राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक अनुबंध सिद्धांत से कौन संबंधित है? - raajy kee utpatti ke saamaajik anubandh siddhaant se kaun sambandhit hai?

राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक समझौता सिद्धान्त
राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में इस सिद्धान्त का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसे सामाजिक अनुबन्ध का सिद्धान्त’ भी कहते हैं। आधुनिक काल में इस सिद्धान्त के प्रणेता हॉब्स, लॉक एवं रूसो हैं। जिन्होंने इस सिद्धान्त के अन्तर्गत यह कल्पना की है कि मानव-समाज के विकास के इतिहास में एक ऐसी अवस्था थी जब राज्य नहीं थे, वरन् कुछ प्राकृतिक नियमों के अनुसार ही लोग अपना जीवन व्यतीत करते थे। इसलिए इस सिद्धान्त के प्रवर्तकों ने इस अवस्था को प्राकृतिक अवस्था’ का नाम दिया है।
हॉब्स के अनुसार, “प्राकृतिक अवस्था में लोग जंगली, असभ्य, झगड़ालू तथा स्वार्थी थे। इसलिए वे सभी आपस में हर समय झगड़ते रहते थे। इस कारण प्राकृतिक अवस्था असहनीय थी।”…..” इस काल में मानव-जीवन एकाकी, बर्बर, सम्पत्तिहीन, दु:खपूर्ण तथा अल्पकालिक था।” लॉक के अनुसार, “यह अवस्था असुविधाजनक थी।” रूसो के अनुसार, “प्रारम्भ में प्राकृतिक अवस्था आदर्श थी, परन्तु यह आदर्श अवस्था कुछ कारणों से दूषित हो गई। अतः यह अवस्था असहनीय हो गई। इस प्रकार, असहनीय अवस्था से छुटकारा पाने के लिए लोगों ने आपस में समझौता किया, जिसके फलस्वरूप राज्य का उदय हुआ। राज्य के निर्माण से प्राकृतिक नियमों के स्थान पर मानव-निर्मित कानून लागू हुए और प्राकृतिक अधिकारों के स्थान पर राज्य ने सबको समान नागरिक या राजनीतिक अधिकार प्रदान किए।

गैटिल के अनुसार, “राजभक्तों द्वारा प्रतिपादित दैवी सिद्धान्त के विरोध में 17वीं तथा 18वीं शताब्दी के क्रान्तिकारी विचारकों ने लोकप्रिय राजसत्ता, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता एवं क्रान्ति के अधिकारों का प्रचार करने के लिए सामाजिक समझौते के सिद्धान्त की शरण ली।”

इस सिद्धान्त की इन तीन विद्वानों हॉब्स, लॉक और रूसो ने बड़ी विस्तृत एवं वैज्ञानिक व्याख्या की है, परन्तु अपने-अपने ढंग से। इसीलिए कहीं-कहीं तीनों में पर्याप्त मतभेद भी हैं। किन्तु तीनों ने निष्कर्ष एक ही निकाला है। तीनों का ही मत है कि प्राकृतिक अवस्था के कुछ दोषों तथा असुविधा के कारण ही राज्य का निर्माण हुआ। संक्षेप में कहा जा सकता है कि इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य दैवी संस्था न होकर एक मानवीय संस्था है।

आलोचना- इस सिद्धान्त की अनेक विद्वानों ने कटु आलोचना की है। इस सिद्धान्त की आलोचना के निम्नलिखित आधार हैं।

