिक्षा में परिवर्तन और परिवर्धन होते रहना आवश्यक है । शैक्षिक जगत में भी तेजी से परिवर्तन होते रहते हैं। विभिन्न क्षेत्रों में नवीन ज्ञान, तकनीकी और शिक्षण-विधियों का प्रादर्भाव होता रहता है। अतः शिक्षा को उपयोगी बनाने के लिए राज्य को समय-समय पर शिक्षाविदों, समाजशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों आदि के सम्मेलन बुलाने चाहिए जो अपने-अपने क्षेत्र की मांग के अनुसार शिक्षा में परिवर्तन और सुधार के लिए सुझाव रखें। शिक्षा में समुचित सुधार लाने के लिए शिक्षा आयोगों का गठन इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए राज्य करता है।

4. विद्यालयों की स्थापना करना

राज्य का यह महत्वपूर्ण कार्य है कि वह पूरे राज्य में शिक्षा की सुविधा सुलभ कराने के लिए प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च शिक्षा संस्थाओं की स्थापना करें।

5. निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था

जनसाधारण में शिक्षा के लिए राज्य को एक निश्चित स्तर की शिक्षा अपने नागरिकों को अनिवार्य और निःशुल्क देनी चाहिए। जन सामान्य को साक्षर और शिक्षित बनाना राज्य के मुल कार्यों में से एक है।

6. शिक्षा के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना

राज्य द्वारा स्थापित विद्यालयों और शिक्षा कां लाभ जनसाधारण तभी उठा सकता है. जब शिक्षा के महत्व और आवश्यकता को अनुभव करता हो। यदि अभिभावक निरक्षर, अंधविश्वास और रूढ़ियों से ग्रस्त हैं तो वे अपने बच्चों को पढ़ने के लिए कभी नहीं भेजेंगे। अतः अभिभावक के लिए प्रौढ़ और सामाजिक शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य के लिए आवश्यक है तभी उसके नागरिक शिक्षा के प्रति जागरूक होंगे।

7. सैनिक शिक्षा की व्यवस्था करना

देश को बाह्य एवं आन्तरिक खतरों से बचाने के लिए सैनिक शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का दायित्व है। आपात स्थिति में सेना को सहायता देने के लिए युवक और युवतियों को अर्धसैनिक बल, एन.सी.सी. आदि का प्रशिक्षण देने की व्यवस्था राज्य करता है।

8. व्यावसायिक और औद्योगिक शिक्षा की व्यवस्था करना

राज्य विभिन्न प्रकार के समाजोपयोगी उद्योग-धन्धों, व्यवसायों, तकनीकी और इंजीनियरिंग की शिक्षा के लिए औद्योगिक संस्थान, टेक्निकल स्कूल पॉलीटेक्निक इंजीनियरिंग कॉलेज आदि स्थापित करता है। राज्य जनता को स्वरोजगार के लिए अवसर और समुचित आर्थिक और शैक्षिक सहायता प्रदान करता है।

9. प्रदर्शनियों, संग्रहालयों, आर्ट-गैलरी आदि की व्यवस्था करना

प्रदर्शनी, संग्रहालय और कला-वीथियां भी जनमानस को शिक्षित करती हैं। अतः राज्य समय-समय पर प्रान्तीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की विविध प्रदर्शनियों का आयोजन करे। उदाहरण स्वरूप किसान-मेला, औद्योगिक प्रदर्शनी, विश्व पुस्तक मेला आदि। इनसे इन क्षेत्रों में हुई नवीन खोजों के बारे में लोग जानते हैं। संग्रहालय राष्ट्रीय संस्कृति और सभ्यता की धरोहर से नई पीढ़ी को अवगत कराते रहते हैं। कला-वीथियां कला के क्षेत्र की उपलब्धियों पर प्रकाश डालती हैं। अतः इन आयोजनों की व्यवस्था करना व आर्थिक सहायता देना राज्य का महत्वपूर्ण शैक्षिक कार्य है।