⦁    यह सिद्धान्त कल्पना पर आधारित है। इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता है।
⦁    यह सिद्धान्त तर्कसंगत भी नहीं है। इस सिद्धान्त के अनुसार प्राकृतिक अवस्था में लोग जंगली एवं असभ्य थे। परन्तु जंगली एवं असभ्य लोगों के मन में अचानक राज्य-निर्माण की बात कैसे आई और उन्होंने कैसे कानून और अधिकार आदि का निर्माण किया? इन परस्पर विरोधी प्रश्नों का समुचित उत्तर इस सिद्धान्त के प्रतिपादकों के द्वारा स्पष्ट नहीं किया जा सका है।
⦁    कुछ विद्वानों ने इस सिद्धान्त को ‘भयानक’ कहकर कड़ी आलोचना की है। उनका मत है। कि यह सिद्धान्त लोगों को राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए प्रोत्साहित करता है। उनके मतानुसार यह सिद्धान्त न तो इतिहास से प्रमाणित किया जा सकता है और न उच्च राजनीतिक दर्शन के विषय में प्रकाश डालता है।
⦁    राज्य एक कृत्रिम संस्था न होकर प्राकृतिक संस्था है और दीर्घकालीन विकास का परिणाम है।
⦁    यह समझौता वर्तमान समय में मान्य नहीं है; क्योंकि कोई भी समझौता केवल उन्हीं लोगों पर लागू होता है जिनके मध्य वह किया जाता है।
⦁    यह सिद्धान्त मानव-स्वभाव के सन्दर्भ में अशुद्ध दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।

महत्त्व- इस सिद्धान्त का महत्त्व निम्नलिखित दृष्टियों से है-
⦁    यह सिद्धान्त व्यक्ति को विशेष महत्त्व देता है।
⦁    यह सिद्धान्त निरंकुश एवं स्वेच्छाधारी शासन का विरोध करता है।
⦁    इस सिद्धान्त ने लोकतन्त्र के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
⦁    यह सिद्धान्त लोकतन्त्र और स्वतन्त्रता का पोषक है।

 सामाजिक समझौते का सिद्धांत (social contract theory)

            CONTENT :

  1. परिचय,
  2. इस सिद्धांत का विकास,
  3. थांमस हाब्स (1588 – 1679),
  4. जाॅन लाॅक (1632 – 1704),
  5. जीन जेकस रूसो (1712-1767),
  6. सामाजिक समझौता सिद्धांत की आलोचना,

परिचय राज्य की उत्पत्ति के संबंध में सामाजिक समझौता सिद्धांत बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। 17 वीं और 18वीं सदी की राजनीतिक विचारधारा में तो इस सिद्धांत की पूर्ण प्रधानता थी। इस सिद्धांत के अनुसार राज्य दैवीय न होकर एक मानवीय संस्था है जिसका निर्माण व्यक्तियों द्वारा पारस्परिक समझौते के आधार पर किया गया है। सिद्धांत के प्रतिपादक मानव इतिहास को दो भागों में बांटते हैं (1) प्राकृतिक अवस्था का काल, (2) नागरिक जीवन के प्रारंभ के बाद का काल। इस सिद्धांत के सभी प्रतिपादक अत्यंत प्राचीन काल में एक ऐसी प्राकृतिक अवस्था के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं जिसके अंतर्गत जीवन को व्यवस्थित रखने के लिए राज्य या राज्य जैसी कोई अन्य संस्था नहीं थी। सिद्धांत के प्रतिपादकों में प्राकृतिक अवस्था के संबंध में पर्याप्त मतभेद हैं, कुछ इसे पूर्व सामाजिक और कुछ इसे पूर्व राजनीति अवस्था कहते हैं। इस प्राकृतिक अवस्था के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार या प्राकृतिक नियमों के आधार पर अपना जीवन व्यतीत करते थे। इस प्राकृतिक अवस्था के संबंध में मतभेद होते हुए भी सभी मानते हैं कि किसी कारण से मनुष्य प्राकृतिक अवस्था का त्याग करने को विवश हुए और उन्होंने समझौते द्वारा राजनीतिक समाज की स्थापना की। इस समझौते के परिणामस्वरुप प्रत्येक व्यक्ति की प्राकृतिक स्वतंत्रता आंशिक या पूर्ण रूप से समाप्त हो गई और स्वतंत्रता के बदले उसे राज्य व कानून की ओर से सुरक्षा का आश्वासन प्राप्त हुआ।

इस सिद्धांत का विकास समझौता सिद्धांत राजनीति के दर्शन की तरह ही पुराना है तथा इसे पूर्व और पश्चिम दोनों ही क्षेत्रों से समर्थन प्राप्त हुआ है। महाभारत के शांति पर्व में इस बात का वर्णन मिलता है कि पहले राज्य नहीं था, उसके स्थान पर अराजकता थी। ऐसी स्थिति में तंग आकर मनुष्य ने परस्पर समझौता किया और मनु को अपना शासक स्वीकार किया। आचार्य कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में इस बात को अपनाया है कि प्रजा ने राजा को चुना और राजा ने प्रजा की सुरक्षा का वचन दिया।

यूनान में सबसे पहले सोफिस्ट वर्ग ने इस विचार का प्रतिपादन किया। उनका मत था कि राज्य एक कृत्रिम संस्था और एक समझौते का फल है। इपीक्यूरियन विचारधारा वाले वर्ग ने इसका समर्थन किया और रोमन विचारकों ने भी इस बात पर बल दिया कि “जनता राज्य सत्ता का अंतिम स्त्रोत है।” मध्य युग में भी यह विचार काफी प्रभावपूर्ण था और मेनगोल्ड तथा थामस एक्विनास के द्वारा इसका समर्थन किया गया।

16वीं और 17वीं सदी में यह विचार बहुत अधिक लोकप्रिय हो गए और लगभग सभी विचारक इसे मानने लगे। रिचर्ड हूकर ने सर्वप्रथम वैज्ञानिक रूप से समझौते की तर्कपूर्ण व्याख्या की और डच न्यायाधीश ग्रोशियश पूफेण्डोर्फ तथा स्पिनोजा ने इसका पोषण किया, किंतु इस सिद्धांत का वैज्ञानिक और विधिवत रूप में प्रतिपादन हाब्स, लांक और रूसो द्वारा किया गया, जिन्हें ‘समझौतावादी विचारक’ कहा जाता है।

इन्हे भी पढ़े : राज्य की उत्पत्ति का  शक्ति  सिद्धांत 

थांमस हाब्स (1588 – 1679)

थांमस हाब्स इंग्लैंड के निवासी थे और राजवंशी संपर्क के कारण उनकी विचारधारा राजतंत्रवादी थी। उनके समय में इंग्लैंड में राजतंत्र और प्रजातंत्र के समर्थकों के बीच तनावपूर्ण विवाद चल रहा था। इस संबंध में हाब्स का विश्वास था कि शक्तिशाली राजतंत्र के बिना देश में शांति और व्यवस्था स्थापित नहीं हो सकती। अपने इस विचार का प्रतिपादन करने के लिए उसने 1651 में प्रकाशित पुस्तक ‘लेवायथन’ (Leviathan) में समझौता सिद्धांत का वर्णन किया। उसने सामाजिक समझौते की व्याख्या इस प्रकार की है –

मानव स्वभाव हाब्स के समय में चल रहे इंग्लैंड के ग़ृह युद्ध ने उसके सामने मानव स्वभाव का घृणित पक्ष ही रखा। उसने अनुभव किया कि मनुष्य एक स्वार्थी, अहंकारी और आत्मभिमानी प्राणी है। वह सदा ही शक्ति से स्नेह करता है और शक्ति प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहता है।

प्राकृतिक अवस्था इस स्वार्थी अहंकारी और आत्माभिमानी व्यक्ति के जीवन पर किसी प्रकार का नियंत्रण न होने का संभावित परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक मनुष्य प्रत्येक दूसरे मनुष्य को शत्रु की दृष्टि से देखने लगा और सभी भूखे भेड़ियों के समान एक दूसरे को निकल जाने के लिए घूमने लगे। मनुष्य को न्याय और अन्याय का कोई ज्ञान नहीं था और प्राकृतिक अवस्था ‘शक्ति ही सत्य है’ की धारणा पर आधारित थी।