10. विद्यालयों को आर्थिक सहायता प्रदान करना

राज्य एक निश्चित स्तर की सार्वभौमिक शिक्षा का व्यय भार स्वयं वहन करता है। अन्य सभी प्रकार के विद्यालयों को अनुदान के रूप में आर्थिक सहायता देने का कार्य करता है। राज्य समस्त राजकीय विद्यालयों जैसे राजकीय इण्टर कालेज, महाविद्यालय, ट्रेनिंग कालेज, अंधे, गूंगे और बहरों के विद्यालयों का पूर्ण खर्च वहन करता है। दलित और पिछड़े वर्ग के छात्रों, मेधावी और निर्धन छात्रों को छात्रवृत्तियां प्रदान करता है। विद्यालय भवन निर्माण, पुस्तकालय, प्रयोगशाला आदि के लिए भी आर्थिक सहायता राज्य देता है।

11. शिक्षा का निरीक्षण एवं नियंत्रण

जहां राज्य शिक्षा को इतनी सुविधायें प्रदान करता है वहां समय-समय पर निरीक्षण कराकर उस पर अंकुश भी रखता है। राज्य शिक्षा-व्यवस्था और प्रशासन के संदर्भ में नियम बनाता है और उनका पालन सुनिश्चित करता है। राज्य यह कार्य शिक्षा निदेशक, उपशिक्षा निदेशक, जिला विद्यालय निरीक्षक, उपनिरीक्षकों आदि के द्वारा करता है। विद्यालयों के आय-व्यय का ऑडिट भी राज्य द्वारा कराया जाता है।

वास्तव में राज्य का शिक्षा से अनन्य लगाव होना स्वाभाविक है क्योंकि राज्य की प्रगति शिक्षा पर ही निर्भर करती है, जो राज्य अपने नागरिकों की शिक्षा-दीक्षा पर जितना ध्यान देता है वह उतनी ही प्रगति करता है। कल्याणकारी राज्य अपने महत्वपूर्ण अनेक का्यों में शिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करता है। राज्य के विकास के संदर्भ में शासन के शैक्षिक कार्य विविध रूप लेत रहते हैं। प्रौढ़-शिक्षा, समाज शिक्षा, जनसंख्या शिक्षा तथा पर्यावरण की शिक्षा आदि अनेक राज्य के शैक्षिक कार्यक्रम हो सकते हैं।

महत्वपूर्ण लिंक
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पाठ्यक्रम के निर्माण में शिक्षा की क्या भूमिका है?

अध्यापक पाठ्यचर्या के माध्यम से छात्रों के मानसिक, शारीरिक, नैतिक, सांस्कृतिक, संवेगात्मक, आध्यात्मिक तथा सामाजिक विकास के लिए प्रयास करता है । पाठ्यचर्या द्वारा छात्र को जीवन जीने की शिक्षा प्राप्त होती है । इससे अध्यापकों को दिशा-निर्देश प्राप्त होते हैं ।

पाठ्यक्रम निर्माण क्या है एक अच्छे पाठ्यक्रम निर्माण में किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?

पाठ्यक्रम का विकास/निर्माण करते समय छात्रों की आवश्यकताओं के साथ-साथ समुदाय की आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखना चाहिए। वास्तव में सामुदायिक जीवन से ही पाठ्यक्रम(curriculum) की रचना की जानी चाहिए। यह समुदाय की आवश्यकताओं एवं समस्याओं पर आधारित होनी चाहिए। यह सामुदायिक जीवन की ही प्रतिपूर्ति होनी चाहिए

पाठ्यक्रम निर्माण के प्रमुख आधार कौन कौन से हैं?

पाठ्यक्रम का आधार.
दार्शनिक आधार.
मनोवैज्ञानिक आधार.
ऐतिहासिक आधार.
सामाजिक आधार.
सांस्कृतिक आधार.
वैज्ञानिक आधार.

पाठ्यचर्या निर्माण की प्रक्रिया क्या है?

पाठ्यचर्या को ज्ञानात्मक, भावात्मक, क्रियात्मक पक्षों में बांटकर निर्धारण किया जाना चाहिए। छात्रों की वर्तमान आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर मनोवैज्ञानिक स्तर पर ध्यान दिया जाना चाहिए। समाज, संस्कृति, सभ्यता, राष्ट्रीयता एवं अंतर्राष्टीयता की भावना को ध्यान में रखकर पाठ्यचर्या निर्माण की प्रक्रिया की जानी चाहिए।