समझौते का कारण जीवन और संपत्ति की सुरक्षा तथा मृत्यु और संहार कि इस भय ने व्यक्तियों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वह इस असहनीय प्राकृतिक अवस्था का अंत करने के उद्देश्य से एक राजनीतिक समाज का निर्माण करें।

समझौता नवीन समाज का निर्माण करने के लिए सब व्यक्तियों ने मिलकर एक समझौता किया। हाब्स के मतानुसार यह समझौता प्रत्येक व्यक्ति ने शेष व्यक्ति समूह से किया, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक दूसरे व्यक्ति से कहता है कि “मैं इस व्यक्ति अथवा सभा को अपने अधिकार और शक्ति का समर्पण करता हूं जिससे कि वह हम पर शासन करें परंतु इसी शर्त पर कि आप भी अपने अधिकार और शक्ति का समर्पण इसे इसी रूप में करें और इसकी आज्ञाओं को माने।” इस प्रकार सभी व्यक्तियों ने एक व्यक्ति अथवा सभी के प्रति अपने अधिकारों का पूर्ण समर्थन कर दिया और यह शक्ति या सत्ता उस क्षेत्र में सर्वोच्च सत्ता बन गई, यही राज्य का श्रीगणेश है।

नवीन राज्य का रूप हाब्स के समझौते द्वारा एक ऐसी निरंकुश राजतंत्रात्मक राज्य की स्थापना की गई है, जिसका शासक संपूर्ण शक्ति संपन्न है और जिसके प्रजा के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है शासित वर्ग को शासक वर्ग के विरुद्ध विद्रोह का कोई अधिकार प्राप्त नहीं है।

विस्तार से पढ़ें : हाॅब्स का सामाजिक समझौता सिद्धांत

(John lock) जाॅन लाॅक (1632 – 1704)

जाॅन लाॅक इंग्लैंड का ही एक अन्य दार्शनिक था, जिसने अपने सिद्धांत का प्रतिपादन 1690 में प्रकाशित पुस्तक ‘two treaties on government’ में किया है। इस पुस्तक के प्रकाशन के 2 वर्ष पूर्व इंग्लैंड में गौरवपूर्ण क्रांति हो चुकी थी, जिसके द्वारा राजा के विरुद्ध पार्लियामेंट की अंतिम सत्ता को स्वीकार कर लिया गया था। लाॅक ने अपनी पुस्तक में इन परिस्थितियों का स्वागत करते हुए सीमित या वैधानिक राजतंत्र का प्रतिपादन किया। जॉन ने अपने समझौता सिद्धांत की व्याख्या निम्न प्रकार से की है –

मानव स्वभाव और प्राकृतिक अवस्था लाॅक के अनुसार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, और उसमें प्रेम, सहानुभूति, सहयोग एवं दया की भावनाएं विद्यमान थी। मानव स्वभाव की इस सामाजिकता के कारण प्राकृतिक अवस्था संघर्ष की अवस्था नहीं हो सकती थी, बल्कि यह तो स्वयं की इच्छा, सहयोग और सुरक्षा की व्यवस्था थी। लॉक के अनुसार प्राकृतिक अवस्था नियम विहीन नहीं थी, वरन् उसके अंतर्गत यह नियम प्रचलित था – ‘तुम दूसरों के प्रति वैसा ही व्यवहार करो जैसा व्यवहार तुम दूसरों से अपने पति चाहते हो'( do unto others as you want others to do unto you)। प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य को प्राकृतिक अधिकार प्राप्त थे और प्रत्येक व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के अधिकारों का आदर करता था, इसमें मुख्य अधिकार जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति के थे।

समझौते के कारण इस आदर्श प्राकृतिक अवस्था में कालांतर में व्यक्तियों को कुछ ऐसी असुविधाएं अनुभव हुई जिन असुविधाएं को दूर करने के लिए व्यक्तियों ने प्राकृतिक अवस्था का त्याग करना उचित समझा। लॉक के अनुसार यह असुविधाएं निम्नलिखित थी:

(क) प्रकृति के नियमों की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं थी, (ख) इन नियमों की व्याख्या करने के लिए कोई योग्य सभा नहीं थी, (ग) इन नियमों को मनवाने के लिए कोई शक्ति नहीं थी।

समझौता लाॅक के सिद्धांत के अंतर्गत राज्य का निर्माण करने के लिए केवल एक ही समझौता किया गया, परंतु लाॅक के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि दो समझौते किए गए। 1 – समझौते द्वारा प्राकृतिक अवस्था का अंत करके समाज की स्थापना की गई। इस समझौते का उद्देश्य व्यक्तियों के जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति की रक्षा है। 2 – इस समझौते के अनुसार शासित वर्ग के द्वारा शासक को कानून बनाने, उनकी व्याख्या करने और उन्हें लागू करने का अधिकार दिया जाता है, परंतु शासक की शक्ति पर यह प्रतिबंध लगा दिया गया कि उसके द्वारा निर्मित कानून अनिवार्य रूप से प्राकृतिक नियमों के अनुकूल और अनुरूप होंगे तथा वे जनता के हित में ही होंगे।

नवीन राज्य का स्वरूप लॉक के सामाजिक समझौता सिद्धांत के अंतर्गत शासक और शासित के मध्य जो समझौता संपन्न हुआ है, उससे स्पष्ट है कि सरकार स्वयं एक लक्ष्य नहीं बल्कि एक लक्ष्य की प्राप्ति का साधन मात्र है और वह लक्ष्य है शांति और व्यवस्था स्थापित करना और लोक कल्याण। लाॅक इस विचार का प्रतिपादन करता है, कि यदि सरकार अपने उद्देश्य में असफल हो जाती हैं तो समाज को इस प्रकार की सरकार के स्थान पर दूसरी सरकार स्थापित करने का पूर्ण अधिकार है। इस प्रकार लॉक के द्वारा एक ऐसी शासन व्यवस्था का समर्थन किया गया, जिसमें वास्तविक एवं अंतिम शक्ति जनता में निहित होती है और सरकार का अस्तित्व तथा रूप जनता की इच्छा पर निर्भर करता है।

(Jean jeckus Rousseau) जीन जेकस रूसो (1712-1767)

रूसो ने अपने सामाजिक समझौता सिद्धांत का प्रतिपादन 1762 में प्रकाशित पुस्तक सामाजिक समझौता (the social contract) में किया है। हाॅब्स, लाॅक के समान रूसो के द्वारा इस सिद्धांत का प्रतिपादन किसी विशेष उद्देश्य से नहीं किया गया था, लेकिन रूसो ने जिस प्रकार से अपने सिद्धांत का प्रतिपादन किया है, उससे वह प्रजातंत्र का अग्रदूत बन जाता है। रूसो के द्वारा अपने सिद्धांत की व्याख्या निम्न प्रकार से की गई है-

मानव स्वभाव और प्राकृतिक अवस्था रूसो अपनी पुस्तक ‘सामाजिक समझौता’ में लिखता है, “मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है किंतु वह सर्वत्र जंजीरों में जकड़ा हुआ है।” इस वाक्य से रूसो इस तथ्य का प्रतिपादन करता है कि “मनुष्य मौलिक रूप से अच्छा है और सामाजिक बुराइयां ही मानवीय अच्छाई में बाधक बनती है।” प्राकृतिक अवस्था के व्यक्ति के लिए रूसो ‘आदर्श बर्बर’ शब्द का प्रयोग करता है। यह आदर्श बर्बर अपने में ही इतना संतुष्ट था कि ना तो उसे किसी साथी की आवश्यकता थी और ना किसी का अहित करने की उसकी इच्छा थी। इस प्रकार प्राकृतिक अवस्था में व्यक्ति एक भोले और अज्ञानी बालक की भांति सादगी और परम सुख का जीवन व्यतीत करता था। इस प्रकार प्राकृतिक अवस्था पूर्ण स्वतंत्रता एवं समानता और पवित्र तथा कपट रहित जीवन की अवस्था थी, परंतु इस प्राकृतिक अवस्था में विवेक का नितांत अभाव था।

समझौते का कारण प्राकृतिक अवस्था आदर्श अवस्था थी, लेकिन कुछ समय बाद ऐसे कारण उत्पन्न हो गये, जिन्होंने इस अवस्था को दूषित कर दिया। कृषि के आविष्कार के कारण भूमि पर स्थाई अधिकार और इसके परिणाम स्वरुप संपत्ति तथा मेरे तेरे की भावना का विकास हुआ। जब प्रत्येक व्यक्ति अधिक से अधिक भूमि पर अधिकार करने की इच्छा करने लगा तो शांति का जीवन नष्ट हो गया और समाज की लगभग वही दशा हुई जो हाॅब्स की प्राकृतिक दशा में थी। रूसो संपत्ति को समाज की स्थापना के लिए उत्तरदायी मानता है। प्राकृतिक भाषा का रूप नष्ट होकर युद्ध, संघर्ष और विनाश का वातावरण उपस्थित हो गया। युद्ध और संघर्ष के वातावरण का अंत करने के लिए व्यक्तियों ने पारस्परिक समझौते द्वारा समाज की स्थापना का निर्णय किया।

समझौता इस असहनीय स्थिति से छुटकारा प्राप्त करने के लिए सभी व्यक्ति एक स्थान पर एकत्रित हुए और उनके द्वारा अपनी संपूर्ण अधिकारों का समर्पण किया गया, किंतु अधिकारों का यह संपूर्ण समर्पण किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं वरन् संपूर्ण समाज के लिए किया गया। समझौते के परिणामस्वरुप संपूर्ण समाज की एक सामान्य इच्छा उत्पन्न होती है और सभी व्यक्ति इस सामान्य इच्छा के अंतर्गत रहते हुए कार्यरत रहते हैं। स्वयं रूसो के शब्दों में, “समझौते के अंतर्गत, प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व और अपनी पूर्ण शक्ति को सामान्य प्रयोग के लिए सामान्य इच्छा के सर्वोच्च निर्देशक के अधीन समर्पित कर देता है तथा एक समूह के रूप में अपने व्यक्तित्व तथा अपनी पूर्ण शक्ति को प्राप्त कर लेता है।” इस प्रकार के हस्तांतरण से सभी पक्षों को लाभ है।

इस प्रकार रूसो के समझौते द्वारा एक लोकतांत्रिक समाज की स्थापना होती है जिसके अंतर्गत संप्रभुता संपूर्ण समाज में निहित होती है और यदि सरकार सामान्य इच्छा के विरुद्ध शासन नहीं करती है तो जनता को ऐसी सरकार को पद मुक्त करने का अधिकार प्राप्त होता है।

इन्हे भी पढ़े : राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धांत 

सामाजिक समझौता सिद्धांत की आलोचना ( criticism of social contract )

17वीं, 18वीं सदी में समझौता सिद्धांत अत्यंत लोकप्रिय रहा, परंतु 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी के राजनीतिक विचारकों ने इस सिद्धांत की कड़ी आलोचना प्रस्तुत की।

(1) समझौता अनैतिहासिक ऐतिहासिक दृष्टि से सामाजिक समझौता सिद्धांत गलत है क्योंकि इतिहास में इस बात का कहीं भी उदाहरण नहीं मिलता कि आदिम मनुष्य ने पारस्परिक समझौते के आधार पर राज्य की स्थापना की हो। संविदा सिद्धांत के समर्थक अपने पक्ष में 11नवंबर,1620 के ‘मैफ्लाइवर एक्ट'(mayflower pact) का उदाहरण देते हैं, जिनमें मैफ्लाइवर नामक जहाज पर बैठे हुए इंग्लैंड से अमेरिका जाने वाले अंग्रेजों ने अनुबंध किया था कि “हम लोग शांति और सुख का जीवन व्यतीत करने के उद्देश्य से एक राजनीतिक समाज की रचना करेंगे।” किंतु इस उदाहरण से समझौता सिद्धांत की पुष्टि नहीं होती, क्योंकि समझौता सिद्धांत में वर्णित प्राकृतिक अवस्था के लोगों और मैफ्लावर पैक्ट से संबंधित लोगों की राजनीतिक चेतना में बहुत अधिक अंतर है। 

(2) प्राकृतिक अवस्था की धारणा गलत सामाजिक समझौता सिद्धांत मानवीय इतिहास को प्राकृतिक अवस्था और सामाजिक अवस्था इस प्रकार के दो भागों में बांट देता है और एक ऐसी अवस्था की कल्पना करता है, जिसके अंतर्गत किसी भी प्रकार का समाज और राज्य नहीं था, किंतु ऐतिहासिक दृष्टि से यह काल विभाजन नितांत असत्य है। इतिहास में कहीं पर भी हमें ऐसी अवस्था का प्रमाण नहीं मिलता, जब मानव संगठन विहीन अवस्था में रहता हो।

(3) राज्य विकास का परिणाम है निर्माण का नहीं इतिहास के अनुसार राज्य और इसी प्रकार की अन्य मानवीय संस्थाओं का विकास हुआ है, निर्माण नहीं। स्वभाव से ही सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य आरंभ में परिवारों में, फिर कुलों, फिर कबीलों और फिर जनपदों अथवा राज्य में संगठित हुआ। अतः समझौता सिद्धांत की इस बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि राज्य का किसी एक विशेष समय पर निर्माण किया गया।

(4) राज्य की सदस्यता ऐच्छिक नहीं इस सिद्धांत के अंतर्गत राज्य को एक ऐसे संगठन के रूप में चित्रित किया गया है जिसकी सदस्यता ऐच्छिक हो, किंतु राज्य की सदस्यता ऐच्छिक नहीं वरन् अनिवार्य होती है, और व्यक्ति उसी प्रकार राज्य के सदस्य होते हैं, जिस प्रकार परिवार के। यदि राज्य एक क्लब या व्यापारिक संस्था की तरह स्वेच्छा से बनाया गया संगठन होता तो व्यक्ति को यह स्वतंत्रता होती कि वह जब चाहे तब उसमें शामिल हो जाए और जब चाहे तब उससे अलग हो जाए। क्योंकि इस सिद्धांत के अंतर्गत राज्य को साधारण साझेदारी पर आधारित आर्थिक समुदाय के रूप में चित्रित किया गया है, अतः इस सिद्धांत द्वारा किया गया राज्य के स्वरूप का प्रतिपादन पूर्णतः गलत है।

(5) प्राकृतिक अवस्था में अधिकारों का अस्तित्व संभव नहीं इस सिद्धांत के समर्थकों का प्रमुख रूप से लाॅक का विचार है कि व्यक्ति प्राकृतिक अवस्था में प्राकृतिक अधिकारों का उपयोग करते थे परंतु प्राकृतिक अधिकारों और प्राकृतिक स्वतंत्रता की धारणा नितांत भ्रमपूर्ण है। अधिकारों का उदय समाज में ही होता है, और एक राज्य के अंतर्गत रहकर ही अधिकारों का उपयोग किया जा सकता है।

(6) प्राकृतिक अवस्था में समझौता संभव नहीं यदि तर्क के लिए यह मान लिया जाए कि आदिम मनुष्य अपनी सामाजिक चेतना में इतना आगे बढ़ चुका था कि वह समझौता कर सके, तो प्राकृतिक अवस्था में किए गए किसी भी समझौते का वैज्ञानिक दृष्टि से कोई महत्व नहीं है क्योंकि किसी समझौते को वैद्य रूप प्राप्त होने के लिए यह आवश्यक है कि उसके पीछे राज्य की स्वीकृति का बल हो, लेकिन प्राकृतिक अवस्था में राज्य का अस्तित्व ना होने के कारण सामाजिक समझौते के पीछे इस प्रकार की कोई शक्ति नहीं थी।